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किम-ट्रंप वार्ता को ग्रहण

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70 वर्ष पहले उत्तर कोरिया आैर दक्षिण कोरिया अलग हुए थे, उसके बाद से उत्तर कोरिया के किसी नेता ने दक्षिण कोरिया की सरजमीं पर कदम नहीं रखा था। गत 27 अप्रैल को उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन व दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जेई इन ने 40 कदम साथ चलकर 70 वर्षों से रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघला दिया था। पूरी दुनिया ने राहत की सांस ली थी। ऐसा महसूस होने लगा था कि उत्तर कोरियाई शिखर वार्ता से न केवल दोनों देशों बल्कि कोरियाई महाद्वीप में एक नए युग की शुरूआत होने जा रही है। इतिहास रचे अभी एक माह भी पूरा नहीं हुआ कि दोनों देशों के बीच दोस्ती में दरार पैदा होती दिखाई दे रही है। दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच सैन्य अभ्यास शुरू हुआ तो उत्तर कोरिया ने इस पर आपत्ति जाहिर करते हुए दक्षिण कोरिया के साथ उच्चस्तरीय बैठक रद्द कर दी। इसके साथ ही उसने किम जोंग उन और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच सिंगापुर में होने वाली ऐतिहासिक बैठक रद्द करने की धमकी दी है, हालांकि अमेरिका ने कहा है कि वह शिखर वार्ता की तैयारियां कर रहा है।

ट्रंप और किम के बीच 12 जून को होने वाली शिखर वार्ता को भी ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है। ट्रंप और किम जोंग उन की बैठक को लेकर संदेह उसी दिन उत्पन्न हो गए थे जिस दिन अमेरिका ने ईरान परमाणु समझौते से खुद को अलग कर दिया था। अगर अमेरिका ईरान परमाणु समझौता तोड़ सकता है तो फिर किम जोंग उन ऐसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे ही क्यों? किम जोंग उन के नाराज होने की वजह अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच चल रहा सैन्य अभ्यास है। उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया ने हाल ही में सीमा पर सैन्य तनाव कम करने के लिए समझौता किया था तो फिर दक्षिण कोरिया के सैन्य अभ्यास का आैचित्य नजर नहीं आ रहा।

दरअसल ट्रंप और किम जोंग उन की वार्ता से पहले अमेरिका उत्तर कोरिया पर दबाव बढ़ाना चाहता है आैर सैन्य अभ्यास भी दबाव बढ़ाने की रणनीति का एक हिस्सा है। उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया का अडि़यल रुख देखते हुए उसके साथ होने वाली वार्ता को रद्द कर दिया है। उत्तर कोरिया के सनकी तानाशाह किम की ट्रंप से वार्ता रद्द करने की धमकी को हल्के में नहीं लिया जा सकता। अमेरिका का एकमात्र मकसद उत्तर कोरिया को पूरी तरह परमाणु हथियार विहीन करना है लेकिन वह यह काम दक्षिण कोरिया के साथ सैन्य अभ्यास करके या अन्य उकसावे वाली आैर दुष्टता भरी कार्रवाइयां करके नहीं कर सकता। ताली एक हाथ से तो बजेगी नहीं, इसलिए अमेरिका को भी समझना चाहिए कि बातचीत के लिए अनुकूल वातावरण कायम किया जाए। अमेरिका की हमेशा रणनीति रही है कि परमाणु कार्यक्रम के नाम पर देशों को घेरा जाए। इराक और लीबिया में भी उसने विध्वंस का खेल खेला था।

अमेरिका का जोर इस बात पर है कि उत्तर कोरिया अपना परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह छोड़ दे और अंतर्राष्ट्रीय निगरानी टीमों को अपने परमाणु कार्यक्रम स्थलों के दौरे की इजाजत दे। अमेरिका से बातचीत को तैयार हो चुके किम जोंग उन ने वार्ता के लिए अनुकूल वातावरण कायम करने के लिए ही घोषणा की थी कि प्योंगयांग अब परमाणु परीक्षण नहीं करेगा और इसके साथ ही वह अपनी परमाणु परीक्षण साइट को बन्द कर देगा। यह सही है कि उत्तर कोरिया की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं है। लोगों को खाद्यान्न और अन्य वस्तुएं उपलब्ध कराने का 90 फीसदी सामान बाहर के देशों से आता है। तानाशाह किम जोंग उन को पता है कि उनका देश आर्थिक और अन्य तरह की पाबंदियां ज्यादा लम्बे समय तक नहीं झेल सकता। ऐसी स्थिति में उत्तर कोरिया की जनता उनके खिलाफ विद्रोह पर उतर सकती है। सारी परिस्थितियों को समझते हुए ही उसने बातचीत का रास्ता अपनाया है। अब अमेरिका के हठधर्मी रवैये को देखते हुए कह दिया है कि अगर अमेरिका उस पर हमला करता है तो फिर वह अपनी रक्षा कैसे करेगा? उसे अपनी रक्षा के लिए हथियार चाहिए। किम जोंग उन को लगता है कि अगर भ​िवष्य में अमेरिका ने उस पर हमला किया तो दक्षिण कोरिया अमेरिका का सहायक बनेगा।

इस बात का संदेह है कि उत्तर कोरिया सारे परमाणु हथियार खत्म कर देगा। ट्रंप से बातचीत के बाद हो सकता है कि उत्तर कोरिया कुछ अर्से के लिए परीक्षण टाल दे। अगर वह ऐसा करेगा तो अपने पांव पर कुल्हाड़ी ही मारेगा। उत्तर कोरिया की समस्या यह है कि वह अमेरिका पर कतई भी विश्वास नहीं करता। इराक, लीबिया का इतिहास देखकर तो अमेरिका पर विश्वास करना मुश्किल ही है। बेहतर यही होगा कि बातचीत से आैर परस्पर विश्वास कायम कर ही शांति की स्थापना की जा सकती है। अमेरिका को भी चाहिए कि वह उत्तर कोरिया को उसकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करे। अमेरिका की उकसावे वाली कार्रवाइयों से वार्ता खटाई में पड़ सकती है।

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