स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है कि पूरा देश सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक तीनों ही मोर्चों पर पूरी तरह उबल रहा है। इतना ही नहीं भारतीय लोकतन्त्र के चारों खम्भे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व स्वतन्त्र प्रेस (मीडिया) अपने-अपने संरचनात्मक अंतर्द्वंद का आर्तनाद पूरी बेचारगी के साथ कर रहे हैं। संवैधानिक स्वायत्तता के सुरक्षा कवच में गठित विभिन्न संस्थान सत्ता के अदृश्य हस्तक्षेप के प्रभावों से चीख रहे हैं।
सबसे बड़ा हमला भारतीय संविधान के मूल स्थापित नियामकों पर ही हो रहा है और इसके ठीक विपरीत संविधान लिखने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के नाम पर इमारतें खड़ी करके हम उनके दिये गए ‘समरसता व सामाजिक न्याय’ के सिद्धान्तों को पत्थरों में बेजान बनाने पर उतावले हैं मगर सबसे बड़ा संकट हमारी उस विधायिका के सामने खड़ा हो रहा है जिसकी बागडोर विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथ में इस देश की जनता सौंपती है।
संसद के पूरे बजट सत्र (विशेष रूप से दूसरा चरण) का बिना किसी रचनात्मक बहस के खत्म हो जाना इसी बात का संकेत है कि हम इस देश की वर्तमान समस्याओं का सामना करने से भाग रहे हैं। संसदीय लोकतन्त्र में संसद का विकल्प कोई भी दूसरा संस्थान या सत्ता का प्रतिष्ठान किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता। इसकी कोई व्यवस्था हमारे संविधान में नहीं है। अध्यादेश जारी करके हल खोजने का जो रास्ता संविधान में है उसे भी अन्ततः संसद के सामने ही पेश करके मंजूरी लेने की शर्त है।
अतः संसद को ‘असंगत’ या ‘बेकार’ बनाने के किसी भी प्रयास के पीछे मध्य युगीन भारत की सुल्तानशाही मानसिकता का बेलगाम हुकूमत चलाने का वह नजरिया छुपकर काम करता है जिसमें आम जनता की आवाज के कोई मायने नहीं होते। इसका कहीं से भी ‘एक भारत– सशक्त भारत’ की परिकल्पना से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। ‘सशक्त भारत’ की परिकल्पना भारत के लोगों की एकता से सीधे बन्धी हुई है।
‘एक भारत’ की परिकल्पना भारत के विभिन्न राज्यों की एक-दूसरे पर आर्थिक निर्भरता के सिद्धान्त पर टिकी हुई है। हमारे संविधान में बाबा साहेब ने ठीक एेसी ही व्यवस्था देकर भारत को राज्यों का संघ ( यूनियन आफ इंडिया) घोषित किया था मगर आज इन सभी मूलभूत आधारों का वजूद खतरे में पड़ता नजर आ रहा है अतः सबसे बड़ी जिम्मेदारी संसद की ही बनती है कि वह इन सभी पक्षों पर गंभीरतापूर्वक विचार करके भारत के लोकतन्त्र की उस खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करे जिसकी अवधारणा बाबा साहेब ने संविधान लिखते समय बनाई थी।
इन सभी ज्वलन्त समस्याओं का सन्तोषजनक हल बिना जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की आम सहमति के संभव इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि भारत वैचारिक मतभिन्नता के बीच आम राय से चलने वाला एेसा देश है जिसके विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारें ‘एक भारत’ के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करती हैं। संसद इन सभी की प्रतिनििध सभा होती है अतः इसमें बनी सहमति इस देश की एकता का रास्ता बनाती है।
मौजूदा परिस्थितियों में संसद का विशेष सत्र बुलाया जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि संसद से बाहर सत्तारूढ़ दल से लेकर विपक्षी दल जिस तरह के अलग–अलग दावे कर रहे हैं उनकी तसदीक केवल इसी संस्थान में हो सकती है। संसद से बाहर दिए गए वक्तव्य मूल रूप से राजनीतिक दलों के नेताओं के होते हैं। जब सरकार का कोई मन्त्री (प्रधानमन्त्री से लेकर राज्यमन्त्री तक) संसद के भीतर बोलता है तो वह तथ्यों को सामने रखकर अपने किए गए काम का प्रमाण देता है।
जब विपक्ष का कोई नेता संसद में बोलता है तो वह सरकार की नाकामियों के सबूत के साथ चुनौती देता है। इसलिए इससे भागने का उपक्रम करना या इसे मूक-बधिर बना देने की चालें चलना इसे चुनने वाले मतदाताओं के साथ विश्वासघात के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता। हमारी लोकतान्त्रिक संसदीय प्रणाली में कोई भी रास्ता इकतरफा नहीं है। बाबा साहेब ने संविधान सभा को अपना लिखित दस्तावेज ‘संविधान’ 26 नवम्बर 1949 को सौंपते समय ही साफ कर दिया था कि इस कानून की किताब में ‘राजभक्ति’ के लिए कोई जगह नहीं है जबकि ‘राष्ट्रभक्ति’ इसका मूल आधार है।
क्योंकि राज केवल जनता का ही होगा और ‘राज’ को जनता की आलोचना व समालोचना का सामना इस तरह करना होगा कि व्यक्ति पूजा की अन्ध भक्ति का राजनीति में कोई स्थान न बन सके मगर जब स्वतन्त्र भारत के पहले कानून मन्त्री होते हुए उनके द्वारा बनाया गया ‘हिन्दू कोड बिल’ तत्कालीन संविधान सभा ने स्वीकार नहीं किया तो प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने इसी बिल या विधेयक के विभिन्न प्रावधानों को 1952 के प्रथम आम चुनावों में अपनी पार्टी कांग्रेस का चुनावी मुद्दा बनाकर पूरे देश में प्रचार किया और लोगों की उस पर मंजूरी मांगी और बाद में विभिन्न चरणों में बाबा साहेब के विधेयक को ही संसद से पारित करवाया।
आजकल दलितों पर अत्याचार निरोधक कानून को हल्का करने को लेकर जो देशव्यापी बहस छिड़ी हुई है और जनान्दोलन चल रहे हैं उन्हें देखते हुए जरूरी है कि इस कानून को संशोधित करने के लिए संसद की विशेष बैठक बुलाई जाये और इसमें आम सहमति बनाकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले को दुरुस्त किया जाए। इसी प्रकार कठुवा से लेकर उन्नाव तक अल्पवयस्क कन्याओं के साथ बलात्कार करने वाले लोगों को उचित सजा दिये जाने के प्रावधानों पर विचार किया जाए। इस काम में कोई अड़चन भी नहीं है क्योंकि राष्ट्रपति ने अभी तक बजट सत्र का सत्रावसान नहीं किया है और लोकसभा व राज्यसभा दोनों ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति और लोकतन्त्र के लिए समर्पण का भी यह परीक्षण होगा।