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‘नया’ भारत ‘पुराना’ भारत

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राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन पर संसद में हुई चर्चा ने आज भारतीय राजनीति के संसदीय पक्ष का एेसा स्वरूप देखा है जिसे प्रायः आम लोग चुनावी चौराहों पर होने वाले भाषणों में सुनते और देखते रहते हैं। संसद भारत के 125 करोड़ लोगों की प्रतिभा का आइना होती है जो बताती है कि 125 करोड़ लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि अपनी तर्क बुद्धि का इस्तेमाल करके किस तरह भारत के विकास को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इसमें राजनीति कहीं दूर पीछे छूट जाती है और दोनों ही सदनों में सिर्फ मजबूत और पुख्ता तथ्यों के आधार पर सत्ता और विपक्ष एक-दूसरे को घेरते हैं। संसद में यह वातावरण बनने की जगह यदि किसी चुनावी सभा का वातावरण बन जाता है तो हमें सोचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा कि हम उस लोकतन्त्र को लज्जित कर रहे हैं जिसने हमें इन महान सदनों में बैठने की इज्जत बख्शी है। बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है जब 1974 में इमरजेंसी लगने से लगभग एक-डेढ़ साल पहले स्वतन्त्र पार्टी के नेता स्व. पीलू मोदी ने ही पहली बार चान्दनी चौक के टाऊनहाल के सामने हुई सभा में यह मांग की थी कि ‘इन्दिरा गांधी हमें हमारी गरीबी वापस करें।’ उनके उस जुमले को इसी सभा में उपस्थित जनसंघ के तत्कालीन नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पकड़ लिया था और इसका व्यापक प्रचार सड़क से लेकर संसद तक किया था। इसकी वजह यह थी कि 1971 का लोकसभा चुनाव इन्दिरा जी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर जीता था।

अतः अगले चुनावों से पहले विपक्ष ने इसे ही मुद्दा बना कर पूछना शुरू कर दिया था कि कांग्रेस की इन्दिरा सरकार कितनी गरीबी हटाने में सफल हो सकी है। विपक्ष का उस समय तर्क था कि गरीबी हटने की जगह और ज्यादा बढ़ गई है इसलिए ‘हमारी गरीबी वापस करो।’ लोकतन्त्र में किसी भी पार्टी की सत्ता जब किसी विशेष मुद्दे को केन्द्र में रखकर लोगों की सहानुभूति और उनका मत लेकर बहुमत प्राप्त करती है तो उसके शासन के दौरान उन सभी विषयों पर विपक्ष को जवाबतलबी करने का स्वाभाविक अधिकार होता है। हालात ने आज कांग्रेस पार्टी को विपक्ष में बिठा दिया है और भाजपा को सत्ता पर आसीन कर दिया है मगर इससे लोकतन्त्र के मूल स्वभाव और चरित्र पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है, अतः विपक्षी पार्टी कांग्रेस को पूरा अधिकार है कि वह सरकार से पूछे कि उसके प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के वादे का क्या हुआ ? भ्रष्टाचार समाप्त करने और शासन में पारदर्शिता लाने का क्या हुआ ? कश्मीर समस्या और पाकिस्तान को सबक सिखाने के मुद्दे पर क्या हुआ? रक्षा सौदों में पूरी पारदर्शिता बरतने के प्रण का क्या हुआ? देशभर में सामाजिक समरसता बढ़ाने की गरज से सबका साथ–सबका विकास का क्या हुआ? विपक्ष यदि इन मुद्दों पर सरकार से सबूतों के साथ पुख्ता सबूत संसद के भीतर मांगता है तो सरकार को इनका जवाब देना ही पड़ेगा और इस तरह देना पड़ेगा कि विपक्ष के सभी तर्कों के तीर कुन्द हो जायें और वह बगले झांकने लगे। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह इसलिए नहीं होना चाहिए कि सत्ता में काबिज भाजपा अपने जनसंघ के जन्मकाल से यही भूमिका बहुत दमदारी के साथ निभाती आ रही है।

बोफोर्स तोप सौदे में घपले के नाम पर पूरी कांग्रेस पार्टी समेत उसके प्रधानमन्त्री रहे स्व. राजीव गांधी को विपक्षी दलों ने संसद से लेकर सड़क तक घेरा था। देश के लोगों के मन में संशय का वातावरण बना था। इस मामले का दिल्ली उच्च न्यायालय से 2003 में निपटारा हो जाने के बावजूद मौजूदा मोदी सरकार कांग्रेस को बख्शने के लिए जब आज भी तैयार नहीं है इसलिए विपक्ष यदि आज यह मांग कर रहा है कि हमें हमारा ‘2014 से पहले वाला भारत वापस दो’ तो वह सत्तारूढ़ दल को चुनौती दे रहा है कि वह अपने कार्यक्रमों का नहीं बल्कि उन नीतियों का खुलासा करे जिनके आधार पर वह लोगों को आश्वस्त कर सके कि वे एक ‘नये भारत’ की तरफ कूच कर रहे हैं मगर अफसोस कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा आरोप-प्रत्यारोपों में उलझ कर रह गई। यह स्थिति हमारे लोकतन्त्र के लिए सुखदायी तो नहीं कही जा सकती क्योंकि अपनी- अपनी पुरानी अवधारणाओं के दायरे में बन्ध कर हम कभी भी नूतन प्रकाश से जगमग नहीं हो सकते। अतः कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की बहुचर्चित व लोकप्रिय कविता की पंक्तियां मैं संसद को भेंट करता हूं-

कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो,
बिना समझे बिना बूझे खेलते जाना,
एक जिद को जकड़ कर ठेलते जाना
गलत है, बेसूद है,
कुछ रच के सो, कुछ गढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो।

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