कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली के एेतिहासिक रामलीला मैदान में जनआक्रोश रैली को सम्बाेधित करके सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को सीधी चुनौती दे दी है। भारत की धर्मनिरपेक्षता पर हर भारतवासी को गर्व रहा है। सदियों से यहां विभिन्न धर्मों के लोग सद्भाव से रहते आए हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी इस रैली में केन्द्र सरकार की विदेश नीति से लेकर घरेलू नीति तक को निशाने पर रख कर सिद्ध किया कि पिछले चार साल में भारत की विकास व प्रगति की रफ्तार प्रतिगामी हो चुकी है और आम जनता विशेष कर गरीब आदमी का विश्वास सरकार से डगमगाने लगा है।
राहुल गांधी का आरोप है कि नोटबन्दी और जीएसटी से भारत का आर्थिक ढांचा इस कदर चरमराया है कि पूरी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था चारों खाने चित्त होकर किसी चौराहे पर पानी की तलाश में खड़ी नजर आ रही है। लघु उद्योग चौपट हो चुके हैं और मजदूरों की मजदूरी दर सरे राह पनाह मांगती नजर आ रही है।
‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच की दूरी बढ़ चुकी है जबकि भ्रष्टाचार का बाजार पहले की ही तरह गरम नजर आ रहा है लेकिन सबसे खतरनाक काम भारत की सामाजिक एकता को तार–तार करने का हो रहा है जिसमें दलित समाज को सबसे ज्यादा पशेमां होना पड़ रहा है।
एक चपरासी की नौकरी के लिए हजारों पोस्ट ग्रेजुएट अभ्यर्थी पंक्ति में लगे हुए दिखाई पड़ रहे हैं और भाजपा के नवोदित नेता युवकों को सलाह दे रहे हैं कि वे पकोड़े बेचकर भी रोजगार कमा सकते हैं अथवा एक ‘गाय’ पाल कर दस साल में लखपति बन सकते हैं। सत्ता में शामिल लोग खुद बलात्कारियों की हिमायत करते नजर आ रहे हैं और हर आर्थिक व सामाजिक समस्या को हिन्दू–मुसलमान के चश्मे से देखने की नसीहतें गढ़ रहे हैं।
जिस शिक्षा के अधिकार को दस साल पहले लाजिमी किया गया था उसकी हालत यह हो गई है कि राज्य सरकारें अपने हिस्से का 25 प्रतिशत धन उन स्कूलों को नहीं दे रही हैं जिनमें गरीबों के बच्चों का दाखिला किया जाता है। गरीब के बच्चे से स्तरीय शिक्षा को दूर ही रखने के सारे उपाय किये जा रहे हैं। कांग्रेस का आरोप है कि स्कीमाें पर स्कीमें और योजनाओं पर योजनाएं गिनाई जा रही हैं मगर जमीन पर वही भुखमरी और लाचारी नजर आ रही है जिसके खिलाफ देश के लोगों ने 2014 में सारे कयास तोड़कर एक पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर सरकार बनायी थी।
समय की चुनौती को यदि राहुल गांधी स्वीकार करने में असफल रहते हैं तो यह उनकी एेतिहासिक असफलता होगी। भारत कभी भी किसी राजनैतिक दल का गुलाम नहीं रहा है। इसका प्रमाण भारत के पहले 1952 के आम चुनाव हैं जिनमें पं. जवाहर लाल नेहरू जैसी महान शख्सियत का मुकाबला करने के लिए चार सौ से ज्यादा राजनैतिक दलों का गठन हो गया था और उनमें से 70 से अधिक ने इन चुनावों में हिस्सा लिया था।
तब पं. नेहरू ने कहा था कि भारत में लोकतन्त्र उतना ही मजबूत होगा जितना परस्पर विरोधी विचारधाराएं देश के विकास और निर्माण के लिए विकल्प प्रस्तुत करेंगी लेकिन इनका आधार केवल अहिंसक रास्ता ही होना चाहिए। भारत इसलिए एक नहीं है कि इसमें एक ही मत या विचार अथवा धर्म के अनुयायी सत्ता के सूत्रधार रहे हैं बल्कि इसलिए एक है कि इसमें विभिन्न मत–मतान्तरों के लोगों ने आम राय से लोगों की समस्याओं के निवारण का प्रण लिया था।
इसका प्रमाण हमारा संविधान है जो सभी विचारों के लोगों की प्रतिबद्धता एक राष्ट्र के लिए सुनिश्चित करता है। जम्मू-कश्मीर में जिस प्रकार कठुआ की आठ वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार करने की घटना को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई उससे कई लोगों के चेहरों पर पड़े नकाब तार–तार हो गये।
इस आदमखोर प्रवृत्ति के उजागर होने से आज की नई पीढ़ी का भारत सोचने पर विवश हो रहा है कि हम विज्ञान के किस नये सौपान की तरफ बढ़ रहे हैं ? प्रश्न न भाजपा का है और न कांग्रेस का बल्कि भारत का है और भारत वह देश है जिसने गांधी की हत्या हो जाने पर कसम खाई थी कि हम इसे किसी भी सूरत में पाकिस्तान जैसे नामुराद मुल्क की राह पर नहीं जाने देंगे और अपनी जान देकर भी इसके सर्वधर्म सम्भाव या धर्म निरपेक्षता की रक्षा करेगा।
अतः हमें सर्वधर्म सम्भाव कायम रखना होगा और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करनी ही होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रविवार को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में रमजान और बुद्ध पूर्णिमा का उल्लेख करते हुए कहा कि यह अवसर लोगों को शान्ति, सम्भाव, समानता तथा भाईचारे के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देगा। उन्होंने देशवासियों को भगवान बुद्ध के दिखाए मार्ग पर चलने को कहा। प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध हैं।
प्रधानमंत्री का एजेंडा विकास है इसलिए देशवासियों का भरोसा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूरी तरह से कायम है। लोकतंत्र में मुद्दे उठते रहते हैं। देखना यह है कि उनका मतदाताओं पर क्या असर होगा। अन्तिम फैसला देश का मतदाता ही करेगा।