गोवा में हर साल की तरह होने वाला भारत का अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह शुरू होने से पहले ही विवादों में फंस गया है। फिल्मोत्सव के लिए ज्यूरी के चेयरमैन बनाए गए युवा फिल्मकार सुजाय घोष ने त्यागपत्र दे दिया क्योंकि ज्यूरी को अंधेरे में रखकर सरकार ने ‘एस दुर्गा’ और ‘न्यूड’ फिल्मों को इंडियन पैनोरमा खंड से हटा दिया। सुजाय घोष ने इसे ज्यूरी के काम और आजादी में सरकारी हस्तक्षेप माना। सुजाय घोष सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से काफी नाराज हैं। ज्यूरी के सदस्यों का कहना है कि मंत्रालय के फैसले पर उन्हें हैरानी हुई और उनके साथ परामर्श के बगैर उनके फैसले को बदला नहीं जा सकता। ज्यूरी के सदस्य ‘न्यूड’ फिल्म को अच्छी फिल्म बता रहे हैं। ‘न्यूड’ को नारीवाद पर आधारित एक सशक्त फिल्म बताया जा रहा है जबकि ‘एस दुर्गा’ को महिलाओं की सुरक्षा का संदेश देने वाली फिल्म बताया जा रहा है। सनल शशिधरन की मलयालम फिल्म ‘एस दुर्गा’ का मलयालम में नाम ‘सैक्सी दुर्गा’ है जबकि ‘न्यूड’ के निर्देशक रवि जाधव हैं। ज्यूरी ने फिल्मोत्सव की शुरूआत ‘न्यूड’ फिल्म से करने की सिफारिश की थी।
‘एस दुर्गा’ में यह दिखाया गया है कि एक पुरुष प्रधान समाज में जुनून कैसे तेजी से उत्पीड़न और शक्ति के दुरुपयोग की मानसिकता पैदा करता है वहीं ‘न्यूड’ एक महिला की कहानी है जो आजीविका चलाने के लिए चित्रकारों के लिए नग्न मॉडलिंग करती है। ‘एस दुर्गा’ तो कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को फिल्मों के नाम पर ऐतराज हो गया होगा। हालांकि फिल्म की कहानी किसी देवी से संबंधित नहीं है। भारत में समस्या यह है कि यहां पर राजनीतिक दल और सरकार यह तय करती है कि लोगों को कौन-सी फिल्म देखनी चाहिए आैर कौन-सी नहीं। लगातार फिल्मों को विवाद में फंसाया जाता है। कोई भी संगठन और राजनीतिक दल किसी भी समुदाय की भावनाएं आहत होने के कारण की आड़ में फिल्मों का विरोध शुरू कर देते हैं। जैसे संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती को लेकर हो रहा है। समस्या सिर्फ अधिकारियों की मानसिकता नहीं है। अब सवाल यह है कि फिल्म क्रिएटिव उत्पाद है और केवल गुणवत्ता के आधार पर ही फिल्मों के बारे में राय दी जा सकती है। सवाल यह भी है कि क्या फिल्मों पर नैतिकता का मानदंड लागू होना चाहिए? भारतीय दर्शकों ने कभी ‘बी’ या ‘डी’ ग्रेड की फूहड़, सैक्सी फिल्मों का समर्थन नहीं किया लेकिन दर्शकों का विशेष वर्ग इन फिल्मों को देखकर मनोरंजन करता है। अगर फिल्मों की विषय वस्तु गंभीर है और उन विषयों पर बहस की दरकार है तो उनका स्वागत होना चाहिए। ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ को भारत की सर्वाधिक सैक्सी फिल्म माना गया लेकिन इस फिल्म को दर्शकों आैर आलोचकों की वाहवाही मिली। यह फिल्म अलग-अलग फिल्मोत्सवों में दिखाई जा चुकी थी लेकिन भारत में रिलीज से पहले सर्टिफिकेशन बोर्ड और निर्माताओं के बीच रिलीज को लेकर काफी गहमागहमी रही थी।
जब फिल्म रिलीज हुई तो फिल्म के मिजाज ने इस्मत चुगताई की कहानियों की याद करा दी। फिल्म में समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे रूिढ़वादी व्यवहार की तरफ बड़ा कटाक्ष किया गया है जैसे कि महिलाएं काम न करे, वे सिर्फ बच्चे ही पालें, पर्दे में रहें। फिल्म के प्रत्येक किरदार ने दर्शकों काे अलग-अलग फ्लेवर परोसे। यह फिल्म कोई मसाला नहीं थी बल्कि समाज पर गंभीर सवाल खड़े करती थी लेकिन फिल्म को लेकर हौवा खड़ा कर दिया गया। पहलाज निहलानी ने तो फिल्मों को संस्कारी सांचे में फिट करने की कोशिश की। निहलानी ने कई फिल्मों पर कैंची चलाने की कोशिश की लेकिन बार-बार विवाद खड़ा किया। खैर निहलानी की तो छुट्टी हो चुकी। सवाल यह भी है कि क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय फिल्मों को संस्कारी बनाने का प्रयास कर रहा है? रूढ़िवादी देश बदल रहे हैं, कट्टरपंथी इस्लामी देशों में भी बदलाव की बयार देखी जा सकती है। ईरान में समलैंगिकता अपराध है लेकिन इस विषय पर वहां बी लाइक अदर्स आैर सर्कमस्टेंसेस जैसी ईरानी फिल्मों को कई अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में सराहा गया। भारत में तो किसी राजनेता का कार्टून बनाने पर ही कार्टूनिस्ट की गिरफ्तारी हो जाती है। फिल्म निर्माता-निर्देशकों का कहना है कि अगर सरकारें गुणवत्ता की बजाय नैतिकता के पैमाने पर फिल्मों को कसेंगी तो फिर देश में बेहतरीन सिनेमा की संभावनाएं कम हो जाएंगी। निर्माता-निर्देशक फिल्में सरकार के लिए नहीं बनाते, फिल्में दर्शकों के लिए होती हैं। क्या देखना है क्या नहीं देखना, इसका फैसला भी दर्शक करेंगे। फिल्म ज्यूरी में शामिल लोग प्रबुद्ध वर्ग के हैं। अगर सरकार को ही फैसला करना है तो फिर ज्यूरी ही क्यों गठित की गई थी।