पानी के बुलबुले सी एक लड़की थी
होठों पर मुस्कान लिए घर से निकली थी
कि पड़ी नजर शैतानों की
आैर डूब गई नाव इन्सानियत की
ओढ़ ली काली चादर आसमान ने
निर्वस्त्र कर दिया भारत मां को आज इस संसार ने
चीख गूंजती रही मासूम सी जान की
बन गई शिकार वो शैतानों के हवस की
कहर की अविरल धारा बहती रही
और वो ओस की बूंदों सी पिघलती रही
जिस्म गलता रहा आैर तड़पती रही वो
आखिर बन ही गई लाश वो।
अंजनी अग्रवाल की पंक्तियां दिल को झिंझोड़ के रख देने वाली हैं। उन्नाव, कठुआ, सूरत, एटा, अमृतसर और दिल्ली में युवतियों और बालिकाओं से बलात्कार की घटनाएं सोचने पर विवश कर रही हैं कि क्या भारत दरिंदों का देश बनने की ओर अग्रसर है। बलात्कार बालिकाओं का ही नहीं हुआ बल्कि देश का हो रहा है। देश की बच्चियां तो उसी दिन जल गई थीं जिस दिन दरिंदों ने उन्हें रौंदा था। देशभर के लोगों में महाआक्रोश है और यह महाआक्रोश सड़कों पर दिखाई भी दे रहा है। देशभर में लोग रात के समय कैंडिल मार्च निकाल रहे हैं यानी देश जाग रहा है लेकिन हैवान अंधे हो चुके हैं।
दिव्यांग बच्ची से बलात्कार कर सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड किया जा रहा है। लोग सोच रहे हैं कि कोई इन्सान कैसे इस हद तक जा सकता है। हर तरफ इस बात की चर्चा है कि आखिर समाज में बालिकाओं और महिलाओं की सुरक्षा कौन सुनिश्चित करेगा। लोगों में गुस्सा लगातार बढ़ रहा है लेकिन समाधान नजर नहीं आ रहा। मनोरोग विशेषज्ञ इस समस्या की जद में समाज को ही देखते हैं। यह सोचना भूल है कि इस तरह के गुनाह आैर उनकी बर्बरता अभी बढ़ गई है। इस तरह की घटनाएं पहले भी होती रही हैं लेकिन समाज के डर की वजह से हमेशा ही महिलाओं और बच्चियों की आवाज काे दबाया गया है। बलात्कार के लिए लड़कियों को ही जिम्मेदार बताने की आदत ने कभी पूरे सच को सामने आने ही नहीं दिया। परिवार में ही बच्चियों के साथ होने वाले बलात्कार को दबा दिया जाता है। लोगों को अब मीडिया से इस बर्बरता की जानकारी मिल रही है और इसने बहुतों को अपना दर्द बयां करने का मौका दिया है। कोई भी सामान्य इन्सान वह नहीं कर सकता जो उस हैवान ने बच्ची के साथ किया है। इस तरह के हैवानों को पहचानने के लिए अपने आस-पास थोड़ा ध्यान देना और सतर्क रहना बहुत जरूरी है। लोग घटना होने के बाद ही जागते हैं और समस्या का हल निकालने में जुट जाते हैं। यह लंबी प्रक्रिया है और समाज को इसमें पूरी भागीदारी करनी होगी। उनका कहना है कि जब तक हम समाज के तौर पर एक-दूसरे के बारे में नहीं सोचेंगे, इस तरह की घटनाओं पर काबू करना बहुत मुश्किल है।
जिस तरह का इन्सान एक बच्ची के साथ इतनी बर्बरता से पेश आता है वह किसी भी हाल में समाज में खुला घूमने लायक नहीं है। इस तरह के लोगों का समाज में रहना आैर घटनाओं को बुलावा देने के जैसा है। समाज में बिखराव इस तरह की घटनाओं के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। बच्चों को सॉफ्ट टारगेट समझा जाता है इसलिए उनको भी मेंटली टफ बनाने की जरूरत है और इसके लिए पहली भूमिका घर में मां-बाप की होती है। हालांकि वह कहते हैं कि इस तरह की घटनाएं पैरेंटिंग की नहीं बल्कि समाज की समस्या है और उसे ही इसका हल निकालना है। यह समझना भी जरूरी है कि समाज हमसे शुरू होता है।
एक तरफ समाज अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पा रहा तो दूसरी तरफ ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं कि बलात्कार की शिकार बेटी का बयान बदलवाने के लिए बाप ने बलात्कारी से ही लाखों का सौदा कर लिया। दूसरी तरफ लोकतंत्र के प्रतिष्ठान भी ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कुछ खास नहीं कर रहे। सियासत, सत्ता और सिस्टम सड़ांध मार रहा है। एक बाहुबली विधायक द्वारा दुष्कर्म की शिकार पीड़ित किशोरी और लगभग सालभर से सिस्टम में नक्कारखाने में नकारी जाती रही उसकी आवाज आैर अंत में न्यायपालिका के दखल पर विधायक आैर उसके भाई और अन्य की गिरफ्तारी हुई। कठुआ गैंगरेप में सत्तारूढ़ पार्टी के ही नेता आरोपियों के समर्थन में प्रदर्शन करते दिखे।
इस तरह की पटकथा कोई पहली बार सामने नहीं आई है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमरमणि त्रिपाठी, गायत्री प्रसाद प्रजापति, पुरुषोत्तम द्विवेदी, आनन्द सेन यादव पहले ही कुख्यात हो चुके हैं। अब बालिकाओं से बलात्कार पर दोषी को फांसी की सजा का प्रावधान वाला कानून बनाने की बात हो रही है। मध्य प्रदेश और कुछ राज्य ऐसा कानून पहले ही बना चुके हैं। सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या कानून बनाकर ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है? उत्तर प्रदेश में पुलिस ने कानून की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई हैं, वह सबके सामने है। क्या कानून से पुलिस का व्यवहार बदला जा सकता है? बलात्कार पीड़िता के पिता की हत्या कर दी जाती है, फिर हम उस पुलिस को न्यायमित्र कैसे मान सकते हैं?
भारत की त्रासदी यह है कि अपराधियों को बचाने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप किया जाता है और सत्ता बड़ी निष्ठुर होती है। पहले बचाती है, काम हो गया तो ठीक नहीं तो वह अपराधियों को कुचल भी देती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्नाव केस में तभी कार्रवाई की जब जन दबाव बढ़ा। देश में स्थिति काफी खतरनाक हो चुकी है, बेटियां जरा सी आहट से ही घबराने लगी हैं। सभ्यता, मूल्य और मर्यादाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। बलात्कार की शिकार खुद ही होती है असली साक्षी, उससे बढ़कर कोई साक्ष्य नहीं होता, उसकी मौत के साथ ही मर जाता है हर पीड़िता का साक्ष्य, फिर भी सिस्टम कुछ नहीं सीखता, समाज चीखता है, मशालें उठाता है लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा है।