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दिल्ली में कानून की तलाश!

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सरकार मसलों को करती दरकिनार,
वायदों का बनाती कुतुब मीनार,
ताकि जनता ऊपर चढ़े,
और धड़ाम से नीचे गिरकर खुदकुशी कर ले।
दिल्लीवासियों के लिए ठीक ऐसी ही स्थिति है। दिल्ली में सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर सीलिंग का कहर तो जारी है और इसी बीच सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश से हाहाकार मच गया है।

देश की शीर्ष अदालत ने अब राजधानी की 1797 अनधिकृत कालोनियों में अवैध निर्माण पर रोक लगा दी है और साथ ही सड़कों, गलियों आैर फुटपाथ से अवैध कब्जे हटाने का निर्देश भी दिया। सुनवाई के दौरान जस्टिस मदन लोकुट और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने मास्टर प्लान में सम्भावित बदलाव पर लगाई गई रोक हटाने से इन्कार कर दिया है।

पीठ ने तल्ख टिप्पणी की कि दिल्ली में कानून का राज खत्म हो गया है और कोई भी इलाका ऐसा नहीं जहां कानून का पालन हो रहा है। इस टिप्पणी की सीधे-सीधे व्याख्या की जाए तो यही है कि ​दिल्ली में जंगलराज है और भेडि़ये, चालाक लोमड़ियां और अन्य वहशी जानवर लोगों का खून पी रहे हैं। दिल्ली अब रहने के काबिल नहीं रही। आखिर ऐसी बदहाल स्थिति कैसे आ गई? दिल्ली के लिए मास्टर प्लान 1962 में बना था,

जिस पर सही तरीके से अमल ही नहीं हो पाया। बड़े राजनीतिज्ञों और स्थानीय निकायों के भ्रष्ट अफसरों आैर भूमाफिया ने ​मिलकर गजब ढहाया। सरकारी भूमि पर अवैध कालोनियां काट दीं। कुकुरमुत्तों की तरह कालोनियां उगती गईं, भ्रष्ट तंत्र ने अरबों रुपए का खेल खेला। हर वर्ष रोजी-रोटी की तलाश में लोग दिल्ली आते गए आैर यहीं बसते गए। प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपने शासनकाल में अवैध कालोनियों को नियमित करने का ऐलान किया।

लक्ष्य सिर्फ इतना था​ कि दिल्लीवासियों को कानून और नियमों की जद में रहने के लिए छत मिल सके। हजारों लोग लाभान्वित भी हुए लेकिन अनधिकृत कालोनियां बसाने की बाढ़ आ गई, ​जहां जिसका दिल चाहा वह वहीं बस गया। दिल्ली बेतरतीब ढंग से बसती गई। राजधानी के हरे-भरे खेत प्लाॅट हो गए, फिर प्लॉट मकान हो गए और फिर मकान दुकान हो गए। अवैध निर्माण और अवैध व्यावसायिक गतिविधियों के चलते दिल्ली अब महासंकट में पहुंच गई। डीडीए यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण लोगों को मांग के अनुरूप घर बनाकर देने में विफल होता गया।

डीडीए, दिल्ली नगर निगम के अधिकारी खामोश रहे। आज की स्थिति के लिए वोट बैंक की सियासत भी कोई कम जिम्मेदार नहीं। सवाल कांग्रेस और भाजपा या अन्य किसी दल का नहीं बल्कि सवाल वोट बैंक का रहा। अनधिकृत कालोनियों में रहने वाले 6 लाख परिवारों काे उम्मीद रहती थी कि सरकार जन दबाव में उनकी कालोनियां नियमित कर देगी। भूमाफिया को राजनीतिक संरक्षण मिलता गया। न पानी, न बिजली लेकिन मकान बनते गए।

हर बार चुनावों से पहले कालोनियां नियमित करने की घोषणा की गई। 1981 में एक और मास्टर प्लान लाया गया जिस पर 9 वर्ष बाद मुहर लगी लेकिन किया कुछ नहीं गया। 2006 में अदालती निर्देशों पर सीलिंग की कार्रवाई से हाहाकार मचा। उसके बाद एक और मास्टर प्लान विशेष प्रावधान कानून 2008 लाया गया और हजारों अवैध निर्माणों को वैध बनाने का पग उठाया गया। शीला दीक्षित सरकार ने चुनावों के वक्त एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित कर कांग्रेस अध्यक्ष रहीं श्रीमती सोनिया गांधी के हाथों अवैध कालोनियों को नियमित करने के लिए अस्थायी प्रमाणपत्र भी बंटवाए।

मकसद सिर्फ वोट हासिल करना था। अनधिकृत कालोनियों के जमा कराए गए नक्शों और अन्य दस्तावेजों में भी काफी घालमेल हुआ। कुछ कालोनियों की तो फाइलें ही लापता हो गईं, कुछ नई जुड़ गईं। आज दिल्ली की जनता प्रदूषण, पार्किंग और हरित क्षेत्रों की समस्या से जूझ रही है। दिल्ली में रहने वाले बच्चों के फेफड़े खराब हो रहे हैं। दिल्ली में बढ़ती भीड़भाड़ तथा गली-गली में खुली दुकानों और अवैध व्यावसायिक गतिविधियों के चलते सड़कें संकरी होती गईं। अब हालात यह हैं कि जीवन दूभर हो चुका है।

सुप्रीम कोर्ट का सवाल जायज है कि अनधिकृत कालोनियों में बिल्डिंग बायलॉज का उल्लंघन कर सात-सात मंजिला मकान कैसे बन रहे हैं। अनधिकृत कालोनियों की बात तो एक तरफ अधिकृत कालोनियों में भी नियमों का खुला उल्लंघन कर बहुमंजिली इमारतों का अवैध निर्माण जारी है। अफसरशाही और नेता लूट रहे हैं। कौन नहीं जानता कि एक लैंटर डालने के लिए घूस की दर कहां तक पहुंच गई है।

भ्रष्टाचार का स्तर पहले से कहीं अधिक ऊपर हो चुका है। पहले सब कुछ बनने दिया जाता है, फिर सीलिंग और तोड़फोड़ शुरू हो जाती है। मकान, दुकानें आैर अवैध व्यावसायिक प्रतिष्ठान कोई एक दिन में तो बनते नहीं। अब बढ़ती आबादी के कारण महानगर का बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। सवाल यह है कि अब इन समस्याओं का समाधान क्या हो?

अवैध निर्माण को रोकने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई गई और न ही व्यावसायिक और आवासीय भूमि उपलब्ध कराई गई। संसद में दिल्ली स्पेशल प्रोविजन सैकेंड एक्ट 2011 बनाया गया। इस कानून ने फरवरी 2007 तक निर्मित सम्पत्तियाें को सीलिंग और तोड़फोड़ से कुछ वर्षों के लिए बचा लिया। इस अस्थायी कानून की अवधि को केन्द्र सरकार ने बढ़ा दिया जिसमें जून 2014 तक हुए अवैध निर्माण को तोड़ा नहीं जाएगा। दिल्ली कैसे रहने लायक बनेगी, कुछ समझ में नहीं आता? दिल्ली में कानून की तलाश कीजिए, फिर समाधान सोचिए।

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