जाने-माने अभिनेता शशि कपूर के इस भौतिक संसार को अलविदा कहने से एक लाजवाब अभिनय प्रतिभा का युग बीत गया। उनका अवसान रंगमंच जगत को एक आघात है। ‘एक रास्ता है जिन्दगी, जो थम गए तो कुछ नहीं। शशि कपूर हिन्दी सिनेमा के सर्वाधिक संवेदनशील और धैर्यवान व्यक्तित्व रहे। अगर उनके जीवनवृत्त पर नजर डाली जाए तो पृथ्वीराज कपूर परिवार में सर्वाधिक संघर्ष शशि कपूर के हिस्से में आया। इसमें कोई दो राय नहीं कि वह एक प्रतिभा सम्पन्न कलाकार थे लेकिन लम्बे समय तक उन्हें सफलता नहीं मिली। जब सफलता मिली तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद एक हिट फिल्मों के चलते उन्होंने 100 से अधिक फिल्में साइन कर लीं। एक दौर ऐसा भी आया जब वह एक मशीन बन गए और दो-दो घंटे की शिफ्ट में काम करने लगे। शशि कपूर यह बात स्वीकार करते थे कि फिल्में किसी कलाकार को मानसिक संतुष्टि नहीं दे सकतीं। इनसे सिर्फ पैसा कमाया जा सकता है। इसी कारण वह भीड़ में खोकर भी अलग बने रहे। उनकी अलग पहचान का कारण यह भी था कि उन्होंने कभी निर्माताओं को परेशान नहीं किया। वह समकालीन अभिनेताओं के साथ किसी दौड़ में नहीं पड़े। कहीं भी किसी से अहं का टकराव नहीं किया।
शशि कपूर के समय में कई स्टार ऐसे रहे जिन्होंने अपनी भूमिकाओं को महत्वपूर्ण बनाने के लिए दबाव का इस्तेमाल किया लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। यही कारण रहा कि अपने चेहरे पर मुस्कान लिए वह आगे बढऩे लगे और मल्टी स्टारर फिल्मों की अहम जरूरत बन गए। उन्होंने बहुत कम उम्र में फिल्मों में बतौर बाल कलाकार काम करना शुरू कर दिया था। 1954 तक उन्होंने 19 फिल्में कर डाली थीं लेकिन सफलता हाथ ही नहीं लगी। ज्यादातर तो राज कपूर के किरदार के बचपन वाली भूमिका में दिखते रहे। पिता पृथ्वीराज कपूर शशि कपूर के कैरियर को लेकर बहुत चिन्तित थे। उनकी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ की तारीफ तो बहुत हुई थी लेकिन फिल्म डूब गई थी। कहते हैं पृथ्वीराज कपूर अपने बेटे के लिए पंडित जानकी वल्लभ शास्त्री के पास गए तो पंडित जी ने सलाह दी कि वे गाय पाल लें, उनके बेटे की किस्मत खुल जाएगी। सवाल आया कि मुम्बई में गाय कहां पालें। तब उन्होंने पंडित जानकी वल्लभ शास्त्री को एक गाय दे दी। कुछ दिन बाद शशि कपूर की फिल्म रिलीज हुई ‘जब-जब फूल खिले।’ फिल्म हिट रही और शशि कपूर की गाड़ी चल निकली।
पृथ्वीराज कपूर उम्रभर उस गाय का खर्चा भिजवाते रहे। हर बड़े व्यक्तित्व के साथ कुछ ऐसी दास्तानें जुड़ी होती हैं। देखते ही देखते वह रोमांटिक हीरो बन गए। कपूर खानदान के सबसे हैंडसम शशि कपूर को कभी सुपर स्टार का खिताब भले ही नहीं मिला हो लेकिन वह ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अपने अभिनय में इतनी ज्यादा रेंज दिखाई हो। वह उन अभिनेताओं में से थे जिन्होंने पैरलल और कमर्शियल दोनों तरह की फिल्मों में काम किया। एक तरफ नमक हलाल, दीवार, सुहाग, त्रिशूल, शान जैसी कमर्शियल हिट फिल्मों का हिस्सा रहे वहीं विजेता, 36 चौरंगी लेन, उत्सव, जुनून, कलयुग जैसी फिल्में भी बनाईं। 1978 में आई फिल्म जुनून शशि कपूर की मास्टरी का मूर्तिमंत उदाहरण रही। रस्किन बांड की लम्बी कहानी ‘फ्लाइट ऑफ पिजन्स’ पर बनी यह फिल्म सिनेमा के ब्रिलियंस के हिसाब से अपने वक्त से कहीं आगे की चीज थी। प्यार, जुनून और अंधे राष्ट्रवाद की डिस्टर्विंग गाथा थी यह फिल्म।
शशि कपूर की मास्टरपीस फिल्म जंग की निरर्थकता को रेखांकित करते हुए प्रेम की प्रासंगिकता को स्ट्रांग स्टेटमेंट देती है। क्या शशि कपूर की फिल्म कलयुग को भुलाया जा सकता है? निर्देशक श्याम बेनेगल के साथ यह उनकी दूसरी फिल्म थी। इस फिल्म में राजनीतिक परिवारों की जगह उद्योगपतियों का खानदान था और शशि कपूर ने उसमें कर्ण की भूमिका निभाई थी। एक दृश्य में तो उन्होंने गजब ढहा दिया था। वह दृश्य मुझे आज भी याद है जब कर्ण को अपने जन्म से जुड़ी सच्चाई पता चलती है तो वह अपने जूतों समेत बैड पर ढेर हो जाता है। अपने घुटनों को सीने में दबाए शायद उस दर्द को दबा देना चाहता है जो उसके भीतर से फूट रहा है। बिना कुछ बोले सिनेमा हाल में बैठे दर्शकों तक भावनाएं पहुंचाने की क्षमता किसी-किसी कलाकार में ही होती है। फिल्म उद्योग में भी विसंगतियां हैं। वर्तमान की पीढ़ी शायद उन्हें लोकप्रिय संवाद ‘मेरे पास मां है… के लिए जानती है, ऐसा उनसे अन्याय होगा। उनके संघर्ष को नजरंदाज करना होगा। क्या एक ईमानदार पत्रकार की सिस्टम के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई पर आधारित फिल्म ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ को नहीं भुलाया जा सकता है।
शशि कपूर को पृथ्वी थियेटर से हमेशा प्यार रहा। यह पृथ्वीराज कपूर का सपना था। 1942 में उन्होंने कलाकारों के साथ पृथ्वी थियेटर की शुरूआत की थी। उन्होंने मुम्बई में एक प्लॉट भी ले लिया था लेकिन 1972 में उनकी मौत के बाद शशि कपूर ने 1978 में इसी जमीन पर पृथ्वी थियेटर शुरू किया। इस संस्थान ने भारतीय रंगमंच को काफी समृद्ध बनाया। शशि कपूर और उनकी पत्नी जेनिफर की इस पहल ने कई प्रतिभाशाली कलाकार दिए। आज भी यह थियेटर कलाकारों के लिए आस्था का केन्द्र बना हुआ है। शशि कपूर ने ब्रिटिश और अमेरिकी फिल्मों में भी काम किया। काफी दौलत भी कमाई, उन्होंने कभी शोहरत और पैसे पर घमंड नहीं किया। उनकी बेटी संजना कपूर पृथ्वी ट्रस्ट के द्वारा गरीब, बेसहारा रोगियों की सेवा भी करती है। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में वह एक ऐसे अभिनेता रहे जिन्होंने हर प्रकार की चुनौतीपूर्ण भूमिका को न केवल स्वीकार किया बल्कि हर भूमिका को अपने स्वाभाविक अभिनय से, निष्ठा से विकसित भी किया। कभी पाई-पाई को तरसे तो कभी दौलत का ढेर देखा। ऑफ बीट सिनेमा में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, पद्म भूषण और प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भी। उनकी फिल्म मुहाफिज में शशि कपूर द्वारा बोला गया ‘फैज का शेर’ आज भी कानों में गूंजता है-
”जो रुके तो कोह-ए-गिरा थे हम, जो चले तो जां से गुजर गए
रहे-यार हमने कदम-कदम, तुझे यादगार बना दिया।”
शशि कपूर भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अलबेले अभिनेता की यादें हमारे साथ रहेंगी।