देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन चलाने के लिए जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है। चुना हुआ प्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह होता है। संविधान में नौकरशाह की भूमिका पूरी तरह स्पष्ट है। उसे नियम और कानून के मुताबिक आदेशों का क्रियान्वयन करना होता है। नौकरशाह सरकार तो नहीं होते लेकिन अनेक मौकों पर देखा जाता है कि वे ही सरकार हो गए हैं। मौजूदा समय में सरकारों का कामकाज काफी बढ़ चुका है, उन्हें अपने कार्यों को बड़े पैमाने पर कराना पड़ता है क्योंकि वह सभी कार्य प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकतीं। यही कारण है कि आम लोगों और मंत्रियों के बीच एक ‘शक्ति’ स्थापित हो चुकी है, वह है मध्यस्थ की शक्ति यानी नौकरशाह। सरकार का कोई भी आदेश मंत्री की प्रशासनिक मंजूरी के बिना जारी नहीं हो सकता।
सरकार संचालन के लिए नियम तय होते हैं। मंत्री और नौकरशाह नियमों से बंधे होते हैं। देश में नौकरशाहों में विभागीय मंत्री के आदेशों एवं निर्देशों की अवहेलना करने की प्रवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है। लोगों में ऐसी धारणा बन चुकी है कि नौकरशाह कामकाज में अड़ंगा लगाने के लिए ही होते हैं और ऐसा होता भी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजवरीवाल को भी इस बात की पीड़ा है कि 90 फीसदी आईएएस अधिकारी काम नहीं करते। केजरीवाल ने अपनी इस पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘‘कभी-कभी उन्हें ऐसा लगता है कि विकास सचिवालय में ठहर गया है, आईएएस अधिकारी विकास कार्यों से संबंधित फाइलें अपने पास रखे रहते हैं।’’ उन्होंने कुछ ऐसे फैसले गिनाए जिन पर आईएएस अधिकारियों ने आपत्ति जताई।
नौकरशाहों की कार्यशैली पर किसी राजनेता की टिप्पणी नई नहीं है, अधिकांश राजनीतिज्ञ उन पर टिप्पणियां करते आए हैं। केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने वर्ष 2017 शुरू होते ही रायपुर के एक कार्यक्रम में कहा था कि जल बोर्ड के कार्यालय के लिए बहुत दिनों से जमीन पड़ी थी और पैसा लैप्स हो रहा था, अब चक्कर क्या होता है ब्यूरोक्रेट्स के साथ िक वह बेचारे पिंजरे में बंद चिड़िया होते हैं और उससे बाहर निकलते ही नहीं। उनसे कोई चीज कैंसिल तो करवाई जा सकती है, लेकिन पहल नहीं करवाई जा सकती, क्योंकि रद्द करवाना बहुत आसान होता है, पाबंदी आसान होती है किन्तु सृजन बहुत कठिन होता है। दरअसल नौकरशाह वह सधा हुआ घोड़ा है जो अपनी पीठ पर बैठे सवार की ताकत महज एक दिन में पहचान लेता है और फिर सवार जरा भी कमजोर लगा तो फिर यह मनमाने तरीके से दौड़ने लगता है। नौकरशाह हवा सूंघकर ही भनक लगा लेते हैं, सत्ता में बदलाव की दस्तक से वह अंजान कैसे रह सकते हैं। पिछले तीन दशकों में नौकरशाहों के राजनेताओं की संगत में सत्ता की राजनीति में इर्द-गिर्द बैठने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
नौकरशाही पूरी तरह से सियासत के रंग में रंगी हुई है। लगभग हर पार्टी के चहेते नौकरशाहों को आसानी से पहचाना जा सकता है। सत्ता के साथ वफादारी या फिर नई सत्ता का चहेता होना मलाईदार पद की गारंटी होती है। प्रायः देखा जाता है कि सरकारें बदलते ही कई अफसर केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने का जुगाड़ बनाने लगते हैं और नई सरकार भी नियमित तौर पर पिछली सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अफसरों को महत्वहीन पदों पर भेजने में जरा भी देर नहीं लगाती, इसके ठीक उलट मनचाही सरकार के आने पर ये अफसर अपनी प्रतिनियुक्ति छोड़कर वापिस आ जाते हैं। बुद्धि में कुशाग्र इतने कि सेवानिवृत्त होने से पहले ही अपनी जगह चुन लेते हैं और सरकारें उन्हें अच्छे पदों पर नियुक्त भी कर देती हैं। सेवाकाल के दौरान मंत्रालय हो या कोई विभाग, उसकी बागडोर अपने हाथ में रखते हैं और मंत्री जी जेब में। नौकरशाह अब राजनीति में हैं।
हुक्मदेव नारायण यादव ने संसद में कहा था कि ‘‘मंत्री खड़े रहते हैं, अफसर को बचाते हैं, हम तो अफसर के गुलाम हैं, अफसर खाता है , पचाता है। नौकरशाह लूटता है देश को, गरीबों का खून पीता है नौकरशाह, वह ब्लैक मार्किटिंग कराता है, गोदामों में गेहूं सड़वाता है। उनकी कही बातें सही हैं, नौकरशाह और सत्ता का गठजोड़ बहुत खतरनाक होता है। कितने ही नौकरशाहों पर छापों के दौरान करोड़ों की नकदी, करोड़ों का सोना, अरबों की बेनामी सम्पत्ति बरामद हुई है। इतनी सम्पत्ति सत्ता के भ्रष्ट गठजोड़ से ही संभव है। ऐसा नहीं है कि हर नौकरशाह भ्रष्ट है लेकिन ईमानदारों की संख्या बहुत कम है। जो भ्रष्टाचार नहीं करते उन्हें बार-बार तबादलों का शिकार होना पड़ता है। कई बार सियासी जमातों पर लगाम लगाती नौकरशाही को देखकर जनता बहुत खुश होती है लेकिन इसके पीछे भी बहुत से कारण होते हैं। अत्यंत समृद्ध जीवनशैली में जीते हैं, नेता आते-जाते रहते हैं, पर सत्ता तो नौकरशाह ही चलाते हैं। स्वस्थ लोकतंत्र में नौकरशाहों पर लगाम कसना जरूरी है, ताकि विकास की गति फाइलों में न अटके।