स्वतन्त्र भारत में पहले राष्ट्रपति चुनाव की गूंज तब सुनाई पड़ी थी जब 1967 में प्रमुख विपक्षी दलों ने कांग्रेस के प्रत्याशी स्व. डा. जाकिर हुसैन के मुकाबले सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश स्व. कोका सुब्बाराव को मैदान में उतारा था। तब देश के नौ राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी थी और लोकसभा में भी उसे केवल 20 के लगभग सांसदों का बहुमत प्राप्त था। आज ठीक यही हालत भारतीय जनता पार्टी की है। केन्द्र में उसकी सरकार है। लोकसभा में उसका बहुमत भी 20 सांसदों का है और लगभग नौ राज्यों में ही उसकी सरकार नहीं है मगर 1967 में केवल 21 पूर्ण राज्य थे जबकि आज 29 राज्य हैं। उन चुनावों में डा. जाकिर हुसैन की बहुत आसानी से जीत हो गई थी। इसके बाद सर्वाधिक चर्चित राष्ट्रपति चुनाव दो वर्ष बाद ही 1969 में डा. जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद हुआ जिसमें ‘अन्तरात्मा की आवाज’ सिर चढ़कर बोली और तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी ने अपनी ही पार्टी के सांसदों और विधायकों से अपनी पार्टी के घोषित प्रत्याशी स्व. नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ ही स्वतन्त्र उम्मीदवार स्व. वी.वी. गिरि को वोट डालने की अपील की। श्री गिरि विजयी रहे मगर इसके बाद कांग्रेस पार्टी विभाजित हो गई। मुकाबला बहुत कड़ा रहा।
इसकी एक वजह यह भी थी कि तब दक्षिणपंथी कहे जाने वाले दलों जनसंघ व स्वतन्त्र पार्टी ने अपना पृथक प्रत्याशी स्व. सी.डी. देशमुख को बनाया था। उसके बाद सर्वाधिक चर्चित राष्ट्रपति चुनाव पिछली बार 2012 का रहा जिसमें वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी सत्तारूढ़ यूपीए के प्रत्याशी थे मगर इसके चर्चित रहने की वजह बिल्कुल अलग थी। यूपीए की धनुर्धर पार्टी कांग्रेस प्रत्याशी चयन को आखिरी वक्त तक रहस्य के पर्दे में रखना चाहती थी।
इसका कारण उनकी राजनीतिक कुशाग्रता और विद्वता व विभिन्न दलों के बीच लोकप्रियता थी। कांग्रेस के सहयोगी दलों ने साफ कर दिया था कि वे उसकी पसन्द के उम्मीदवार को ही अपना समर्थन देंगे मगर कांग्रेस पार्टी एक की जगह दो प्रत्याशियों के नामों को लेकर बैठ गई थी। हद तो यह थी कि कांग्रेस इन नामों को अपने सहयोगी दलों तक को बताने को तैयार नहीं थी मगर श्री मुखर्जी के नाम पर ही यूपीए के सभी दलों के बीच सहमति बनी तो उन्होंने वित्तमन्त्री पद से इस्तीफा देने के बाद अपना नामांकन भरने के उपरान्त सभी राज्यों के विधायकों से सम्पर्क करने का मन बनाया और सर्वसम्मति बनाने का प्रयास भी किया मगर विपक्ष में बैठी भाजपा के रुख की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पाया। तब विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने साफ घोषणा की कि निर्विरोध चुनाव नहीं होने दिया जायेगा। विपक्ष अपना प्रत्याशी खड़ा करेगा जो स्व. पी.ए. संगमा थे।
चुनावों में उनकी पराजय निश्चित थी मगर वह तब भी चुनाव लड़े और हारे लेकिन श्री मुखर्जी की उम्मीदवारी ने तब विपक्षी एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया और एनडीए के घटक दलों जनता दल (यू) व शिवसेना ने घोषणा की कि वे श्री मुखर्जी का समर्थन करेंगे। आज विपक्ष में बैठे यूपीए की ठीक यही हालत एनडीए के प्रत्याशी रामनाथ कोविन्द ने बना दी थी। उनकी सादगी और कर्मठता की बेदाग छवि ने विपक्षी गठबन्धन में सीधे दरार पैदा कर दी है। निश्चित रूप से वह प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की पसन्द हैं। इसकी वजह उनका केवल एक गरीब दलित होना ही नहीं है बल्कि विपक्ष द्वारा सुझाये गये योग्यता के पैमाने को पूरा करना भी है। वह पेश्वर वकील रहे हैं। राज्यसभा के दो बार सदस्य रहे हैं। वर्तमान में बिहार के राज्यपाल हैं। इसके बावजूद राजनीतिक उठा-पटक से स्वयं को दूर रखने में सफल रहे हैं। उन्हें संसदीय परंपराओं का ज्ञान है, संविधान की जानकारी है और प्रशासनिक अनुभव भी है।
बेशक भारत का लोकतन्त्र शोर-शराबे का लोकतन्त्र है मगर इसी में शान्त रहकर भी कुछ लोग इसके विभिन्न पहलुओं का अनुभव करते रहते हैं। वह उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के निवासी हैं। अत: विपक्ष समाजवादी पार्टी को उनका विरोध करना महंगा पड़ सकता है। वह दलित हैं तो खुद को दलितों की खैरख्वाह बताने वाली बसपा की मायावती उनका विरोध करके दलितों में अपने विरोध को दावत देने की जुर्रत नहीं कर सकती। वह बिहार के राज्यपाल के रूप में तीन साल पूरी शान्ति व गरिमा के साथ काट गये कि जनता दल (यू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार भी उनके प्रशंसक हो गये। अत: इन तीनों विपक्षी दलों के पहले ही हाथ बन्ध गये। जाहिर तौर पर यह राजनीतिक नजरिया है मगर राष्ट्रपति चुनाव भी दलीय राजनीति पर ही टिका हुआ है हालांकि इसमें हर पार्टी के सांसद या विधायक को अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी प्रत्याशी को वोट देने का अधिकार है क्योंकि दल-बदल विरोधी कानून इन चुनावों में लागू नहीं होता। इसे देखते हुए यह उम्मीद लगाना गलत नहीं होगा कि 17 जुलाई को यदि चुनाव होते हैं तो उनके वोट दलगत आंकड़ों से भी ऊपर जा सकते हैं मगर इससे पहले यह देखना होगा कि कांग्रेस-कम्युनिस्ट व ममता बनर्जी क्या रणनीति बनाते हैं और विपक्ष का उम्मीदवार किसे घोषित करते हैं। फिर भी यह तो लगभग तय है कि श्री कोविन्द ही अगले राष्ट्रपति बनेंगे मगर कितना ऊंचा मयार होगा भारत के लोकतन्त्र का कि इसका प्रधानमन्त्री एक चाय बेचने वाला और राष्ट्रपति दीन-हीन हालत में पला-बढ़ा एक दलित। ऐसे लोकतन्त्र का कौन सदका उतारना नहीं चाहेगा।