एक लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसी तरह विरोध भी किया जाना चाहिए, यह लोकतंत्र की एक सफल पहचान है, परंतु हमारा मानना है कि सब कुछ सीमा के दायरे में ही होना चाहिए। विरोध का मतलब यह तो नहीं कि आप हिंसा के मार्ग पर चलें। पिछले दिनों बॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म पद्मावती (अब पद्मावत) की मेकिंग से लेकर रिलीज तक जो कुछ हुआ वह हमारे लोकतंत्र में विरोध करने की हदें पार करने की दास्तान बन गई है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि फिल्म रिलीज होनी चाहिए। हमारे देश में लोकतंत्र में आज विरोध का मतलब करणी सेना और राजपूत संगठनों ने हिंसा के रूप में ले लिया है। विरोध जरूर किया जाना चाहिए, लेकिन उसका भी एक मर्यादित तरीका है। वक्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाने वाले मंत्रियों, नेताओं या करणी सेना या अन्य राजपूत संगठनों के सूरमाओं के खिलाफ एक्शन लिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है और देश में अनेक गतिविधियां चल रही हैं परंतु उन सबसे सबका ध्यान हटकर एक अकेली फिल्म पद्मावत पर केंद्रित होकर रह गया है। किसी ने ठीक ही कहा है जो कहीं नहीं होता वह भारत में होता है। स्कूली बच्चों के घर से लौटते समय उनकी बस पर हमला कर दिया जाता है, हाइवे जाम कर दिया जाता है, पुलिस पर पथराव किया जाता है, माल और दुकानें फूंक दी जाती हैं, जीवन ठहर जाता है, इन सबको मिलाकर यही कहा जाता है दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया (यह सब भारत में ही होता है।)
देश का सीजेआई अगर संवैधानिक रूप से मास्टर ऑफ रोस्टर के तहत केस किस पीठ को सौंपा जाए, यह व्यवस्था करता है तो देश में तूफान खड़ा हो जाता है, परंतु सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां सरेआम करणी सेना और राजपूत संगठन के कार्यकर्ता उड़ा रहे हैं, लेकिन कुछ नहीं होता। शायद मुझे यही कहना चाहिए- दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया। यहां तक कि हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे पद्मावत देखने थिएटर न जाएं जबकि फिल्म रिलीज की व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट ने की है। क्या यह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना नहीं है? एक आम आदमी मामूली सी कोर्ट में जज साहब के सामने बिना इजाजत बोल दे तो इसे अवमानना का नाम दे दिया जाता है, लेकिन यहां सरेआम चैनलों पर करणी सेना के लोग सुप्रीम कोर्ट को जलाने तक की धमकी दे डालते हैं, परंतु कुछ नहीं होता है। इसीलिए मैं कहता हूं दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया।
पुलिस तमाशाई बनकर खड़ी रहती है। भीड़ को हिंसक होता हुआ वह देखती रहती है। सरेआम बवाल मच जाता है। इस आगजनी को रोकना राज्य सरकारों और पुलिस प्रशासन का काम है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की होने के बावजूद कोई कुछ नहीं करता। करणी सेना के पथराव और आगजनी करने वाले कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी के सामने पुलिस और प्रशासन हाथ जोड़कर खड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के पक्ष में कोई नहीं आता। पुलिस जब ज्यादती करती है तो लोग कोर्ट भागते हैं, लेकिन आज कोर्ट के आदेशों की रक्षा करने को कोई आगे नहीं आता। तो मैं यहीं कहूंगा- दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया।
सारे खेल में लफड़ा क्या है? लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताकत वोटतंत्र और भीड़तंत्र की है। इसी के दम पर आज सत्ता से बाहर के लोग और सत्ता पाने वाले लोग अपना खेल खेल रहे हैं। अंदर ही अंदर भाजपा व कांग्रेस का समर्थन कहीं न कहीं से करणी सेना तथा राजपूत संगठनों को मिलता रहा है। एक फिल्म प्रोड्यूसर या डायरेक्टर जिसकी मेहनत से लाखों घरों के चूल्हे जलते हैं, कई वर्षों की कमाई होती है, लेकिन एक ही झटके में उनकी कमाई को, उनकी रचना को, उनकी मौलिकता को आगजनी की भेंट चढ़ा दिया जाता है और चुपचाप लोग करणी सेना की गुंडागर्दी को झेल रहे हैं तो हम यही कहेंगे- दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया।
सबसे ज्यादा दु:ख इस बात का है कि स्कूली बच्चों की बस के ऊपर जिस तरह से गुरुग्राम में दो दिन पहले हमला किया गया और वह ड्राइवर बस भगा ले गया, कुछ बच्चे मामूली रूप से घायल भी हुए। हालांकि पुलिस ने इंकार किया है, लेकिन हरियाणा पुलिस की तो हालत यह है कि आए दिन रेप पर रेप हो रहे हैं और पुलिस जांच पर जांच के दावे करते हुए अफसरों के ट्रांसफर को ही अपना धर्म मान रही है तो उस पुलिस से क्या उम्मीद कर सकते हैं? बच्चों पर हमला भी इस हरियाणा पुलिस की नजर में एक मामूली घटना ही हो सकती है। इसीलिए जब सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को पांव तले रौंद दिया जाता है तो यही कहा जाता है- दिस हैप्पन्स ओनली इन इंडिया। हम फिर से पहले बिंदू पर आते हुए यही कहना चाहते हैं कि हम हिन्दू होने के नाते करणी सेना और राजपूत भाइयों की भावनाओं को समझते हैं। मां पद्मावती हमारे लिए भी पूज्यनीय हैं, लेकिन विरोध अगर हिंसक हो और बच्चों के अलावा पूरे देशवासियों पर कहर बन जाए तो इसे क्या कहेंगे? हर सूरत में हिंसा नहीं होनी चाहिए। विरोध करते हुए मर्यादाओं की सीमा नहीं लांघनी चाहिए।