जलवायु परिवर्तन न सिर्फ खुद एक बड़ा खतरा है बल्कि इससे गरीबी और संघर्ष आदि का खतरा भी पैदा हो सकता है। पिछले वर्ष दुनिया के 118 देशों में 2.4 करोड़ से ज्यादा लोग प्राकृतिक आपदाओं की वजह से बेघर हो चुके हैं। चाहिए तो यह है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पूरी दुनिया को एकजुट होकर प्रयास करने चाहिएं लेकिन सब कुछ विपरीत हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेर्स ने तीन दिन पहले ही सभी देशों के नेताओं, व्यापारियों और नागरिकों से पेरिस समझौते को पूरी तरह लागू करने की अपील की थी। 2015 में हुए पेरिस जल समझौते के तहत पहली बार दुनिया के बड़े देश जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए एकजुट हुए थे। इस समझौते पर संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन समूह के 197 देशों में से 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। सीरिया और निकारागुआ अनुपस्थित रहे थे। इस समझौते का मकसद गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनिया में बढ़ रहे तापमान को रोकना था।
समझौते के तहत वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया। यह भी कहा गया कि मानवीय कार्यों से होने वाले ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन को इस स्तर पर लाएं कि पेड़, मिट्टी और समुद्र उसे प्राकृतिक रूप से सोख लें। इसकी शुरूआत 2050 से 2100 के बीच करनी होगी। विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 100 अरब डालर प्रति वर्ष देने और भविष्य में इसे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता भी व्यक्त की गई थी। अमेरिका समेत 147 देश इस समझौते में शामिल हो चुके थे, जहां यह समझौता पिछले वर्ष नवम्बर में प्रभावी हो गया था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते से हटने के संकेत दिए हैं। उन्होंने अपने चुनाव प्रचार अभियान में 2015 में हुए पेरिस समझौते से बाहर होने का वादा किया था। समझौता पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में हुआ था और इसके अनुसार कार्बन उत्सर्जित करने वाले दुनिया के सबसे बड़े देश अमेरिका ने 2025 तक 2005 के स्तर से 26-28 प्रतिशत तक ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन घटाने का संकल्प लिया था।
अपनी सरकार के 100 दिन पूरे होने पर अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत, रूस, चीन पर निशाना साधते हुए कहा था कि ये देश प्रदूषण रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे जबकि अमेरिका करोड़ों डालर दे रहा है। ट्रंप ने यह बार-बार कहा है कि अमेरिका ने पेरिस में सही सौदा नहीं किया। ट्रंप अभी तक तो सभी पक्षों के लोगों के विचार सुन रहे थे लेकिन अभी तक उनके दिमाग में क्या चल रहा है यह तो उनके फैसले के बाद ही पता चलेगा। वैसे सनकी ट्रंप समझौते से हटने का फैसला करते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। ट्रंप का तर्क है कि पेरिस समझौते से अमेरिकी उद्योग जगत को नुक्सान होगा क्योंकि यह विदेशी अधिकारियों को अमेरिका की ईंधन खपत को नियंत्रित करने की अनुमति देता है। हालांकि समझौते की शर्तों के तहत देश गैस उत्सर्जन की अपनी सीमा स्वयं निर्धारित करते हैं न कि कोई बाहरी पैनल। असली मुद्दा यह है कि अगर अमेरिका पेरिस समझौते से अलग हो जाता है या अपने को इसके लक्ष्यों से अलग कर लेता है तो क्या होगा? जो दुनिया अच्छी दिशा की ओर बढ़ रही है उसका क्या होगा? 2016 विश्व स्तर पर अक्षय ऊर्जा में रिकार्ड निवेश का गवाह बना था। अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में 138.5 मीगावाट की वृद्धि हुई है। अमेरिका में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र ने रोजगार के अवसरों के मामले में जैव ईंधन क्षेत्र को पीछे छोड़ दिया है। सौर ऊर्जा पूरी दुनिया में कोयला आधारित ऊर्जा के मुकाबले सस्ती होने की राह पर है। ऐसी स्थिति में ट्रंप का समझौते से अलग होना मूर्खतापूर्ण फैसला होगा।
अमेरिका के 17 सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारियों और जानी-मानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भी ट्रंप को पत्र लिखकर ग्लोबल वार्मिंग से लड़ाई में अपना सहयोग जारी रखने की अपील की है। 36 डेमोक्रेटिक सीनेटरों ने भी ट्रंप से आग्रह किया है कि वे ऐसा फैसला न करें। यह भी कहा जा रहा है कि ऐसा करने से अमेरिका में बेरोजगारी बढ़ेगी। अमेरिका ऐसा करता है तो अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार लेगा क्योंकि चीन, भारत और यूरोप भविष्य में बिजली के क्षेत्र में रोजगार देने के मामले में सबसे आगे हो जाएंगे। समझौते से मुकरना अमेरिकी नेतृत्व के लिए घातक होगा। इससे वैश्विक मंच पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था औैर हितों का प्रतिनिधित्व नहीं रह जाएगा। 196 देशों के बीच अमेरिका अलग-थलग पड़ जाएगा। ट्रंप की सनक पर यूरोपीय संघ भी भड़का हुआ है। देखना यह है कि ट्रंप क्या फैसला लेते हैं।