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बच्चों के माता-पिता कहां जाएं…

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आजकल नर्सरी स्कूल के एडमिशन हो रहे हैं। हर छोटे बच्चे के माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में डालना चाहते हैं ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो, देश का भविष्य उज्ज्वल हो। कितनी मेहनत करते हैं, कितने खर्चे के लिए तैयार रहते हैं। परन्तु आजकल जो हालात हो रहे हैं उसे देखकर हर माता-पिता डर रहे हैं। कितनी मेहनत से, चाव से सुबह-सुबह मां उठकर बच्चोें को स्कूल भेजती है, फिर जल्दी से अपने सारे काम निपटाती है कि बच्चा आए तो वह सिर्फ बच्चे के लिए खाली हो। उसके साथ समय बिताए, उसे अपने हाथों से खिलाये, होमवर्क कराए। अभी हाल ही में जो घटनाएं हुईं हैं उससे हर मां-बाप डरा हुआ है। कभी प्रद्युम्न केस, कभी बस पर अटैक। न तो इसमें किसी बच्चे का दोष, न मां-बाप का। यहां तक कि बच्चे को मालूम ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। जब बस अटैक की फोटो वायरल हुई तो हर मां का दिल दहल गया होगा। किस तरह टीचर ने बच्चों को नीचे किया। एक टीचर ने बच्चों को गले लगाया, उस अध्यापक को मेरा दिल से सलाम। किस तरह बच्चे सहमे हुए थे। हर मां अपने बच्चे का इंतजार कर रही होगी। आज तक तो यही समझ आता था कि सेना में जवान अपनी जान हथेली पर रखकर जाते हैं आैर उनके घर वालों को हमेशा डर रहता है कि वापस आएंगे या नहीं लेकिन आज तो स्कूल के बच्चों के बारे में यह हाल हो रहा है।

इन बच्चों को शायद रानी पद्मावती का पूरा ज्ञान भी नहीं होगा। पहले तो यह बात आती है कि किसी भी प्रोड्यूसर काे किसी भी जाति-धर्म या परंपरा से जुड़ी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली फिल्म नहीं बनानी चाहिए और अगर प्रोड्यूसर के हिसाब से उसने ऐसा कुछ नहीं किया या उसकी समझ से उसने इतिहास से छेड़छाड़ नहीं की तो जिन लोगों को यह आहत कर रही है उनके मुखियों के साथ बैठकर उनसे तार्किक आधार पर बात करनी चाहिए और अगर सुप्रीम कोर्ट का आदेश हो गया है कि यह फिल्म प्रदर्शित होगी तो सभी को कोर्ट के आदेश की मर्यादा रखनी चाहिए। बेहतर होता कि यह फैसला सभी मानते और जिसको नहीं पसन्द था, वह फिल्म देखने नहीं जाता परन्तु इस तरह हिंसा करना तो ठीक नहीं। आप मौन प्रदर्शन कर सकते हो, कैंडल मार्च कर सकते हो परन्तु हर बात पर देश की सम्पत्ति जलाना, बसें जलाना तो गलत है। यह नुक्सान तो फिर हम सब देशवासियों से ही टैक्स के रूप में वसूला जाएगा। यह किसी का नुक्सान नहीं, हमारा ही नुक्सान है। इस बार तो हद कर दी जो बच्चों के स्कूल की बस पर अटैक कर दिया जो बेहद निन्दनीय, शर्मनाक है क्योंकि बच्चों के स्कूल की बस दूर से दिखाई पड़ती है।

मुझे तो यही लगता है कि या तो जोश में उन्हें मालूम नहीं पड़ा या नम्बर बनाने के लिए उन्होंने ऐसा किया क्योंकि कोई भी इतना हैवान-शैतान नहीं हो सकता जाे बच्चों पर अटैक करे। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं जिन्हें देख पत्थर भी पिघल जाते हैं। अगले दिन डर के मारे एनसीआर और दिल्ली के कुछ स्कूल बन्द कर दिए गए और जो खुले भी थे तो अभिभावकों ने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा, आखिर कब तक? हमारी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि हमारे वैचारिक मतभेद या आपस में सहमति-असहमति चलती रहती है क्योंकि हमारा देश लोकतांत्रिक देश है परन्तु अपना विरोध, रोष दिखाने का कुछ ऐसा तरीका होना चाहिए कि किसी की सम्पत्ति का, किसी के जानमाल का नुक्सान न हो। खासकर बच्चों की तरफ तो आंख भी न उठाकर देखा जाए और फिल्म निर्माताओं को हमेशा लोगों की भावनाओं को सामने रखकर फिल्म बनानी चाहिए क्योंकि फिल्म या तो मनोरंजन के लिए होती है या शिक्षाप्रद या कोई इतिहास को दर्शाती है परन्तु बनाने से पहले सबकी भावनाओं आैर उसके असर को जरूर सामने रखना चाहिए। फिल्में मनोरंजन के लिए होनी चाहिएं न कि रंजिश के लिए।

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