मनोज बाजपेयी की ये 100वीं मूवी है और इसीलिए उनके फैंस के लिए बेहद ही स्पेशल है. इसलिए जबसे इसका जबरदस्त ट्रेलर आया था, लोगों की उत्सुकता और भी ज्यादा बढ़ गई थी और उसकी एक वजह ये भी थी कि उसमें मनोज अपने उसी बिहारी लुक में नजर आने वाले थे, जिसमें वो "गैंग्स ऑफ वासेपुर' में नजर आए थे. ऐसे में मनोज बाजपेई के जो जबरा फैन हैं, उनको तो निराशा नहीं होगी, लेकिन कोई ज्यादा उम्मीद उनकी 100वीं फिल्म के नाते लगाकर थिएटर जाएगा तो उम्मीदें टूट भी सकती हैं.
ये पूरी तरह फॉर्मूला मूवी है, जिसमें नए के नाम पर बस इतना ही है कि इसमें मनोज बाजपेयी को आप 'काला', या 'जेलर' जैसी मूवीज के रजनीकांत की तरह देख पाएंगे. ये एक फॉर्मूला मूवी है जिसमें हीरो बिहार का है, विलेन दिल्ली का और बोलता हरयाणवी है, लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट पूरी तरह साउथ की एक्शन फिल्मों की तरह है, जहां मीडिया और पुलिस सिरे से गायब होती है, बिल्कुल लॉजिक की तरह और हर चौथे सीन में लाशें ही लाशें बिछी होती हैं, 'भैयाजी' भी ऐसी ही मूवी है.
कहानी बस दो लाइन की है, कभी रोबिन हुड की तरह खलनायकों के काल और गरीबों के मसीहा रहे भैयाजी उर्फ रामचरण (मनोज बाजपेयी) को अपने गांव के एक फंक्शन में अपने छोटे सौतेले भाई का इंतजार है, लेकिन दिल्ली में एक माफिया नेता (सुविंदर विकी) का बिगड़ैल बेटा (जतिन गोस्वामी) उससे उलझ जाता है और उसका मर्डर कर देता है. आगे की कहानी घर में घुसकर बदला लेने की है, और बीच-बीच में इमोशनल झंझावातों की दास्तान है.
यूं मूवी में रोमांस की कोई जगह नहीं थी, और निर्देशक अपूर्व सिंह कर्की ने इसके लिए कोई तनाव भी नहीं लिया, इसलिए भी मूवी में स्पीड बनी रही. बावजूद इसके जोया हुसैन का किरदार भैयाजी की पत्नी के लिए गढ़ा गया, और उसको नेशनल शूटर बनाकर क्लाइमैक्स में इस्तेमाल कर लिया गया. यूं मनोज ने अपनी 100वीं मूवी में वो सब कर लिया जो रजनीकांत, शाहरुख या सलमान करते आए हैं यानी केबल का इस्तेमाल कर हवा में कई तरह की कलाबाजियों के साथ एक्शन सीन शूट करना, लेकिन जोया के हिस्से में शार्प शूटर जैसे सीन उन्हें भी मात देने वाले लगे हैं.
बावजूद इसके कहानी में कोई पेच नहीं था, सीधी सी कहानी में ज्यादा घुमाव न होना, अच्छे मारक डायलॉग न होना, मूवी के लिए घातक हो सकता है. फिल्म को देखकर ऐसा लगा मानो साउथ की कई सारी मूवीज का मिक्सचर बना दिया गया हो. उसी तरह की फास्ट एडिटिंग, उसी तरह काटने वाले हथियारों के जरिए खुलेआम हिंसा, यहां तक कि शुरू में मनोज भी धोती पहने ही नजर आते हैं.
सबसे बड़ी बात कि इस मूवी का भी लॉजिक से कोई वास्ता नहीं था, दिल्ली की सड़कों पर लाशों पर लाशें बिछ जाएं और पुलिस तो दूर मीडिया का नाम भी न हो, शहर में कोई सीसीटीवी ही ना हो. कभी भैया जी को इतना ताकतवर दिखाना कि सरकारें पलट दें और कभी इतने कमजोर कि जान बचाते फिर रहे थे. हालांकि विपिन शर्मा जैसे कुछ किरदार थे, जो मूवी में बीच-बीच में हंसने का मौका देते रहे.
बावजूद इसके मनोज बाजपेयी ने अपनी इस 100वीं मूवी में अपनी पूरी जान लगा दी और पूरी कोशिश की कि किसी भी पुराने किरदार या गैंग्स ऑफ वासेपुर की छाप उनके इस किरदार या मूवी पर न पड़े. उनकी छोटी मां का रोल निभाने वाली एक्ट्रेस ने अपनी उम्दा एक्टिंग से फिल्म में जान डाल दी. लेकिन कहीं न कहीं लगा कि जितनी मेहनत निर्देशक अपूर्व सिंह कर्की ने अपनी पिछली मूवी 'एक ही बंदा काफी है' में की, उससे बचकर इस मूवी को साउथ के फार्मूलों और मनोज बाजपेयी के कंधों पर ही छोड़ दिया.
जतिन गोस्वामी इससे पहले की फिल्मों में ज्यादा खूंखार, ज्यादा प्रभावशाली लगे थे, इस मूवी में वो ज्यादातर सीन्स में दबते नजर आए हैं. संदीप चौटा का बैकग्राउंड स्कोर प्रभावशाली था, इंस्टाग्राम सेंसेशन सांची पर फिल्माया आइटम सॉन्ग पतली कमरिया पर चक्का जाम.. और बेहतर हो सकता था. मनोज तिवारी का बाघ का करेजा.. गीत अच्छा है. कुल मिलाकर अगर आप मनोज बाजपेयी को प्यार करते हैं तो उनकी ये मूवी आपके लिए है और नहीं भी देखी तो कुछ खास मिस नहीं करने, सिवाय उनके गजब के एक्शन सीन्स के.