किसान आंदोलन को लेकर जो गतिरोध पैदा हुआ है वह कृषि क्षेत्र के हित में नहीं है। हरियाणा और पंजाब के बॉर्डर पर जिस तरह की परिस्थितियां बनी हुई हैं उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है की ना तो सरकार और ना ही किसान पीछे हटने के लिए तैयार है। सरकार ने किसानों से जो वार्ता की पेशकश की है वह चार दौर की वार्ता विफल होने के बाद नई पेशकश है जिसे मानने से किसान पीछे हट रहे हैं। इसका कारण यह लगता है की पिछली वार्ताओं में किसानों की उन मांगों पर सरकार ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जिन्हें लेकर वे आंदोलित हैं। इनमें प्रमुख मांग 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा के साथ ही इनको संवैधानिक मान्यता देना है। किसान चाहते हैं की न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाया जाए। वास्तविकता यह है कि जब से देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ है तभी से कृषि क्षेत्र की घनघोर उपेक्षा हुई है और इसे अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। यह किसानों की मेहनत और उनकी लगन का ही फल है कि भारत लगातार अनाज उत्पादन में उत्तरोत्तर वृद्धि करता जा रहा है। हालांकि हर साल कुछ ना कुछ समर्थन मूल्य में वृद्धि होती है परंतु वह उस कमी की भरपाई नहीं कर पाती जो कि किसान के लागत मूल्य में वृद्धि होने से होती है। इसी वजह से खेती घाटे का सौदा बनता जा रहा है लेकिन इसके बावजूद आज भी भारत में 60 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं।
भारत के संदर्भ में यह विचारणीय प्रश्न है कि यदि खेती की स्थिति अच्छी होगी अर्थात किसान यदि संपन्न होंगे तो देश की आर्थिक व्यवस्था अच्छी होगी और देश लगातार प्रगति के पथ पर आगे बढ़ेगा। किसान को संपन्न बनाना स्वतंत्रता के बाद से ही सरकारों की वरीयता रही है परंतु इस काम में पूरी सफलता मिली हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। 1991 से पहले तक की सरकारों ने कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार किया और कृषि क्षेत्र की स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास किया परंतु इसके बाद इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार घटता गया जिसका असर यह हुआ कि किसान और खेती लावारिस जैसी बनती चली गई आर्थिक उदारीकरण के दौर में सर्वाधिक जोर औद्योगिकरण पर रहा और सेवा क्षेत्र पर रहा। वित्तीय क्षेत्र में सुधार के बाद कृषि क्षेत्र की स्थिति बदलने की उम्मीद थी मगर ऐसा नहीं हो सका और इस क्षेत्र के हिस्से में वित्तीय क्षेत्र के हुए सुधारों का सुफल अपना कोई प्रभाव नहीं डाल सका।
कृषि बीमा योजना हालांकि शुरू की गई परंतु इससे भी किसानों को यथोचित लाभ नहीं मिला और उनकी स्थिति जस की तस बनी रही। यही कारण है की किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग कर रहे हैं क्योंकि कृषि भी ऐसा सेवा क्षेत्र है जो देश के गरीब से गरीब व्यक्ति की सेवा उसे अनाज उपलब्ध कराकर करता है। इसीलिए किसान को धरती का भगवान कहा जाता है। पंजाब के शंभू बॉर्डर और खनोरी बॉर्डर पर जो किसानों और सुरक्षा बलों के बीच आमने-सामने की स्थिति बनी हुई है उसे हर हालत में टाला जाना चाहिए और बीच का ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए जिससे किसानों के हकों पर भी प्रभाव न पड़े और सरकार भी अपनी बात किसानों तक पहुंचा सके। इसके लिए जरूरी है कि किसानों की ओर से एक ऐसा उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल तैयार किया जाए जो सरकार से सीधे दो टूक बात करें और उसे यह समझाएं की समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने से सरकार पर कोई अतिरिक्त धन का बोझ नहीं पड़ेगा क्योंकि जितना सरकार कृषि जन्य वस्तुओं के आयात पर खर्च करती है उससे कम में ही किसानों को समर्थन मूल्य देने का भार पड़ेगा।
किसान यह मांग नहीं कर रहे हैं कि उनकी सभी 23 फसलों को सरकार खरीदे वह केवल यह मांग कर रहे हैं की सरकार या खुले बाजार में कोई भी व्यक्ति या व्यापारी घोषित समर्थन मूल्य से नीचे के दामों पर इन फसलों की खरीदी ना करें। हमें यह देखना होगा की एक तरफ जब औद्योगिक वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं और अन्य उपभोक्ता सामग्री के दामों में वृद्धि होती है तो कृषि लागत मूल्य में भी समानुपाती वृद्धि होती है इसकी पूर्ति करने के लिए उसे बढ़े हुए दामों की आवश्यकता है परंतु खुले बाजार में मांग और आपूर्ति के समीकरण के चलते किसान की फसल के दाम व्यापारी निचले स्तर पर ही तय करते हैं हालांकि सरकार समर्थन मूल्य कुछ फसलों का तय करती है परंतु इन फसलों की विशेष रूप से गेहूं व चावल की खरीदारी केवल 16 प्रतिशत ही सरकार कर पाती है और बाकी फसल किसान को खुले बाजार में निचले दामों पर बेचनी पड़ती है। किसानों की मांग यही है की समर्थन मूल्य से नीचे के भाव पर कोई भी व्यापारी उनकी फसल ना खरीदें और यदि ऐसा होता है तो समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य के बीच के अंतर की भरपाई सरकार को अपने खजाने से करनी चाहिए। यह भावांतर योजना मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रारंभ की थी। शुरू में यह सफल भी रही परंतु इसमें भारी भ्रष्टाचार हुआ जिसके परिणामस्वरूप व्यापारियों के गले तो भर गए परंतु किसान भूखा का भूखा ही रहा।
जब आज की अर्थव्यवस्था बाजार की शक्तियों पर निर्भर है तो किसान को भी हक है कि वह बाजार की ताकत अपने उत्पादन से तय करें। परंतु वह यह काम नहीं कर सकता क्योंकि इसका उत्पादन किसी फसल के मौसम में इकट्ठा होता है और उस समय बाजार में उसके माल की सप्लाई अंधाधुंध रहती है इसीलिए सरकार को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता पड़ती है और वह समर्थन मूल्य तय करती है। मगर दूसरी तरफ किसानों का भी है कर्त्तव्य बनता है कि वे सरकार के साथ बातचीत की मेज को ना छोड़े और किसी भी ऐसे रास्ते को ना अपनाएं जो हिंसा की तरफ जाता हो। पंजाब हरियाणा के खनोरी बॉर्डर पर जिस तरह एक युवा किसान शुभकरण सिंह की मृत्यु हुई है उससे कई सवाल पैदा हो गए हैं। किसान उसे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं जबकि पंजाब सरकार ने उसके परिवार को एक करोड़ रुपए का मुआवजा और उसकी बहन को नौकरी देने का प्रस्ताव रखा है जिसे किसानों ने अस्वीकार कर दिया।
सवाल यह है कि सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में शुभकरण की मृत्यु हुई और किसान मांग कर रहे हैं कि इसके लिए सरकार दोषी है। इस घटना की यदि मजिस्ट्रेट जांच कराई जाए तो सबसे उत्तम कार्रवाई होगी। दूसरी तरफ यह भी महत्वपूर्ण सवाल है कि किसानों को प्रदर्शन करने के लिए दिल्ली आने की इजाजत मिलनी चाहिए। इस बाबत सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दाखिल की गई है जिसमें कहा गया है कि वह सरकार को निर्देश दे कि किसानों की जायज मांगे मानी जाएं तथा राज्य सरकारों को निर्देश दिए जाएं कि वह किसानों के खिलाफ बल प्रयोग या हिंसक कार्रवाई न करें। हालांकि कृषि राज्यों का विषय है परंतु कृषि व्यापार केंद्र का विषय है जिसके तहत पिछले तीन कृषि कानून लाये गए थे। बेहतर होगा इस मसले पर केंद्र और राज्य सरकारों की भी एक मंत्रणा समिति गठित हो ।