Akali Dal's shameful defeat in Punjab: लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद यह साफ हो गया कि पंजाब में अब शिरोमणि अकाली दल का जनाधार खत्म होने को है इसी के चलते उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। अकाली दल केवल बठिण्डा सीट जीतने में कामयाब रहा जबकि कई सीटों पर अकाली दल के उम्मीदवार पांचवें स्थान पर पहुंच गए। उसकी सहयोगी रही पार्टी भाजपा जो कि इस बार अकाली दल के मुकाबले में चुनाव मैदान में थी, उसके भी कई उम्मीदवार अकाली दल से अधिक मत लेने में कामयाब हो गए। जिसके सीधे-सीधे संकेत हैं कि गैर सिख वोट भाजपा को भले ही मिला हो, पर पंथक वोट अकाली दल के खाते में नहीं भुगता है। अमृतसर जो कि सिखी का गढ़ माना जाता है, आनंदपुर साहिब जहां से सिखी की नींव रखी गई उन क्षेत्रों में भी अकाली दल चौथे नम्बर आया और मात्र 10 से 18 प्रतिशत वोट ही उसे मिले।
अभी तक पंजाब में अकाली दल भाजपा गठबंधन में चुनाव लड़ा करता था जिसमें गांवों का पंथक वोट अकाली दल और शहरी वोट भाजपा लेने में कामयाब होती थी और दोनों की सीट आ जाती थी। मगर इस बार किसानी संघर्ष एक बड़ा मुद्दा पंजाब में रहा जिसके चलते पंजाब के लोगों ने कई स्थानों पर भाजपा उम्मीदवारों को तो गांवों में घुसने तक नहीं दिया। बरगाढ़ी में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेदबी, बेदबी का इन्साफ मांगने वाले निहत्थे सिखों पर हुआ बहबल कला गोलीकाण्ड, सुमेध सैनी जैसे पुलिस अधिकारी जिस पर हजारों बेगुनाह सिखों पर अत्याचार का आरोप हो उसेे उच्च पद देने जैसे अनेक मुद्दों के चलते पंथक वोट अकाली दल के खाते में से खिचक चुका है। पंथक माहिरों की माने तो खडूर साहिब से अमृतपाल सिंह का नाम सामने आने के बाद अकाली दल को चाहिए था कि वहां से अपना उम्मीदवार खड़ा ही नहीं करते और अगर पहले से कर दिया था तो उसका नामांकन वापिस ले लेना चाहिए था। अगर ऐसा किया होता तो शायद अकाली दल को सभी सीटों पर पंथक वोट मिल सकते थे। देखा जाए तो अकाली दल का गठन पंथक मुद्दों के समाधान और कौम की आवाज बनने के लिए ही हुआ था मगर धीरे- धीरे अकाली नेता पूरी तरह से राजनीतिक बनने के चक्कर में पंथक राहों से भटक गए। पंजाब के लोगों ने खडूर साहिब से अमृतपाल सिंह और फरीदकोट से इन्दिरा गांधी की हत्या में अहम भूमिका में रहने वाले बेअंत सिंह के सुपुत्र सरबजीत सिंह खालसा को भारी मतों से विजयी बनाकर साबित कर दिया कि पंजाब में केवल वही उम्मीदवार जीतेगा जो कि पंथक मुद्दों पर पहरा देगा। अकाली दल को अगर अपनी पकड़ पुनः मजबूत करनी है तो पार्टी को नीतियों में बदलाव करना होगा क्योंकि नुक्सान केवल अकाली दल को होता दिख रहा है। भाजपा ने अकाली दल से अधिक वोट हासिल करते हुए अपने दम पर धमाकेदार एन्ट्री अवश्य की है हालांकि कोई सीट उसे नहीं मिली हो, पर आगामी चुनाव में पार्टी और मजबूत होकर निकलेगी। सुखबीर सिंह बादल को इस हार से सबक लेते हुए गंभीरतापूर्वक मंथन करना चाहिए और पार्टी में सभी नेताओं और वर्करों को सम्मान देने की सोच रखनी चाहिए।
दिल्ली की जीत में पंजाबियों का अहम योगदान
दिल्ली में एक बार फिर से भाजपा सभी सातों सीट जीतने में कामयाब रही जिसमें पंजाबियों और सिखों का अहम योगदान रहा। भाजपा हाईकमान ने लम्बे समय के बाद दिल्ली की कमान वीरेन्द्र सचदेवा के रूप में पंजाबियों को सौंपी थी। उन्होंने अपने तुजर्बे और मिलनसार स्वभाव के साथ सभी पंजाबियों को एकजुट करने में कामयाबी हासिल की। पंजाब में भले ही किसानी संघर्ष के चलते सिख वोट भाजपा के पक्ष में ना भुगता हो मगर दिल्ली में पूरी तरह से सिखों ने भाजपा उम्मीदवारों के हक में वोट किया। जो लोग भाजपा से खफा भी थे उनके पास भाजपा को चुनने के सिवाए कोई विकल्प नहीं था। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाते हुए संयुक्त उम्मीदवार मैदान में उतारे और सिख समुदाय कांग्रेस को वोट नहीं करना चाहता था जिसका लाभ भाजपा उम्मीदवारों को मिल गया क्योंकि दिल्ली की सातों सीटों पर बड़ी गिनती में सिख वोटर मौजूद हैं। भाजपा नेता मनजिन्दर सिंह सिरसा सहित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी अध्यक्ष हरमीत सिंह कालका और महासचिव जगदीप सिंह काहलो ने भी दिल्ली के सिखों को भाजपा के समर्थन में वोट करने की अपील की थी उसका भी असर देखने को मिला। वहीं शिरोमणि अकाली दल बादल के वरिष्ठ नेता कुलदीप सिंह भोगल ने भी अखिल भारतीय दंगा पीड़ित राहत कमेटी के बैनर तले भाजपा उम्मीदवारों का समर्थन किया जिसके चलते पार्टी की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना से उन्हंे पार्टी के विपरीत जाकर कार्य करने का दोष लगाते हुए कारण बताओ नोटिस भी दिया गया। भाजपा सिख नेता गुरमीत सिंह सूरा, पूर्व मेयर जत्थेदार अवतार सिंह, इश्प्रीत सिंह, चांदनी चौक जिले के अध्यक्ष कुलदीप सिंह, रविन्दर सिंह रेहन्सी, ने भी सिख वोटरों को भाजपा के समीप लाने की निरन्तर कोशिशें की। भाजपा की शानदार जीत पर गुरमीत सिंह सूरा ने अपने क्षेत्र में मिठाईयां बांटी और लंगर भी लगाया। वहीं मनजिन्दर सिंह सिरसा भी अपनी टीम के साथ भाजपा कार्यालय में खुशियां मनाते हुए ढोल पर डांस करते दिखाई दिए। पंजाब में कई स्थानांे पर उम्मीदवारों के द्वारा शहीदी सप्ताह के चलते जीत के जश्न ना मनाने का फैसला लिया गया। अमृतपाल सिंह के समर्थकों ने अनोखे अन्दाज में जीत पर मिठाईयां बांटने के बजाए लोगों के बीच पौधों का वितरण किया। उनका मानना है कि आज पर्यावरण एक बड़ी समस्या बना हुआ है और उसे बचाने के लिए हमें ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाने चाहिए।
पंजाबी के साथ सौतेला व्यवहार बर्दाशत नहीं पंजाब का हर नागरिक भले ही वह किसी भी धर्म या जाति से सम्बन्ध क्यों ना रखता हो उसकी मातृ भाषा पंजाबी ही होनी चाहिए मगर कुछ समय पहले देश के नेताओं ने राजनीतिक लाभ लेने के चलते पंजाबियों को गुमराह करते हुए इसे केवल सिखों की भाषा बताया गया जिसके चलते हालात ऐसे बन गये कि गैर सिख पंजाबी बोलते तो जरूर हैं, मगर जनगणनना के समय अपनी मातृ भाषा पंजाबी के बजाए हिन्दी लिखते हैं। ऐसा नहीं है कि हिन्दी का सम्मान नहीं है, हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा है मगर वह चाहकर भी मातृ भाषा का स्थान नहीं ले सकती।
इसका नुक्सान यह हुआ कि पंजाबियों को मिलने वाले सरकारी लाभ दिन-प्रतिदिन कम होते चले गए। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार आने के बाद से तो मानो पंजाबियों के साथ पूरी तरह से सौतेला व्यवहार ही होने लगा। इससे पहले दिल्ली के सभी सरकारी स्कूलों में पंजाबी अध्यापक, सरकारी कार्यालयों में पंजाबी में कामकाज हेतु पंजाबी स्टाफ रखा जाता मगर इस सरकार ने सब समाप्त कर दिया। अब अगर स्कूलों में पंजाबी अध्यापक ही नहीं होंगे तो बच्चे भले ही पंजाबी सीखने के इच्छुक हों, पर उन्हें पढ़ाएगा कौन। इसलिए दाखिले के समय ही बच्चों को दूसरे विषय लेने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।
इसका ताजा उदारहण सोशल मीडिया पर वायरल एक अध्यापिका की आडियो से होता है जिसमें वह पंजाबी के चाहवान बच्चे को पंजाबी में भविष्य बर्बाद ना करने की सीख देते सुनाई दे रही है जबकि इसकी असल सच्चाई तो यह है कि स्कूलों में टीचर्स ही नहीं है। जिन टीचर्स को पंजाबी अकादमी तनख्वाह देकर स्कूलों में भेजती थी उन्हें लम्बे अरसे से तनख्वाह ही नहीं मिली क्योंकि केजरीवाल सरकार ने पंजाबी अकादमी के बजट में भारी कटौती कर डाली।
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के महासचिव जगदीप सिंह काहलो के द्वारा इस विषय को गंभीरता से लेते हुए पिछले लम्बे समय से पत्राचार के माध्यम से दिल्ली के मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री, एजुकेशन विभाग सहित सभी सम्बन्धि विभागों में पंजाबी के साथ सौतेला व्यवहार ना करने की गुहार लगाई जा रही है। पंजाबी हैल्पलाईन सहित अन्य पंजाबी संस्थाएं भी निरन्तर इस मुद्दे को उठाती दिख रही हैं मगर कोई परिणाम निकलता दिखाई नहीं दे रहा।