पश्चिम बंगाल में केंद्रीय जांच एजेंसियों पर हमला गंभीर मामला है। इस मामले में चिंता और विचार का केंद्र बिंदु यह है कि अगर ऐसे ही जांच एजेंसियों पर सरकार द्वारा प्रायोजित हमले करवाए जाएंगे तो जांच एजेंसियां अपना काम कैसे करेंगी। सवाल यह भी है कि बिना जांच के सच सामने कैसे आएगा। जांच एजेंसियां संविधान का पालन करती हैं। उनका गठन संविधान के नियमों के तहत हुआ है। ऐसे में उन्हें पूरा अधिकार है कि वह कानून के दायरे में रहकर अपने काम को अंजाम दे लेकिन जिस तरह से पिछले दो-तीन सालों से जांच एजेंसियों की कार्रवाई पर विपक्षी दल उंगली उठा रहे हैं वो गंभीर चिंता का विषय है। अब तो बात ईडी और एनआईए जैसी देश की प्रमुख एजेंसियों पर हमले तक आ पहुंची है। पश्चिम बंगाल में आपराधिक घटनाओं को सियासी रंग देने का पुराना इतिहास रहा है।
ताजा घटनाक्रम में पश्चिम बंगाल के ईस्ट मेदिनीपुर क्षेत्र में एनआईए अधिकारियों पर हमले का निष्कर्ष है कि राज्य के तंत्र ने विगत के घटनाक्रम से कोई सीख नहीं ली। इस साल की शुरुआत में संदेशखाली प्रकरण में भी प्रवर्तन निदेशालय की टीम भीड़ के हमले का शिकार बनी थी। फिर इस मुद्दे पर जमकर राजनीति हुई थी। जाहिर है ऐसे घटनाक्रम राजनीति से इतर स्वतंत्र जांच की उम्मीद को खत्म करते हैं। निस्संदेह घटनाक्रम से जुड़े वास्तविक तथ्यों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यहां उल्लेखनीय है कि एनआईए यह जांच कलकत्ता हाईकोर्ट के कहने पर कर रही है। दरअसल, मामला साल 2022 में हुए एक बम धमाके से जुड़ा है, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई थी। जिसकी जांच लंबे अर्से बाद उच्च न्यायालय द्वारा एनआईए को सौंपी गई। एजेंसियों ने पूछताछ के लिये आरोपियों को कई बार बुलाया था जिसे नजरअंदाज कर दिया गया। कहा जा रहा है कि एजेंसी ने यह कार्रवाई उचित नियमों के अनुरूप ही की है।
इस घटनाक्रम के विरोध में तृणमूल कांग्रेस के दस सांसदों ने सोमवार को दिल्ली स्थित चुनाव आयोग के मुख्यालय के बाहर धरना दिया। पुलिस बाद में सांसदों को जबरन उठाकर ले गई लेकिन इसके बावजूद किसी मामले में जांच-पड़ताल को गई किसी एजेंसी के अधिकारियों पर हमला करना भी दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। ऐसे मामले में भीड़ की अराजकता स्वीकार्य नहीं है। बहरहाल, राजनीति से इतर हमें मानना होगा कि किसी मामले में केंद्रीय एजेंसी से जुड़े अधिकारियों पर हमला व कामकाज में अवरोध पैदा करना संघीय व्यवस्था के लिये घातक ही है।
केंद्र सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार की आपसी खींचतान और तनातनी किसी से छिपी नहीं है। बीते महीने पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में भी ईडी अधिकारियों पर हमला हुआ था लेकिन राज्य सरकार ने मुख्य आरोपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। तब भी उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मुख्य आरोपियों को गिरफ्तार किया गया था। बाद में विवाद बढ़ते देख आरोपियों को तृणमूल कांग्रेस से निष्कासित किया गया था। आरोपी पार्टी का बाहुबली नेता था। घटनाक्रम से राज्य सरकार की कार्यशैली पर भी सवाल उठे थे। सवालिया निशान राज्य की कानून व्यवस्था व महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की अनदेखी पर भी उठे थे।
तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा के इशारे पर एजेंसियों द्वारा पार्टी के नेताओं को डराया जा रहा है। दूसरी ओर तृणमूल सुप्रीमो एनआईए द्वारा बम धमाके के आरोपी की गिरफ्तारी के लिये रात में जाने को लेकर सवाल उठा रही है। उनकी दलील है कि ग्रामीण रात को आने वाले अनजान व्यक्ति को देखकर आक्रामक हो जाते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या छापेमारी से पहले एनआईए ने स्थानीय पुलिस का सहयोग लिया था? या फिर राजनीतिक दबाव में काम कर रही स्थानीय पुलिस को सूचना देने से गोपनीयता भंग होने की आशंका से एनआईए ने छापे की पूर्व सूचना नहीं दी?
दूसरी ओर एनआईए का कहना है कि सूचना दी गई थी लेकिन स्थानीय पुलिस का रवैया सहयोग करने वाला नहीं था। बताया जाता है कि जिस व्यक्ति को गिरफ्तार करने एनआईए गई थी वह तृणमूल कांग्रेस का नेता है। विगत में भी ममता बनर्जी अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के समर्थन में खुलकर मैदान में आ जाती हैं।
इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमेंत सोरेन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी ने भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में पूछताछ करनी थी। जांच एजेंसी ने हेमंत सोरेन और केजरीवाल को एक-दो बार नहीं, आठ से नौ बार समन भेजा लेकिन दोनों मुख्यमंत्री कोई न कोई बहाना बनाकर जांच एजेंसी के सामने पेश होने से बचते रहे और केंद्र सरकार और जांच एजेंसी पर अर्नगल बयानबाजी करते रहे। जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो जांच एजेंसी से कानून प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग कर दोनों को गिरफ्तार किया। फिलवक्त हेमंत सोरेन और केजरीवाल जेल में हैं। केजरीवाल की गिरफ्तारी के दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता प्रदर्शन, उपवास और सोशल मीडिया के माध्यम से अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं। उनका आरोप है कि केंद्र सरकार खासकर पीएम मोदी केजरीवाल से डरते हैं, इसलिए उन्हें झूठे मुकदमे में जेल में डाल दिया गया है। असल में ये लोग देश की जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। जांच एजेंसी ने जांच में जो तथ्य हासिल किए हैं उन्हीं के आधार पर न्यायालय ने उन्हें जेल भेजा है। ऐसे में किसी राजनीतिक दल या जांच एजेंसी पर कैसे दोषारोपण किया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने हालिया बयान में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा है कि वह देश और लोकतंत्र को जेल में बदलने का काम कर रहे हैं। ममता ने दावा किया कि ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियां सरकार की जेब में हैं। ममता बनर्जी ने चेतावनी दी कि अगर पार्टी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो उनकी पत्नियां सड़कों पर उतर आएंगी। सीएम ने आगे आरोप लगाते हुए कहा, ''आपकी एक जेब में ईडी और सीबीआई हैं, जबकि दूसरी जेब में एनआईए और इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट हैं। एनआईए-सीबीआई बीजेपी के भाई-भाई हैं, वहीं ईडी और इन्कम टैक्स, बीजेपी का टैक्स कलेक्शन फंडिंग बॉक्स।'' उन्होंने कहा-जांच एजेंसियां आपकी सहयोगी हैं जो हमें धमकाने का काम कर रही हैं लेकिन बीजेपी हमें डरा नहीं सकती है। जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री और पार्टी का मुखिया जब इस तरह की बयानबाजी करेगा तो उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं पर किस तरह का असर होगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल में आज जो कुछ भी हो रहा है ऊपरी तौर पर उसे भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच की राजनीतिक टसन का नाम दिया जा सकता है लेकिन जांच एजेंसियां काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। वो जो तथ्य कोर्ट में पेश करती हैं उन्हीं के आधार पर अदालत अपना फैसला सुनाती है। अगर किसी नेता या व्यक्ति का दामन पाक साफ है तो उसे किसी जांच एजेंसी से घबराने, भागने या छिपने की कोई जरूरत नहीं है। केजरीवाल खुद को कट्टर ईमानदार का प्रमाण पत्र देते हैं। ऐसे में अगर उनकी शराब घोटाले में कोई भूमिका नहीं है तो उन्हें जांच एजेंसी को सहयोग करना चाहिए था। जबकि वो जांच को टालते रहे। आज जो उनके साथ हो रहा है वो सबूतों और गवाहों के आधार पर हो रहा है। हेमंत सोरेन और पश्चिम बंगाल के नेताओं के खिलाफ भी जो एक्शन जांच एजेंसियां ले रही हैं उसके पीछे ठोस तथ्य और सुबूत हैं तभी तो तमाम भ्रष्ट नेताओं को अदालत से राहत नहीं मिल पा रही है। भ्रष्टाचार के मामलों में राजनीति होना ठीक नहीं है। राजनीतिक दलों और नेताओं को जांच एजेंसियों पर उंगली उठाने से पहले अपना आचरण सुधारना चाहिए। वहीं जांच एजेंसियों की भी यह जिम्मेदारी है कि वो निष्पक्षता से अपना काम करें और सार्वजनिक जीवन में कार्रवाई करते समय निष्पक्ष दिखाई भी दें।
– राजेश माहेश्वरी