संपादकीय

बन्द और नागरिकों की एकता

Aditya Chopra

बम्बई उच्च न्यायालय ने 24 अगस्त को होने वाले 'महाराष्ट्र बन्द' पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस बन्द का आयोजन राज्य के प्रतिपक्षी गठबन्धन महाराष्ट्र विकास अघाड़ी ने किया था। बन्द का आयोजन ठाणे जिले के बदलापुर शहर के एक स्कूल में दो बच्चियों के साथ हुए बलात्कार कांड के विरोध में किया जाने वाला था। उच्च न्यायालय में बन्द के आह्वान के खिलाफ कई जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं, जिनकी सुनावई करते हुए उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि उसके अगले आदेश तक बन्द का आयोजन करने से राजनैतिक दल बचें। महाविकास अघाड़ी में शामिल सभी प्रमुख दलों कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस व उद्धव गुट शिवसेना ने बन्द का आयोजन न करने की कल ही घोषणा कर दी थी। एेसा न्यायालय के आदेशों को देखते हुए ही किया गया। मगर मूल सवाल यह है कि लोकतन्त्र में नागरिकों के कुछ मूल अधिकार व संवैधानिक अधिकार होते हैं। नागरिक सरकार की किसी नीति या फैसले के खिलाफ अपना विरोध- प्रदर्शन कर सकते हैं और इसके लिए कई रास्ते अपना सकते हैं। बन्द का आयोजन करना नागरिकों की एकजुटता से भी जुड़ा हुआ है जिसका सम्बन्ध समूहगत एकता (राइट टू एसोसिएशन) से जाकर जुड़ता है।
भारतीय लोकतन्त्र में नागरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि वे अपने संगठन बना सकते हैं। जैसे मजदूर संघ आदि का गठन इसी सिद्धान्त पर होता है। जब सरकार गूंगी-बहरी होकर किसी समस्या के निदान को तत्पर ही न दिखाई दे तो नागरिकों को अपना आक्रोश शान्तिपूर्ण व पूर्ण अहिंसक तरीके से करने का अधिकार होता है। यह मौलिक लोकतान्त्रिक अधिकारों में शामिल होता है। अक्सर बन्द का आयोजन राजनैतिक दल तभी करते हैं जब उन्हें लगता है कि किसी समस्या ने इतना चरम रूप ले लिया है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है। तब वे पूरे राज्य या देश में बन्द का आह्वान करते हैं। लोकतन्त्र में इसमें कोई बुराई नहीं है। सत्ता या राज्य के खिलाफ नागरिकों के पास केवल शान्तिपूर्ण प्रदर्शन का ही एक रास्ता बचता है जिसकी मार्फत वे अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं। इसमें हिंसा किसी भी रूप में नहीं होनी चाहिए। हिंसा के होते ही पूरा आन्दोलन अवैध हो जाता है क्योंकि भारतीय संविधान की बुनियाद ही अहिंसा पर रखी हुई है।
संविधान में ये मान्यताएं भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन से ली गई हैं जिसमें महात्मा गांधी ने केवल अहिंसा को ही हथियार बनाकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विश्व की सबसे बड़ी सेना को हरा दिया था और अंग्रेजी राज का खात्मा कर डाला था। अतः स्वतन्त्र भारत के नागरिकों को संविधान ने अहिंसात्मक तरीके से ही विरोध प्रकट करने का अधिकार दिया है। बन्द का आयोजन राजनैतिक दल जब करते हैं तो उसके पीछे केवल सत्तारूढ़ सरकार की जन विरोधी नीतियों को उजागर करना ही नहीं होता, बल्कि सरकारी उदासीनता से समाज में पनप रही बुराइयों का विरोध करना भी होता है। बदलापुर का प्रकरण एेसा ही है। हमने हाल में ही देखा है कि प. बंगाल के एक मेडिकल कालेज में किस प्रकार एक पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल छात्रा की बलात्कार के बाद हत्या की गई जिसका प्रतिकार करने केन्द्र की सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी स्वयं आगे आयी और प्रदर्शन व आन्दोलनों की झड़ी लगा दी। प. बंगाल में भाजपा की विरोधी तृणमूल कांग्रेस पार्टी की सरकार है। अतः हर राजनैतिक दल को सत्ता के विरुद्ध प्रदर्शन करने का अधिकार भारत का संविधान देता है, बशर्ते यह विरोध पूर्णतः शान्तिपूर्ण होना चाहिए।
दूसरी तरफ यह भी तथ्य है कि बन्द का आयोजन करने से किसी राज्य व देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ता है। बम्बई उच्च न्यायालय ने बन्द पर फौरी तौर पर प्रतिबन्ध लगाते हुए एेसे ही कारण गिनाये हैं। मसलन बन्द होने से दैनिक मजदूरी करने वालों से लेकर स्कूल-कालेज के छात्रों तक का नुक्सान होता है और दुकानदारों को अपनी दुकानें बन्द रखनी पड़ती हैं जिससे अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंचता है। पूरा परिवहन व आवागमन बाधित होता है जिसका खामियाजा आम नागरिकों को ही उठाना पड़ता है। न्यायालय ने अपना तर्क देते हुए कहा कि यदि शनिवार (24 अगस्त) को बन्द रखने की इजाजत दे दी जाती है तो पूरे महाराष्ट्र और मुम्बई के लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जायेगा। न्यायालय ने राज्य सरकार व इसके गृह विभाग को भी 9 अक्तूबर को जवाब देने वाले नोटिस जारी करते हुए ये मुद्दे उठाये हैं। नोटिस बन्द के आयोजनकर्ता राजनैतिक दलों को भी जारी किये गये हैं। न्यायालय ने तब तक आगे किसी तारीख तक भी बन्द का आयोजन करने पर रोक लगा दी है। इससे यह तो साबित होता है कि उच्च न्यायालय बन्द के होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में सोच रहा है मगर नागरिकों के विरोध करने के अधिकार का इसमें कोई समावेश नहीं है। 60 और 70 के दशक में तत्कालीन कांग्रेस सरकारों के विरोध में आये दिन भारत बन्द और राज्य बन्द का आह्वान होता रहता था। मगर जब इसमें तोड़फोड़ और हिंसा का समावेश हुआ तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया था। लोकतन्त्र में हमें सत्ता या राज्य के असीमित अधिकारों व नागरिकों के सीमित अधिकारों के बीच इस प्रकार सन्तुलन बना कर चलना पड़ता है कि हर हालत में लोकतन्त्र ही बोलता नजर आये क्योंकि इस व्यवस्था में जो भी सरकार बनती है वह लोगों की ही सरकार होती है और लोगों के प्रति ही उत्तरदायी व जवाबदेह होती है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com