संपादकीय

बंगलादेश की भारत से अपेक्षा

Aditya Chopra

भारत-बंगलादेश के आपसी सम्बन्ध 1971 से ही बराबरी और निष्पक्षता के आधार पर टिके हुए हैं। हालांकि बंगलादेश के मुक्ति संग्राम में भारतीय सेना की विशिष्ट भूमिका थी। इसके बावजूद तत्कालीन भारतीय प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बंगलादेश की सार्वभौमिकता व संप्रभुता को पूरा सम्मान दिया और उस समय के इसके राष्ट्र प्रमुख स्व. शेख मुजीबुर्रहमान के साथ बराबरी के स्तर पर दौत्य सम्बन्ध स्थापित किये। अतः बंगलादेश की वर्तमान अन्तरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस का यह कहना कि उनका देश भारत के साथ बराबरी के आधार पर निष्पक्ष सम्बन्ध चाहता है, कुछ अटपटा लगता है क्योंकि श्री यूनुस के सत्तारूढ़ होने के बाद भारत की सरकार ने उनके देश के साथ अच्छे सम्बन्धों की अपेक्षा तब की थी जबकि बंगलादेश की चुनी हुई प्रधानमन्त्री शेख हसीना 5 अगस्त को अपदस्थ होने के बाद दिल्ली आ गई थीं और 8 अगस्त को श्री यूनुस ने पदभार संभाला था। भारत की विदेश नीति का यह अन्तरंग भाग है कि वह किसी भी अन्य देश के घरेलू मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता है और यह मानता है कि किसी भी देश में किस प्रकार की सरकार हो या कैसा शासन है इसका फैसला उस देश के लोगों की इच्छा पर निर्भर करता है। अतः बंगलादेश में 5 अगस्त के बाद जो भी व्यवस्था बनी और जैसी भी सरकार बनी भारत ने उसके साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने की इच्छा ही व्यक्त की। जबकि भारत से यह रहस्य भी नहीं छिपा हुआ है कि शेख हसीना के शासन के दौरान श्री यूनुस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। इसके साथ ही मोहम्मद यूनुस ने यह भी कहा कि सार्क (दक्षेस) संगठन को पुनर्जीवित करना चाहते हैं।
यह भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण एशियाई देशों का संगठन है मगर पाकिस्तान के नाकारापन और हठधर्मिता की वजह से निष्क्रिय है। इस संगठन का गठन स्व. राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान भारत की पहल पर ही हुआ था। इसका लक्ष्य इस क्षेत्र के देशों में फैली गरीबी से लड़ना था और समूहगत तौर पर सभी देशों का विकास करना था। तब एकीकृत यूरोप की बात ही हो रही थी। मगर भारत ने सार्क का गठन करके एशिया महाद्वीप के सदस्य देशों के सामने विकास का नया रास्ता खोला था परन्तु पाकिस्तान के असहयोग की वजह से यह संगठन अपना कार्य नहीं कर सका। इतना ही नहीं बाद में सार्क चैम्बर आॅफ कामर्स का गठन भी किया गया था जिससे इसके सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से जुड़कर विश्व के नये बनते वाणज्यिक समूहों का मुकाबला कर सके। इस संगठन में भारत के अलावा पाकिस्तान, बंगलादेश, भूटान, अफगानिस्तान, मालदीव, नेपाल व श्रीलंका हैं। आज इन सभी देशों पर चीन का दबदबा देखा जा सकता है। अतः श्री यूनुस भारत के सहयोग के बिना सार्क को पुनर्जीवित व कारगर कैसे बना पायंगे, यह देखने वाली बात होगी।
बंगलादेश की तरक्की में भारत का महत्वपूर्ण योगदान इसके उदय होने के समय से ही इस प्रकार रहा है कि भारत ने इस देश को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए हर प्रकार की आर्थिक मदद की। भारत ने बंगलादेश के लोगों को भी कभी पराया नहीं समझा। मगर श्री यूनुस यदि यह समझते हैं कि वह भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में रखकर तोल सकते हैं तो यह उनकी ऐतिहासिक भूल होगी। हकीकत यह है कि पाकिस्तान कभी भी बंगलादेश का शुभचिन्तक नहीं हो सकता क्योंकि बंगलादेश का गठन ही भारत-पाक का बंटवारा मजहब की बुनियाद कराने वाले मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध है।
1971 से पहले तक बंगलादेश पूर्वी पाकिस्तान ही कहलाता था जिसकी 80 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या मुस्लिम थी। मगर 1971 में यह पाकिस्तान से बांग्ला संस्कृति की बुनियाद पर अलग हुआ क्योंकि इस देश के लोगों ने अपने धर्म के ऊपर अपनी बांग्ला संस्कृति को वरीयता दी। अतः जिन्ना के सिद्धान्त को कब्र में गाड़कर बंगलादेश का 1971 में उदय हुआ था। श्री यूनुस ने अपने देश के लोगों को टीवी पर सम्बोधित करते हुए कल कहा कि जब वह शासन में आये तो भारत व पाकिस्तान के प्रधानमन्त्रियों ने उन्हें शुभकामना सन्देश भेजे व उनसे फोन पर भी बात की। बेशक कूटनीति में कोई भी देश कभी भी अछूत नहीं हो सकता और बातचीत के दरवाजे हर किसी के लिए खुले रखने पड़ते हैं मगर श्री यूनुस को यह विचार जरूर करना होगा कि उनके देश के अस्तित्व के बारे में भारत व पाकिस्तान के विचार क्या हैं? बंगलादेश की अन्तरिम सरकार अब भारत के साथ हुई विभिन्न आर्थिक व औद्योगिक परियोजना सन्धियों की समीक्षा भी कर रही है। इसमें निजी क्षेत्र की एक बिजली परियोजना भी शामिल है। ऐसा करके वह पूर्व प्रधानमन्त्री शेख हसीना की नीयत पर शक कर रही है। जिस देश में भी लोकतान्त्रिक सरकारें होती हैं वे ऐसे फैसले द्विपक्षीय सम्बन्धों की कीमत पर करने की कायल नहीं होती। खैर यह बंगलादेश का आन्तरिक मामला है और वहां की सरकार को ही इससे होने वाले हानि-लाभ के बारे में सोचना है। मगर किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सरकार विदेश से जो भी समझौता करती है उसका पालन करने के लिए नयी सरकार बाध्य होती है बशर्ते उसमें राष्ट्रीय हितों की बलि न चढ़ाई गई हो। अतः मोहम्मद यूनुस को भारतीय उपमहाद्वीप के सन्दर्भ में अपनी नीतियां बड़ी स्पष्टता के साथ तय करनी होंगी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com