संपादकीय

ज्ञानवापी हो या मथुरा -न हो टकराव

Shera Rajput

वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद के विवाद में जिस गति से नए घटनाक्रम हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह आशंका दूर नजर नहीं आती जब मामला इतना गंभीर हो जाएगा कि मुस्लिम और हिंदू एक-दूसरे के खिलाफ हो जाएंगे। संक्षेप में, मुगल आक्रमणकारी औरंगजेब द्वारा 1669 में एक शिव मंदिर के ऊपर बनाई गई मस्जिद उसी तरह बन सकती है, जैसे बाबर द्वारा बनाई गई मस्जिद अयोध्या में बनाई गई थी और जिसका सड़कों पर और एक के बाद एक केंद्र सरकारों के ऊपरी स्तरों पर लंबी लड़ाई के बाद देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा एक 'सौहार्दपूर्ण' समाधान पाया गया।
चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद बने भव्य राम मंदिर को 23 जनवरी को भक्तों के लिए खोल दिया गया था, इससे एक दिन पहले देशभर के वीवीआईपी, वीआईपी और साधु-संतों की मौजूदगी में एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा यजमान की भूमिका निभाते हुए इसकी प्राण प्रतिष्ठा की गई थी। ज्ञानवापी मस्जिद मामले में अदालतों ने हाल के हफ्तों में महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। दरअसल, पिछले गुरुवार को ज्ञानवापी मस्जिद के दक्षिणी तहखाने में प्रार्थना सुनी गई थी, क्योंकि एक दिन पहले वाराणसी जिला न्यायाधीश ने 30 साल के अंतराल के बाद पुजारियों के एक परिवार को पूजा की अनुमति दी थी। जिला अधिकारियों ने दक्षिणी तहखाने को घेरने वाले स्टील बैरिकेट्स को काटने के लिए रात भर काम किया। मुकदमे के वादी शैलेन्द्र कुमार पाठक के परिवार के सदस्यों द्वारा शृंगार गौरी एवं अन्य देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की गई।
दिलचस्प बात यह है कि वाराणसी के जिला न्यायाधीश अजय कृष्ण विश्वेसा के लिए, जिन्होंने पिछले सप्ताह पूजा की अनुमति दी, यह सेवानिवृत्ति से पहले आखिरी कार्य दिवस था। निस्संदेह यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी कि ज्ञानवापी मामला राम जन्मभूमि की राह पर न चले, दोनों समुदायों के सद्भावना वाले पुरुषों और महिलाओं पर है। लंबा लेकिन सफल राम जन्मभूमि अभियान, दोनों समुदायों के नेताओं के लिए यही सबक है।
दरअसल, वाराणसी में विवादित स्थल पर जाने वाला कोई भी आम आदमी हिंदू मंदिरों के पारंपरिक प्रतीकों को नोटिस किए बिना नहीं रह सकता। एएसआई की रिपोर्ट के मुताबिक, ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर 55 हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां मिलीं। इनमें 15 शिवलिंग, विष्णु की तीन, गणेश की तीन, नंदी की दो, कृष्ण की दो और हनुमान की पांच मूर्तियां शामिल हैं। अदालत के निर्देश पर एएसआई रिपोर्ट की प्रतियां दोनों पक्षों को उपलब्ध कराई गई हैं।
जब सरकारें संभावित विस्फोटक मुद्दों को इस आशा में ठंडे बस्ते में डाल देती हैं कि समय के साथ समस्या दूर हो जाएगी तो परिस्थितियां एेसे हालात बना देती हैं कि उन्हें उसी समस्या से जूझना पड़ता है। अयोध्या विवाद लंबे समय से गरमाया हुआ था लेकिन 1949 में उस वक्त तूल पकड़ गया जब विवादित ढांचे के केंद्रीय गुंबद के नीचे रामलला की मूर्ति मिली। परेशान सरकार ने जिला प्रशासन को मूर्ति हटाने का आदेश दिया।
यदि लखनऊ और नई दिल्ली के तत्कालीन शासकों ने दूरदर्शिता दिखाई होती तो यह विवाद लगातार कांग्रेस सरकारों के लिए इतना बड़ा सिरदर्द नहीं बन पाता। आजादी के तुरंत बाद मुस्लिम पक्ष ने वर्षों बाद की तुलना में कहीं अधिक सौहार्दपूर्ण रवैया अपनाया होगा, मुस्लिम वोटों को एकजुट करने की कांग्रेस की आवश्यकता से उसकी हठधर्मिता और बढ़ गई। यह बात सरल है। ऐसे मामलों में टालमटोल करना अनुपयोगी है, वास्तव में तर्कसंगत समाधान खोजने में हानिकारक है। इसलिए यह कहना जरूरी है कि अब समय आ गया है कि मोदी सरकार ज्ञानवापी विवाद को सुलझाने के लिए कदम उठाएं। इससे पहले कि यह सड़कों पर पूरी तरह से भड़क उठे जैसा कि राम जन्मभूमि विवाद में पहले हुआ था।
यहां यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 के तहत मालिकाना हक के मुकदमों की स्थिरता के खिलाफ मस्जिद अधिकारियों की चुनौती को खारिज करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा। यह कानून हिंदुओं को भूमि मालिकाना हक के मुकदमे दायर करने से नहीं रोकता है, चाहे वह कोई भी हो वाराणसी में ज्ञानवापी हो या मथुरा में शाही ईदगाह।
इससे यह निष्कर्ष निकालता है कि अभी ज्ञानवापी विवाद और बाद में शाही ईदगाह विवाद दोनों समुदायों के बीच आमने-सामने टकराव को बढ़ावा देता है। समझदारी इसी में है कि सांप्रदायिक सद्भाव के लिए इन संभावित खतरों को यथाशीघ्र टाला जाए। अंततः इन संभावित बारूद के ढेरों को निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। नई दिल्ली और लखनऊ में मौजूदा शासनों द्वारा राजनीतिक कौशल की आवश्यकता है। वैसे मोदी-योगी टीम यह करने में सक्षम है।

 – वीरेंद्र कपूर