संपादकीय

भारत रत्न की त्रिमूर्ति

Aditya Chopra

केन्द्र सरकार ने देश के प्रधानमन्त्री रहे स्व. चौधरी चरण सिंह व पी.वी. नरसिम्हा राव के साथ ही कृषि वैज्ञानिक डा. एम.एस. स्वामीनाथन को भारत रत्न देकर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह ही किया है क्योंकि तीनों विभूतियां इस सम्मान की हकदार समझी जातीं थीं। इससे कुछ दिनों पहले केन्द्र सरकार ने भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी को यह सम्मान दिया था और उससे पहले इसी साल समाजवादी नेता श्री कर्पूरी ठाकुर को भी इससे अलंकृत किया था। कुल मिलाकर इस बार पांच हस्तियों को भारत रत्न दिया गया है। इनमें से चार को मरणोपरान्त व एक को जीवित रहते। वास्तव में 1966 तक भारत रत्न सम्मान जीवित विभूति को ही दिया जाता था और एेसे व्यक्तित्व का चयन किया जाता था जिसका मानव जीवन के वैविध्यपूर्ण क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हो। परन्तु 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के बाद देशभर में महान लोकप्रियता अर्जित करने वाले प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री की 11 जनवरी, 1966 को ताशकन्द में आकस्मिक मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री बनी श्रीमती इन्दिरा गांधी ने शास्त्री जी को इस सम्मान से विभूषित करने के लिए इसके नियमों में परिवर्तन किया और मरणोपरान्त भी महान व्यक्तित्वों को यह सम्मान देने का दरवाजा खोला।
मरणोपरान्त भारत रत्न पाने वाले शास्त्री जी प्रथम व्यक्तित्व थे। इसके बाद ही अन्य राष्ट्रीय विभूतियों को मरणोपरान्त भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। बेशक चौधरी चरण सिंह इस सम्मान के सुपात्र थे क्योंकि उन्होंने पूरा जीवन किसानों के उत्थान व पिछड़े व कमजोर लोगों के विकास में लगाया। चौधरी साहब स्वतन्त्र भारत की राजनीति में एक मात्र एेसे राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने अपने एकमात्र पुत्र स्व. अजित सिंह को राजनीति में आने को इसलिए अयोग्य करार दिया था क्योंकि उनका लालन- पालन बहुत एशोआराम में उनके घर में ही हुआ था और उन्हें गांवों व किसानों के दुख-दर्द के बारे में किसी प्रकार का अनुभव नहीं था। राजनीति में परिवारवाद के वह सख्त विरोधी थे और मानते थे कि सियासत में जमीन पर संघर्ष करने वाले लोग ही गांवों व गरीब की राजनीति करने वाली पार्टियों मे आयें। 1984 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रचार करते हुए उत्तर प्रदेश के शहर मैनपुरी में आयोजित एक जनसभा में उन्होंने अपने पुत्र अजित सिंह के बारे में जो कुछ भी कहा था उसे शब्दशः मैं यहां उद्घृत कर रहा हूं। ''भाइयों आपका एक बेटा है अजित सिंह। वह कम्प्यूटर का बड़ा भारी इंजीनियर है। अमेरिका में नौकरी करता है। लोग मुझसे कहते हैं कि उसे पालिटिक्स में लाओ। मैं कहता हूं कि वह सियासत में आने के काबिल नहीं ही क्योंकि उसकी परवरिश एक मिनिस्टर के घर में हुई है (चौधरी साहब उत्तर प्रदेश में 1967 तक कांग्रेस की सरकारों में मन्त्री रहे थे और इसके बाद मुख्यमन्त्री भी रहे थे।
1977 में तो वह केन्द्र में मन्त्री भी थे और 1979 में प्रधानमन्त्री भी बन गये थे)। उसे क्या पता गांव में मढैया कैसे पड़ती है। उसे नहीं मालूम कि किसान रहट से कैसे सिंचाई करता है। उसे किसानों और मजदूरों के दुख दर्द के बारे में क्या पता''। वर्तमान दौर की राजनीति देख कर क्या कोई कल्पना कर सकता है कि आजाद भारत में एक एेसा राजनेता भी हुआ जिसने भरी जनसभा में सार्वजनिक रूप से अपने एकमात्र पुत्र का राजनीति में आने को लेकर इस प्रकार का चित्रण किया हो। इसके साथ ही चौधरी साहब एक कुशल प्रशासक होने के साथ ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। उनका सार्वजनिक जीवन सदाचारी व खुली किताब था। उनका एक ही लक्ष्य था कि भारत के गांवों का विकास उसी प्रकार हो जिस प्रकार शहरों का हो रहा है। वह गांव के आदमी की आमदनी बढ़ाने की अर्थ नीति के पैरोकार थे जिसका वर्णन उन्होंने अपने द्वारा लिखी किताब 'नाइटमेयर आफ इंडियन इकोनामी' में किया है। उन जैसे गांधीवादी सच्चे राजनीतिज्ञ बिरले ही होते हैं।
बहुत बेहतर होता कि भारत रत्न सम्मान उन्हें जीवित रहते हुए दे दिया जाता। परन्तु देर से ही सही उन्हें इससे अलंकृत किया गया है। आज के दौर में इसके राजनीतिक मायने लगाये जा सकते हैं क्योंकि लोकसभा चुनावों में अब 100 दिन का भी समय शेष नहीं है मगर चौधरी साहब की सुपात्रता पर कोई उनके विचारों का विरोधी भी अंगुली नहीं उठा सकता। जहां तक नरसिम्हा राव का प्रश्न है तो यह चौधरी साहब से बिल्कुल उलट मामला है हालांकि उनका योगदान 1991 में प्रधानमन्त्री रहते देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू करना है परन्तु उन्हें चौधरी साहब के समकक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। इसकी एक वजह यह भी है कि उन पर अपनी सरकार बचाने के लिए सांसदों को रिश्वत देने का आरोप भी लगा था और अदालत में मुकदमा भी चला था।
भारत की अर्थव्यवस्था के मानकों को बदलते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को सफेद हाथी बताने की संस्कृति के जन्मदाता पी.वी. नरसिम्हा राव ने निजीकरण का जो दौर शुरू किया वह अभी तक चल रहा है और भारत आर्थिक रूप से तरक्की भी कर रहा है। डा. एम.एस. स्वामीनाथन को भारत में हरित क्रान्ति का 'इंजिन' कहा जाता है। कृषि के क्षेत्र में किया गया उनका योगदान अतुलनीय है क्योंकि भारतीय किसानों की आर्थिक दशा सुधारने में उनका जमीनी योगदान किसी भी कृषि वैज्ञानिक से बहुत ज्यादा है। यह बेवजह नहीं है कि उन्हीं के दिये गये फार्मूले पर फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होता है हालांकि वह किसान की मेहनत और जमीन के मूल्य की लागत को भी इस फार्मूले में जोड़ कर देखना चाहते थे।