स्वतन्त्र भारत की न्यायपालिका ने प्रारम्भ से ही देश के धर्म निरपेक्ष स्वरूप का संरक्षण किया है और हर प्रकार के नागरिकों के साथ पूर्ण न्याय किया है। भारत की न्यायपालिका पूरी तरह राजनीति निरपेक्ष भी रही है और सदा सत्ता पर काबिज सरकार पर संविधान के अनुसार शासन करने के लिए दबाव भी बनाती रही है। हमारे संविधान का ढांचा ही इस प्रकार का है कि इसमें हर धर्म के मानने वाले नागरिक के अधिकार एक समान हैं। यह सनद रहनी चाहिए कि भारत के पिछले पांच हजार से ज्यादा इतिहास मंे संविधान एकमात्र एेसी पुस्तक है जिसमें 'इंसानियत' को ही सर्वोच्च रखा गया है और सभी प्रकार के नागरिकों को केवल मनुष्य समझ कर उनके साथ एक जैसे व्यवहार की ताईद की गई है। यह पहली पुस्तक है जिसमें भारत के लोगों को विभिन्न वर्गों या सम्प्रदायों में बांट कर नहीं देखा गया है और मनुष्य होने के नाते सभी को बराबरी की हिदायत दी गई है।
भारत की राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि देश के विभिन्न वर्गों, जातियों व सम्प्रदायों में बंटे लोगों के बारे में विभिन्न राजनीतिक दलों का व्यावहारिक नजरिया किस प्रकार का रहता है? मगर चुनावी प्रणाली के माध्यम से सत्ता में आने वाले राजनीतिक दल वोटों के लालच में आकर किसी खास वर्ग या सम्प्रदाय के लोगों को रिझाने की गरज से पथ भ्रष्ट भी हो जाते हैं और भारत की विविधता को एक ही रंग में पोतने का उपक्रम भी करते रहते हैं। मगर संविधान इसकी इजाजत कतई नहीं देता अतः न्यायपालिका एेसे राजनीतिक दलों की सरकारों को सही रास्ते पर लाने का काम करती है। कुछ अपवाद बेशक हो सकते हैं मगर भारत की न्यायपालिका कभी भी जनता के बीच किसी भी लोकप्रिय हुए विमर्श के दबाव में काम नहीं करती औऱ वह केवल संविधान की रूह से ही अपने फैसले देती है। इस सिलसिले में सर्वोच्च न्यायालय में बुलडोजर की मार्फत किसी आरोपी या दोषी का मकान गिराये जाने के सरकारी आदेशों को लेकर मुकद्दमा चल रहा है। इस मुकद्दमे का फैसला सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों सर्वश्री बी आर गवई व के वी विश्वनाथन की पीठ ने सुरक्षित रख लिया है मगर मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणियों से पूरे देशवासियों की आंखें खोल दी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, असम व राजस्थान की सरकारों ने पिछले कुछ समय से यह रवैया अपना रखा है कि किसी पर आपराधिक आऱोप लगते ही वे उसकी मकान-दुकान समेत अचल सम्पत्ति को ढहाने का आदेश जारी कर देती हैं। दुर्भाग्य से एेसे लोगों में एक विशेष धर्म के अनुयायी नागरिक ही अधिक होते हैं। सरकारों के एेसे कारनामों को कुछ अति उत्साही लोगों ने बुलडोजर न्याय तक कहना शुरू कर दिया है। हद तो यह हो गई कि कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान एक राज्य के मुख्यमन्त्री ने बुलडोजर के साथ रैलियां तक सम्बोधित कीं। यह सरासर भारत में कानून के शासन का मजाक उड़ाया जाना है । सर्वोच्च न्यायालय पहले ही पिछले महीने बुलडोजर के एेसे उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा चुका है जिसमें किसी आरोपी या दोषी की अचल सम्पत्ति को ढहाया जाता है।
सवाल यह है कि किसी दोषी या आरोपी के अपराध में उसके परिवार वालों का क्या दोष है? मकान ढहाने से आरोपी के परिवार वालों को भी सजा दे दी जाती है जिनमें औरतें व बच्चे भी शामिल होते हैं। इस प्रकार की कार्रवाई को हम केवल 'सुल्तानी फरमान' ही कहेंगे क्योंकि लोकतन्त्र में अन्ततः शासन उस जनता का होता है जिसके पास एक वोट का अधिकार होता है। यह जनता ही अपने ऊपर संविधान के लागू होने की कसम उठाती है। अतः मकान ढहाने से पहले पूरी कानूनी औपचारिक कार्रवाई होती है जिसके लिए स्थानीय प्रशासन जिम्मेदार होता है और स्थानीय न्यायपालिका द्वारा वह किसी मकान को ढहाये जाने का आदेश प्राप्त करता है। मगर लोकतन्त्र में खुद ही मुंसिफ व खुद ही वकील नहीं हुआ जा सकता। हर नागरिक को न्यायपालिका के पास अपनी फरियाद लेकर जाने का हक होता है और अन्तिम फैसला वहीं से आता है। यह तस्वीर का एक पहलू है। इसके साथ दूसरा पहलू यह है कि सरकारी जमीनों पर कुछ लोग या भू-माफिया स्थानीय प्रशासन के साथ मिलीभगत करके कब्जा कर लेते हैं। मगर बाद में जब भेद खुलने पर खुद प्रशासन ही इन्हें अवैध कब्जे हटाने के लिए कहता है तो ये विभिन्न मुखौटों में सामने आते हैं। इनमें धर्म या मजहब के नाम पर सरकारी जमीनों पर अवैध निर्माण कराने वाले लोग धर्म के नाम पर व्यापार करने से ज्यादा कुछ नहीं होते। पूरे देश मंे राजमार्गों या सड़कों के बीच अथवा किनारे मन्दिरों व दरगाहों या मजारों को देखा जा सकता है। किसी राजमार्ग के बनने से पहले ही भूमाफियाओं के पास उसका नक्शा पहुंच जाता है और फिर वे जमीन हथिया कर वहां मन्दिर या मजार बना डालते हैं और उन्हें प्राचीन तक कहने लगते हैं। कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ही पूरे देश की राज्य सरकारों से प्राचीन धार्मिक स्थलों की सूची मांगी थी। मगर बाद में उसका क्या हुआ यह पता नहीं चल पाया। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कह दिया है कि सार्वजनिक सड़कों के बीच या किनारे मन्दिर या मजार बर्दाश्त नहीं किया जायेगा और सम्बन्धित राज्य सरकार को इन्हें हटाने के सभी रास्ते मिलेंगे।
अतः सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में अखिल भारतीय स्तर पर दिशा-निर्देश जारी करेगा जिसका पालन हर राज्य को करना होगा। मगर न्यायालय ने यह भी साफ कर दिया कि किसी आपराधिक आरोपी या दोषी का मकान तब तक नहीं तोड़ा जा सकता जब तक कि स्थानीय निकाय शासन मसलन नगर पालिका या ग्राम पंचायत ने उसकी सम्पित्त अवैध होने का नोटिस न दिया हो और उस पर वििधवत आगे कार्रवाई न बढ़ी हो। न्यायमूर्ति गवई ने तो यहां तक कहा कि अगर किसी के मकान के ढहाये जाने के आदेश आ भी जाता है तो उसे न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाने का अधिकार होगा और अदालत एक महीने के भीतर स्थगन आदेश देने पर विचार करके फैसला देगी। अतः बहुत साफ है कि हमारा संविधान मानवता या इंसानियत को केन्द्र में रख कर ही बाबा साहेब अम्बेडकर ने लिखा। यही भारत के लोकतन्त्र की अजीम ताकत है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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