लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हो जाने के बाद अब उसके पड़ोसी राज्य झारखंड में भी जातीय जनगणना का रास्ता साफ हो गया है। राज्य के नए मुख्यमंत्री चम्पई सोरेन ने जातीय जनगणना कराने के आदेश कार्मिक विभाग के अधिकारियों को दे दिये हैं। बिहार के बाद झारखंड में भी राजनीतिक दलों ने जाति जनगणना के लिए दबाव बनाया हुआ था। इन राजनीतिक दलों का तर्क है कि बिहार की तरह झारखंड में भी साफ होना चाहिए कि राज्य में किस जाति के कितने लोग रहते हैं, उसी के आधार पर उनकी हिस्सेदारी तय होनी चाहिए। हाल ही में हेमंत सोरेन के नेेतृत्व वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा गठबंधन सरकार की ओर से पिछड़ा आयोग का गठन भी किया गया था। पिछड़ी जातियों को सरकारी सेवाओं में 14 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने का आग्रह भी किया गया था और इससे संबंधित विधेयक विधानसभा में पारित हो चुका है लेकिन यह मामला अभी तक लंबित है।
जिस देश या फिर एक इलाके की जनसंख्या को उसकी जाति के आधार पर गिना जाता है तो वह जाति के आधार पर जनगणना (census) उस कैटगरी में आती है। इसके जरिए जातियों की जानकारी इकट्ठी की जाती है। सरकार के अलावा अन्य संगठन इस जानकारी का उपयोग सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और कल्चरल नीतियों को बनाने और प्राथमिकताओं को निर्धारित करने के लिए करते हैं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत यह जानकारी भी ली जाती है कि किस जाति के लोग किस भाग में रहते हैं। इससे उन्हें इलाके के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक संदर्भ के बारे में भी जानकारी मिल जाती है।
लोकतंत्र में सरकारें प्रत्येक नागरिक को उसकी जरूरताें के अनुसार अधिकार देती हैं। गरीब और पिछड़े लोगों को अधिकार देना उन पर दया करना नहीं है बल्कि यह उनका हक है। भारतीय संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने की बात कही गई है। उसके मूल में भी यही सिद्धांत काम करता है कि अंतिम पायेदान पर बैठे व्यक्ति को भी उसका जायज हक मिल सके परंतु हर देश की सामाजिक संरचना एक समान नहीं होती। अमीर और गरीब का फासला तो हमेशा से ही रहा है लेकिन भारत में जातीय व्यवस्था की उत्पत्ति सांस्कृतिक द्वंद्वों का ही परिणाम कहा जा सकता है जिसने भारत में सामाजिक व राजनीतिक तंत्र को बहुत प्रभावित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में जातीय व्यवस्था की जड़ें बहुत गहरी हैं और इसने सामाजिक संरचना को ही अपने कब्जे में ले लिया है। जातिगत जनगणना को लेकर मतभेद रहे हैं।
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी। अंग्रेजों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया। आजादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया। तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं।
1980 के दशक में जाति पर आधारित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दल उभरे जिन्होंने ऊंची जाति के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ निचली जातियों को शिक्षा संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण देने का अभियान शुरू किया। 1979 में इस मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया गया था। वी.पी.सिंह सरकार ने जब 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का ऐलान किया तो उसके विरोध में हिंसक आंदोलन हुआ और छात्र सड़कों पर आकर आत्मदाह करने लगे थे। 2010 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जातिगत जनगणना करवाई लेकिन जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए। भारतीय जनता पार्टी को जातिगत जनगणना का विचार उसके सिद्धांत के विरुद्ध लगता हैै। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रैलियों में बार-बार कहते रहे हैं कि उनकी नजर में केवल दो प्रकार की ही जातियां हैं, अमीर और गरीब जाति लेकिन भारत में यह भी तथ्य है कि यहां अनुसूचित जाति के लोगों के साथ उनकी जन्मजात जाति के कारण दुर्व्यवहार किया जाता रहा है और उन्हें अछूत माना जा रहा है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जातिगत जनगणना से समाज की एकता तो भंग नहीं हो जाएगी। जातिगत जनगणना को लेकर राय अभी भी बंटी हुई है। एक डर यह है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े के आधार पर देशभर में आरक्षण की नई मांग तो नहीं उठनी शुरू हो जाएगी। बेहतर यही है कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए। फिलहाल क्षेत्रीय दलों के लिए यह मुद्दा राजनीतिक फायदा उठाने के लिए उठाया जा सकता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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