संपादकीय

जनगणना : फिर शुरू हुई बहस

भारत के महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त एम.के. नारायण की केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति 2026 तक बढ़ा दिए जाने से लम्बे समय से लम्बित जनगणना की कवायद को पूरा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

Aditya Chopra

भारत के महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त एम.के. नारायण की केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति 2026 तक बढ़ा दिए जाने से लम्बे समय से लम्बित जनगणना की कवायद को पूरा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। कोरोना महामारी ने वह किया जो द्वितीय विश्व युद्ध और चीन-पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध भी नहीं कर सका था। महामारी के चलते जनगणना चक्र को रोक दिया गया था जो 1881 के बाद से कभी भी नहीं रुका था। चार साल की देरी के बाद अब जनगणना अगले वर्ष 2025 में पूरी की जाएगी और इसके आंकड़े 2026 में आएंगे। जनगणना को जानकारी का खजाना कहा जाता है। जनगणना देश में साक्षरता दर, शिक्षा, आवास, घरेलू सुविधाओं, प्रवासन, शहरीकरण, प्रजनन क्षमता, मृत्युदर, भाषा, धर्म और विकलांगता से लेकर अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक और जनसांख्यिकीय डेटा जैसे उम्र, ​लिंग और वैवाहिक स्थिति का संग्रह करता है। यह देश के लोगों के डेटा का सबसे बड़ा भंडार होने के साथ-साथ गांव, कस्बे और वार्ड स्तरों पर प्राथमिक डेटा का स्रोत भी है। जनगणना को लेकर इस बार धर्म और वर्ग के साथ-साथ सम्प्रदाय भी बताना होगा लेकिन जाति जनगणना को लेकर चुप्पी साधे रखी गई है।

विपक्षी दलों और एनडीए के सहयोगी दलों ने भी जातिगत जनगणना की मांग की है। वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 की सरकार ने जाति जनगणना कराने का फैसला किया। 2011 में जनगणना के आंकड़े तो जुटाए गए लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। जातिगत जनगणना समर्थकों का कहना है कि सभी तबकों के विकास के लिए यह आवश्यक है। किस इलाके में किस जाति की कितनी संख्या है, जब यह पता चलेगा तभी उनके कल्याण के लिए ठीक ढंग से काम हो सकेगा। जाहिर है, जब किसी इलाके में एक खास जाति के होने का पता चलेगा तभी सियासी पार्टियां उसी हिसाब से मुद्दों और उम्मीदवारों के चयन से लेकर अपनी तमाम रणनीतियां बना सकेंगी। दूसरी तरफ सही संख्या पता चलने से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में उन्हें उचित प्रतिनि​िधत्व देने का रास्ता साफ हो सकेगा। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद अभी ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है।

जाति आधारित जनगणना के लिए बिहार विधान मंडल और फिर बाद में बिहार विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पहले ही पारित हो चुका है। महाराष्ट्र विधानसभा में भी केंद्र सरकार से जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग के प्रस्ताव को हरी झंडी मिल चुकी है। महाराष्ट्र, ओडिशा, बिहार और यूपी में कई राजनीतिक दलों की मांग है कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए। इस तरह केंद्र पर जातिगत जनगणना कराने को लेकर दबाव बनाने की कवायद चल रही है। दरअसल जातिगत जनगणना के आधार पर ही सियासी पार्टियों को अपना समीकरण और चुनावी रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। सभी पार्टियों की दिलचस्पी अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की सटीक आबादी जानने को लेकर है। अभी तक सियासी पार्टियां लोकसभा और विधानसभा सीटों पर केवल अनुमानों के आधार पर ही रणनीति बनाती रही हैं।

जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सरकारों का मानना है कि बाबा साहब अम्बेडकर ने और अन्य बड़े नेताओं ने जाति विहीन समाज का सपना देखा था। यह उसके खिलाफ है और जातिगत जनगणना सामाजिक सद्भाव बनाने के ​चल रहे प्रयासों को कमजोर करेगी। इससे आरक्षण का नया पिटारा भी खुल सकता है। फिलहाल इस मुद्दे पर बहस जारी है। जनगणना में सम्प्रदाय पूछे जाने के सवाल पर भी मतभेद है। माना जा रहा है कि इससे राजनीतिक तस्वीर भी बदल सकती है। जैसे मुस्लिमों में ही सुन्नी, शिया, अहमदी, बोहरा जैसे कई सम्प्रदाय आते हैं। इसी प्रकार हिंदू समाज में भी अलग-अलग गुरुओं को मानने के चलते सम्प्रदाय और मान्यताएं अलग हैं। ऐसे में सम्प्रदाय की जानकारी लेने से अलग ही डेटा आएगा और उससे जाति से परे ध्रुवीकरण की एक अलग संभावना बनेगी। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि जैसे महाराष्ट्र में दलित बौद्ध प्रभावी हैं और राजस्थान एवं हरियाणा जैसे राज्यों में बिश्नोई सम्प्रदाय का असर है। इसी तरह कई अन्य राज्यों में भी डेरे, संगत, गुरु परम्परा आदि के आधार पर सम्प्रदाय हैं।

यह भी माना जा रहा है कि सम्प्रदाय पूछने की पहल विपक्ष की जा​ितगत जनगणना की मांग की काट भी बन सकती है। फिलहाल जातिगत जनगणना के मुद्दे पर बहस जारी है। अगले वर्ष होने वाली जनगणना के बाद लोकसभा सीटों के परिसीमन का मार्ग भी साफ हो गया है। हो सकता है कि 2026 की जनगणना के आधार पर 2029 में ही लोकसभा सीटें बढ़ाई जा सकती हैं। परिसीमन के सवाल पर दक्षिण के राज्य काफी बेचैन हैं। दक्षिणी राज्यों में जनसंख्या में बढ़ौतरी कम हुई है, जबकि उत्तर के राज्यों में जनसंख्या बढ़ौतरी दक्षिण की तुलना में ज्यादा है। इस तरह जनसंख्या के आधार पर उत्तर के राज्यों में सीटें बढ़ेंगी और दक्षिण के राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व कम हो सकता है। एेसे में केन्द्र को कोई अनुपातिक फार्मूला निकालना होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com