Challenge of forming a new government: लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद अब देश में नई सरकार बनने की कवायद शुरू हो गई है। भारत की जनता ने इन चुनावों में किसी भी राजनैतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं दिया है अतः विभिन्न राजनैतिक दलों के गठबन्धन की सरकार बनना ही तय है। 543 के सीधे चुने हुए लोकसभा सदन में भाजपा को 239 सीटें व कांग्रेस को 100 सीटें मिली हैं। इस प्रकार ये दो दल ही सबसे बड़े दल हैं। जाहिर है कि इनमें से किसी एक के नेतृत्व में ही नई सरकार का गठन होगा मगर चुनाव पूर्व गठबन्धन को लें तो भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबन्धन को 292 सीटें व कांग्रेस समाहित गठबन्धन को 232 सीटें मिली हैं। अतः एनडीए सरकार बनाने का दावा ठोक सकता है परन्तु इसकी सरकार बनने से पहले कई पेंच हैं। भाजपा अपने सहयोगी दलों पर निर्भर पार्टी है क्योंकि इन्हीं के सहारे वह बहुमत का दावा कर सकती है अतः इन सहयोगी दलों को सन्तुष्ट करना उसकी पहली जिम्मेदारी होगी। पहले तो यह देखा जायेगा कि सहयोगी दल सरकार में शामिल होना पसन्द करेंगे या बाहर से ही समर्थन देकर सरकार चलाना पसन्द करेंगे।
गठबन्धन सरकारें बाहर से प्राप्त समर्थन के सहारे भी चलती रही हैं और हर सहयोगी दल को सरकार में शरीक करके भी चलती रही हैं। नई सरकार बनने के रास्ते में सर्वप्रथम अवरोध लोकसभा अध्यक्ष का पद आता है। इस पद पर सत्तारूढ़ पक्ष के सर्वसम्मति से किसी सांसद को बैठाने की परंपरा रही है। गठबन्धन सरकार को चलाने के लिए इस पद को लेकर सबसे ज्यादा खींचतान होती है क्योंकि इस पद पर बैठा व्यक्ति लोकसभा के सदस्यों के अधिकारों का संरक्षक होता है। ये अधिकार प्रत्येक राजनैतिक दल के सदस्यों के बराबर होते हैं। इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष का भेदभाव संविधानतः नहीं होता है परन्तु हमने पिछली लोकसभा में देखा कि किस प्रकार अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति ने असन्तुलित व्यवहार किया और विपक्ष के डेढ़ सौ के लगभग सदस्यों को सदन से निलम्बित तक कर दिया। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा कि पूरी 17वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया और उपाध्यक्ष पद पर परंपरानुसार विपक्ष का कोई सदस्य नहीं बैठाया गया।
लोकतन्त्र लोकलज्जा से चलता है और पूरे तन्त्र की मर्यादा स्थापित करना लोकसभा का ही काम होता है। लोकसभा अध्यक्ष की इस मामले में भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है परन्तु 17वीं लोकसभा में जो कुछ भी हुआ उसे एक नजीर न मानकर अपवाद ही समझा जायेगा। क्योंकि इससे संसदीय लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा पर सवालिया निशान खड़े हुए। अब वर्तमान लोकसभा में भाजपा यदि सरकार बनाने का प्रयास करती है तो उसे अपने सबसे बड़े सहयोगी दल आन्ध्र प्रदेश की तेलगूदेशम पार्टी के नेता श्री चन्द्रबाबू नायडू को विश्वास में लेना होगा जिसके 16 सांसद जीत कर आये हैं। इसके बाद बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू) के 12 सदस्य विजयी रहे हैं। इन दोनों का आंकड़ा ही 28 बनता है। अभी तक जो खबरें मिल रही हैं उनके अनुसार श्री नायडू एनडीए सरकार की रास अपने हाथ में इस प्रकार रखना चाहेंगे कि संसद पहुंचे हर सदस्य के अधिकारों का भलीभांति संरक्षण हो सके। चन्द्रबाबू नायडू एेसे राजनेता हैं जिन्हें गठबन्धन बनाने से लेकर उसकी सरकार चलवाने तक का लम्बा अनुभव प्राप्त है। जाहिर है कि वह आन्ध्र प्रदेश में मुख्यमन्त्री का पद संभालेंगे क्योंकि उनकी पार्टी ने वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगनमोहन रेड्डी को सत्ता से बेदखल कर दिया है परन्तु वह दिल्ली की राजनीति को भी अपने कब्जे से बाहर नहीं होने देंगे और इस प्रकार नहीं जाने देंगे कि भाजपा नीत सरकार के हर सहयोगी क्षेत्रीय दल के हित सुरक्षित रहें। इस काम में उन्हें नीतीश बाबू का समर्थन बिना शर्त मिलेगा क्योंकि बिहार में अपनी पार्टी के जनाधार को भाजपा द्वारा निशाना बनाये जाने का खतरा उन्हें बहुत समय से साल रहा है।
लोकसभा अध्यक्ष ही किसी भी पार्टी के सांसदों द्वारा दल बदलने या अलग से दल बनाये जाने के मामले में अन्तिम न्यायाधीश होता है। हालांकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है परन्तु एेसे मामलों में क्षेत्रीय दलों का अनुभव बहुत कड़वा रहा है। इसी वजह से हम आज दो-दो शिवसेनाएं व राष्ट्रवादी कांग्रेस देख रहे हैं। अतः चन्द्रबाबू नायडू लोगों द्वारा दिये गये जनादेश से उपजे इस स्वर्ण अवसर को अपने हाथ से गंवा देना उचित नहीं समझेंगे और लोकसभा अध्यक्ष पद सहयोगी दलों को दिये जाने की शतरंज बिछायेंगे। इस शतरंजबाजी में भाजपा के सभी सहयोगी दल उनके साथ होंगे क्योंकि केवल पांच दलों को छोड़ कर भाजपा के एक दर्जन एेसे सहयोगी दल हैं जिनके केवल एक-एक सांसद ही जीत कर आये हैं। अतः नई लोकसभा में हम इन सभी सहयोगी दलों का एक अलग गुट बनता भी देख सकते हैं।
राजनीति संभावनाओं का खेल ही होती है और इसमें कुछ भी असभव नहीं होता है। जहां तक कांग्रेस समाहित इंडिया गठबन्धन का सवाल है तो इसमें शरद पवार और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे खेले-खाये राजनीतिज्ञों की भरमार है। वे पहले एनडीए में चल रहे खेल का नजारा कर सकते हैं और बाद में अपने पत्ते खोल सकते हैं। सहयोगी दलों को सरकार बनाने की जल्दी भी नहीं है क्योंकि वे नई सरकार के गठन से पहले अपने हितों की सुरक्षा के लिए जरूरी उपाय इस तरह करना चाहेंगे कि उनके अस्तित्व को किसी प्रकार का खतरा न रहे।