संपादकीय

‘ एनडीए और ‘इंडिया’ का चतुरंगी चुनावी युद्ध

देश के विभिन्न 28 राजनैतिक दल जिस तरह सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के खिलाफ ‘इंडिया’ के रूप में मुम्बई में लामबन्द हुए हैं उससे यह तय लगता है कि 2024 का लोकसभा चुनाव संग्राम भीषण होगा।

Aditya Chopra
देश के विभिन्न 28 राजनैतिक दल जिस तरह सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के खिलाफ 'इंडिया' के रूप में मुम्बई में लामबन्द हुए हैं उससे यह तय लगता है कि 2024 का लोकसभा चुनाव संग्राम भीषण होगा। इन सभी दलों ने अपनी 14 सदस्यीय  उच्च स्तरीय समन्वय समिति बना कर आगे की ऱणनीति बनाने की जो योजना बनाई है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इन दलों के बीच के वैचारिक मतभेद चुनावी युद्ध में आड़े नहीं आयेंगे और ये भाजपा के विरुद्ध समेकित नीतियों पर चलेंगे। लोकतन्त्र में मजबूत विपक्ष का होना भी बहुत जरूरी होता है अतः इन दलों की एकता कोई अजूबा नहीं कही जा सकती। पूर्व में भी भारत के चुनावी इतिहास में इस प्रकार के महागठबन्धन और गठजोड़ बनते रहे हैं जिनमें एक जमाने में सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ आज की सत्ताधारी भाजपा पार्टी भी खुद शामिल होती रही है परन्तु राजनीति के चरित्र और तेवरों में जो परिवर्तन पिछले कुछ दशकों से आया है उसे देखते हुए इतना जरूर कहा जा सकता है कि अब गठबन्धन 'विचारधारा' मूलक न होकर 'सत्ता मूलक' बनने लगे हैं। मगर लोकतन्त्र में ऐसे गठबन्धनों को भी नाजायज नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि जब किसी एक पार्टी का वजन बहुत बढ़ जाता है तो उसे बराबर करने के लिए सभी तरह के छोटे-छोटे बट्टे (राजनैतिक दल) तराजू के दूसरे पलड़े में चढ़ा दिये जाते हैं। दरअसल इसकी शुरूआत 90 के दशक में ही भाजपा के नेतृत्व में गठित एनडीए गठबन्धन से हुई थी जिसमें स्व. रामविलास पासवान से लेकर स्व. एम. करुणानिधी की पार्टी द्रमुक तक स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में एक मंच पर आ गई थीं।
आज कांग्रेस पार्टी भी भाजपा के खिलाफ यही रणनीति अपना रही है और बिना अपना नेतृत्व दिये सभी दलों को भाजपा के खिलाफ लामबन्द कर रही है। इस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी का यह कहना पूरी तरह सही है कि देश की जनता के 60 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन 'इंडिया' दलों के साथ है। भारत की राजनीति में यह कोई नई बात इसलिए नहीं है क्योंकि यहां की चुनाव प्रणाली में हार-जीत वैयक्तिक आधार पर होती है। अर्थात यदि किसी सीट पर दस प्रत्याशी खड़े हैं तो सबसे ज्यादा वोट पाने वाला प्रत्याशी जीत जायेगा चाहे बाकी नौ प्रत्याशियों को उससे बहुत ज्यादा वोट ही क्यों न मिले हों। 1967 के दौर में ठीक ऐसी ही स्थिति कांग्रेस की थी जैसी आज भाजपा की है। इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को 37.8 प्रतिशत के लगभग मत मिले थे मगर तब की लोकसभा में इसे पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था जो कि तकरीबन 18 सांसदों का था। तब गैर कांग्रेसवाद का नारा इसी तरह गूंजा था जिस प्रकार आज गैर भाजपावाद का गूंज रहा है। मगर वर्तमान राजनीति की चुनौतियां निश्चित रूप से वे नहीं हैं जो 1967 में थीं।
आज की राजनीति के तेवर बहुत तल्ख हो चुके हैं वैचारिक आलोचना का स्थान व्यक्तिगत आलोचना ने ले लिया है और सभ्य भाषा का स्थान सड़क छाप बोली ने ले लिया है। प्रचार के माध्यम और तरीके पूरी तरह बदल चुके हैं। ये परिवर्तन मतदाताओं के दिमाग पर भी असर डाल रहे हैं जिसकी वजह से वैचारिक विमर्श सिकुड़ता जा रहा है। मगर इस सबके बावजूद भारतीय मतदाता को विश्व के सबसे सजग मतदाता के रूप में जाना जाता है वह भावुक तो होता है मगर चुनावी मैदान में 'पर दुखे-परं सुखे' से भी दूर होना जानता है और मानवीय संवेदनाओं का जबर्दस्त हामी भी बन जाता है। वह 'धर्म प्राण' भी है मगर जहां 'धर्म त्राण' का अस्त्र चलता है तो वह उसे कुन्द करना भी जानता है। ये सभी विशेषताएं भारत की संस्कृति में हैं जिनके अनुसार भारतीय मतदाता समय-समय पर अलग-अलग चुनावों में हमें व्यवहार करता नजर आता है। ऐसा करके मतदात राजनैतिक दलों को यही सन्देश देता है कि वे कभी भी उसे अपना दास न समझें क्योंकि लोकतन्त्र का असली मालिक वही है। उसे यह मालिकाना हक अंग्रेजों को भारत से निकाल कर 'गांधी बाबा' देकर गये हैं और वह इस हक के आगे किसी भी हक को बड़ा नहीं मानता है।
दरअसल चुनाव मतदाता के इसी हक की लड़ाई होते हैं जिसकी एवज में वह पांच साल के लिए अपने कुछ नौकरों का चुनाव करता है और उन्हें राष्ट्र की सम्पत्ति का संरक्षक नियुक्त करता है क्योंकि मालिकाना हक उसके पास ही होते हैं। इन्ही संरक्षकों से वह पांच साल बाद पूरा हिसाब-किताब लेता है और मेहनत के अनुसार मजदूरी दे देता है। अतः विपक्षी गठबन्धन 'इंडिया' और सत्तारूढ़ गठबन्धन 'एनडीए' के बीच मतदाताओं से यही मजदूरी पाने की लड़ाई होगी। इसी वजह से दोनों गठबन्धन अपने-अपने विमर्श खड़े करेंगे और मतदाताओं को समझायेंगे कि उनकी मेहनत कम-ज्यादा क्यों रही है। भारत का असली लोकतन्त्र तो यही है जिसमे जनता के सामने विकल्प खड़े किये जाते हैं। अतः लोकतन्त्र में कभी भी जनता को दोष नहीं दिया जाता। अतः इंडिया की 14 सदस्यीय समन्वय समिति को यह ध्यान रखना होगा कि आम लोगों के मुद्दे क्या हैं और उनकी अपेक्षाएं क्या हैं। भारत को एक लोक कल्याणकारी राज का सपना देने वाले गांधी के रास्ते पर चल कर ही इसे पाया जा सकता है अथवा नया बाजारवाद इसका विकल्प हो सकता है?