संपादकीय

शहीद गाथाओं का महीना है दिसंबर

Shera Rajput

पिछले अनेक वर्षों की तरह इस वर्ष भी दिसंबर का अर्थ अपने देश में, सरकारों में, समाज में और भारत से इंडिया बनते जा रहे समृृद्ध वर्ग में केवल इतना ही है कि नववर्ष के स्वागत की तैयारियां करो। नववर्ष भी वह जो भारतीय संस्कृृति के अनुसार सूर्य की पहली किरण के साथ नहीं, अपितु आधी रात के अंधेरों में मनाया जा रहा है। श्री जयशंकर प्रसाद के अनुसार अंधकार में दौड़ लग रही, मतवाला यह सब समाज है। अब दौड़ भी अंधकार में लगती है और एक बहुत बड़ा वर्ग शराब के नशे में मतवाला भी हो जाता है। मेरा प्रश्न देश से, सरकार से, समाज से यह है कि क्या दिसंबर का एक ही महत्व है कि पिछले वर्ष से नए वर्ष में जाने की तैयारी। यह वर्ष तो वैसे भी ब्रिटिश दासता का एक ऐसा नासूर है जिसे हम मिटाते नहीं, बल्कि पाल-पोस कर बढ़ा रहे हैं।
सच्चाई यह है कि दिसंबर में हमारे पास मनाने को बहुत कुछ है। याद करने को भी बहुत कुछ है। वास्तविकता तो यह है कि दिसंबर मास में भारत के इतने बेटे-बेटियां शहीद हुए अगर उनको ही याद करते रहें तो हर दिन अनेक शहीदों का बलिदान दिन या विशेष उल्लेखनीय कर्म का दिन है, पर याद कौन करेगा? दिसंबर के इसी सप्ताह में हम श्री गोबिंद सिंह जी के बलिदानी बच्चों को याद कर रहे हैं, प्रणाम कर रहे हैं। पूरी दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं जहां सात और नौ वर्ष के बच्चे अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए दीवारों में चिनवा दिए गए हों। जिन्होंने ललकार कर कह दिया हो कि वे कभी मुसलमान नहीं बनेंगे और सतश्री अकाल कहते हुए बलि पथ पर बढ़ गए।
इन दिनों याद हम शहीद बलिदानी मोतीलाल मेहरा को भी करेंगे जो गुरु जी के बलिदानी परिवार को दूध पिलाने के कारण मुसलमानों की दृष्टि में अपराधी हुआ और सपरिवार कोल्हू में पीस दिया गया। ऐसे महापुरुषों को बलिदानियों को याद करके ही हम स्वतंत्र रह सकते हैं। देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा कर सकते हैं।
इसे हम दुर्भाग्य कहें या विडंबना कि आजादी के बाद उनको पूरी तरह भुला दिया जिन्होंने स्वतंत्रता हित असंख्य यातनाएं सहते हुए आजादी दी। क्या देश यह याद न करता कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए मेघालय के एक गांव में पैदा हुआ नौजवान थोग्गन नेग मइया संगमा बड़ी वीरता से, नेतृत्व कुशलता से अपने आसपास के ग्रामीण युवकों को एकत्रित कर अंग्रेजों के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया। वर्षों तक उसने अंग्रेजों को चने चबवाए। उसे काबू करने के लिए अंग्रेज सेना ने एक साथ तीन ओर से हमला किया।
स्वतंत्र भारत की यह विडंबना है कि किसी इतिहासकार ने, सरकार ने, चिंतक ने यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि ये दो भारत पुत्रियां काले पानी की जेल से मुक्त होने के बाद जिंदा वापस आईं या वहीं शहीद हो गईं। अगर जिंदा आईं तो कहां गईं? पर भारत के लिए दिसंबर माह तो त्यौहार होना चाहिए। क्या यह उन शहीदों से कम है जो फांसी के फंदे पर झूल गए और न ही ये रानी झांसी और उसकी मुंहबोली बहन मैना से कम है। काश! कथा कहानियों में इन्हें कोई स्थान मिल पाता तो ये हर बालक-बालिका का कंठहार हो जातीं।
23 दिसंबर 1912 भी तो देश के लिए गौरव का दिन है जब बंगाल से अंग्रेजों ने दिल्ली दरबार बनाने के लिए दिल्ली में प्रवेश किया तो दिल्ली के दिल चांदनी चौक में एक जबरदस्त बम धमाका हुआ। अफसोस सत्ता मद में मस्त हाथी पर सवार लाॅर्ड हार्डिंग घायल होकर बच गया, लेकिन महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस के नेतृत्व में भारत के वीर पुत्रों ने अपने संकल्प बल से विदेशी शासकों का यथायोग्य स्वागत किया। इस बमकांड के बाद गिरफ्तारियां तो होनी ही थीं, इसमें भाई बाल मुकुंद, श्री अवध बिहारी, अमीर चंद, बसंत कुमार आदि क्रांतिकारी पकड़े गए। अदालतों में न्याय का नाटक हुआ और ये सभी भारत माता की जय कहते हुए फांसी के फंदे पर लटका दिए गए। क्या दिल्ली वाले और देश की राजधानी में शासन करने वाले 23 दिसंबर को इन शहीदों की स्मृति में किसी मेले का आयोजन करेंगे? क्या इन भूले-बिसरे शहीदों से देश को परिचित करवाएंगे? उन्हें याद ही नहीं रहेगा बड़ा दिन तो 25 दिसंबर है। वे देश पर गुलामी के बल पर थोपे गए बड़ा दिन मनाने की तैयारी में व्यस्त रहेंगे। 24 दिसम्बर, 1930 को बंगाल की वीर बेटियां शांति घोष और सुनीति चौधरी ने त्रिपुरा जिले का मजिस्ट्रेट स्टीवंसन जो भारतीय पर अत्याचार करने के लिए जाना जाता था को 5-5 गोलियां मारकर उसका काम तमाम कर दिया। मात्र 13-14 साल की अल्पआयु में ही ऐसा देशभक्ति का काम कर इतिहास में अपने लिए स्वर्णिम अक्षर सुरक्षित कर लिए।
दिसंबर के गर्भ में गौरवशाली कहानियों का भंडार है। एक काकोरी कांड हुआ था जिसने अंग्रेज सरकार को हिलाकर रख दिया। इसके लिए गिरफ्तार हुए रामप्रसाद बिस्मिल, वीर अशफाक उल्ला, शहीद राजिंदर लाहिड़ी, रोशन तथा अन्य कई साथी किसी ने माफी नहीं मांगी, न पश्चाताप किया। डटकर यह कहा कि वे भाग्यशाली हैं उन्होंने भारत देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया। इन वीरों में से 17 दिसंबर 1927 को राजिंदर लाहिड़ी फांसी पर चढ़ाए गए। गीता हाथ में लेकर वह फांसी के फंदे की ओर बढ़े। 19 दिसंबर को रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर की जेल में शहादत पाए गए और 19 दिसंबर को ही अशफाक उल्ला ने फांसी का फंदा चूमा। उसने कहा- कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह रख दे कोई जरा सी खाक-ए-वतन कफन में। यह भी कहा -मेरी खुशकिस्मती है कि मुझे वतनपरस्ती का आलातरीन इनाम मिला। मुझे फख्र है मैं पहला मुसलमान हूं, जो भारत की आजादी के लिए फांसी पा रहा हूं। सामाजिक क्रांति के प्रणेता स्वामी श्रद्धानंद दिल्ली में एक शैतान की गोलियों का शिकार होकर शहीद हो गए। भारतवासी हर दिन शहादत के गीत गाएं तो भी कम, पर दिसंबर विशेषकर इसलिए उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की गुलामी द्वारा दिए जश्नों को मनाने में देश मस्त है।
क्या भारत सरकार का दूरदर्शन हर रोज एक शहीद की गाथा देशवासियों को नहीं सुना सकता? सैकड़ों टीवी चैनल क्या अपना दायित्व राष्ट्र के लिए पूरा नहीं करेंगे? यह समाचार तो आ रहे हैं कि कुछ नगरों-महानगरों में 31 दिसंबर की रात को क्लब खुले रहेंगे, ताकि लोग मांस मदिरा, शराब का सेवन करते हुए श्लील, अश्लील ढंग से अंग्रेजों के नए साल का स्वागत कर सकें, पर बलिदानी वीरों की गाथाओं को सुनने, सुनाने का कोई जश्न नहीं होगा।

– लक्ष्मीकांता चावला