भारत में राजनीति का स्तर जितना गिरता जा रहा है वह लोकतन्त्र के लिए बहुत ही चिन्ता की बात है। इसमें भी राजनीतिज्ञों की भाषा व सार्वजनिक विमर्श में जिस तरह की गिरावट आ रही है उससे लोकतन्त्र की वह भावना आहत होती है जिसमें परस्पर विरोधी विचारों के उन्मुक्त रूप से व्यक्त करने की संभावना सर्वदा समाहित रहती है। हम इसका मूल कारण ढूंढे तो हम पायेंगे कि राजनीति में जिस तरह सत्ता के लिए ही सिद्धान्तों को बलि चढ़ाया जा रहा है, यह सब उसी का परिणाम है। एक तरफ सत्ताधारी पार्टी भाजपा को केवल हर बात में हिन्दू-मुसलमान नजर आता है तो दूसरी तरफ विपक्षी दल को इसकी काट में जातिगत जनगणना नजर आती है। यह राजनीति का एेसा सुविधापरक स्वरूप है जिसमें वैचारिक पक्ष स्वयं गौण हो जाता है। मगर इसकी शुरूआत भारत में क्यों हुई और कैसे हुई, यह जानना भी बहुत जरूरी है। देश में जब 1999 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 24 दलों से भी ज्यादा की भाजपा नीत एनडीए सरकार गठित हुई तो वैचारिक व सैद्धान्तिक स्तर पर राजनैतिक दलों के तालमेल का कोई मतलब नहीं रह गया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण था कि दक्षिण की द्रमुक पार्टी इस गठबन्धन का हिस्सा बनी और स्व. राम विलास पासवान भी इस एनडीए का हिस्सा बने।
पासवान उत्तर भारत के एेसे नेता थे जिन्होंने दलित संघर्ष व दलितोत्थान के नाम पर अपनी पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी की नींव रखी थी। वह जीवनभर भाजपा व जनसंघ की नीतियों की आलोचना करते रहे मगर सत्ता के समीकरण बनते देख इस पार्टी के साथ आकर मिल गये। यही स्थिति दक्षिण की द्रमुक पार्टी की भी थी। यह पार्टी भी संघ व भाजपा की नीतियों व सिद्धान्तों की कट्टर आलोचक रही मगर सत्ता के लिए भाजपा से हाथ मिलाने को तैयार हो गई। शायद यही वजह थी कि जब 2001 के लगभग वाजपेयी सरकार में गृहमन्त्री श्री लाल कृष्ण अडवानी उत्तर-पूर्व के राज्यों के दौरे पर गये तो उन्होंने नागालैंड जाकर नारा दिया कि भारत में सत्ता के हिसाब से राजनैतिक गठबन्धन करने का दौर आ चुका है। इसका मतलब साफ था कि उत्तर-पूर्व की क्षेत्रीय पार्टियां अब अपने सैद्धान्तिक राग को छोड़कर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ हाथ मिलाकर राज्यों में निर्बाध रूप से राज करें।
श्री अडवानी की यह पहल कामयाब हुई और इसके बाद ही उत्तर-पूर्व की कांग्रेस के समीप समझी जानी वाली पार्टियों ने भाजपा से हाथ मिलाना शुरू किया। परन्तु जब राजनीति सैद्धान्तिक पक्ष से गिरती है तो इसमें और भी बुराइयां आने लगती हैं जिनका मुजाहिरा आजकल हम देख रहे हैं। विपक्षी दल लगातार चिल्ला रहे हैं कि देश की जांच एजेंसियों ने सत्तारूढ़ पार्टी के साथ गठबन्धन कर लिया है और वे एन चुनाव के मौके पर विपक्षी नेताओं पर निशाने साधती हैं। इस सन्दर्भ में हमें महाराष्ट्र में हो रहे चुनावों का संज्ञान लेना पड़ेगा। इस राज्य के विपक्ष के सबसे बड़े नेता व राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष श्री शरद पंवार ने कहा है कि उनके परिवार व निकट के लोगों पर जांच एजेंसियों ने जैसे धावा बोल रखा है। उनका कहना है कि केन्द्र सरकार जांच एजैंसियों का अपने राजनैतिक फायदे के लिए गलत इस्तेमाल कर रही है। श्री पंवार के अनुसार जब उनकी पुत्री व सांसद श्रीमती सुप्रिया सुले ने सरकार पर आक्रमण किया तो उनके पति को आयकर विभाग ने जांच के घेरे में ले लिया और मेरे भाई की पुत्री के घर छापों की शुरूआत हो गई। इसी प्रकार का वातावरण दूसरे चुनावी राज्य झारखंड में भी बना हुआ है। यहां के मुख्यमन्त्री हेमन्त सोरेन भाजपा विरोधी गठबन्धन के हैं। उनके करीबियों के घर भी आयकर के छापे पड़ रहे हैं। मगर यह नई बात नहीं है क्योंकि केन्द्र में जब डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार थी तो एेसे ही आरोप भाजपा मनमोहन सरकार पर भी लगाती थी। उस समय विपक्ष के नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी ने तो संसद में ही यहां तक कहा था कि इस सरकार की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी सीबीआई है जो कुछ विपक्षी दलों को अपने खेमे में रखने के लिए उन पर दबाव बनाती रहती है।
बाद में मनमोहन सिंह के ही दूसरे कार्यकाल में ही सीबीआई को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत तल्ख टिप्पणियां की थीं और इसे पिंजरे का तोता तक बताया था। कहने का मतलब यह है कि ये सब परिणाम राजनीति में सिद्धान्तवाद के हांशिये पर जाने से ही मिलते हैं। बेशक 1967 में समाजवादी विचारक डा. राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद के चलते कम्युनिस्टों व जनसंघ को भी एक मंच पर लाने का प्रयास केवल इसलिए किया था जिससे कांग्रेस का यह दावा निरस्त हो सके कि केवल वही इस देश को शासन दे सकती है। डा. लोहिया सिद्ध करना चाहते थे कि लोकतन्त्र में जो भी राजनैतिक दल जनता के बीच जाता है उसमें प्रशासन देने की क्षमता होती है। इसी वजह से उन्होंने 1967 में भारत के नौ राज्यों मे संयुक्त विधायक दल सरकारों का प्रयोग किया था मगर यह प्रयोग असफल रहा था। इसलिए राजनीति में सैद्धान्तिक व वैचारिक पक्ष का जन विमर्श में उतरना बहुत जरूरी होता है जिससे राजनीति में खास कर लोकतन्त्र में शुचिता कायम रह सके।