पाकिस्तान के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जो भविष्यवाणी की थी वह सही साबित हो रही है क्योंकि मजहब के नाम पर तामीर इस मुल्क में इस्लाम मानने वाले लोगों के बीच ही तलवारें खिंची हुई हैं। दरअसल 76 साल पहले वजूद में आने वाला पाकिस्तान सिवाये मजहबी जुनून फैलाने के अलावा अपने नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर पाया है। लगातार भारत विरोध को इसने अपने वजूद की शर्त बना लिया है। इसके बावजूद भारत की हमेशा यह कोशिश रही है कि अपने पड़ौसी से सम्बन्ध खुशगंवार रखे जाये मगर जब भी भारत ने पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया इसे धोखा ही मिला। मगर इसके साथ यह भी हकीकत है कि जब तक आजाद हिन्दुस्तान के प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू रहे तब तक पाकिस्तान ने आंखें तरेरने की हिम्मत नहीं की। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि पंडित नेहरू की शख्सियत बहुत बुलन्द थी औऱ अन्तर्राष्ट्रीय जगत में उनका रुतबा शान्तिदूत का था।
कुछ लोगों को आज हैरत हो सकती है कि यदि 27 मई 1964 को नेहरू जी की मृत्यु न होती तो कश्मीर की समस्या का हल निकल आता। इसके पीछे एेतिहासिक दस्तावेज ये हैं कि 1964 में ही कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला को नेहरू जी ने जेल से रिहा किया और उन्हें पाकिस्तान जाने की इजाजत दी। शेख अब्दुल्ला का पाकिस्तान के तत्कालीन हुक्मरान जनरल अयूब ने शानदार स्वागत किया और तवक्कों रखी कि वे पाकिस्तान के हक की बात भारत जाकर करें मगर शेख साहब ने जनरल अयूब को टका सा जवाब दिया और साफ किया कि वह कश्मीरी होने के बावजूद एक भारतीय नागरिक हैं।
जनरल अयूब शेख साहब पर डोरे डाल रहे थे मगर शेख साहब काबू में नहीं आ पा रहे थे। उन्होंने पं. नेहरू का यह सन्देश दिया कि कश्मीर की समस्या को अब हल किया जाना चाहिए। इसके लिए शेख साहब ने जनरल अयूब को भारत का दौरा करने की सलाह दी। इससे पहले 1963 में पं नेहरू पाकिस्तान की राजकीय यात्रा पर जा चुके थे। उनकी यह यात्रा सप्ताह भर की थी। पं. नेहरू को जनरल अय़ूब ने अपने देश की भविष्य की नई राजधानी इस्लामाबाद का नक्शा भी दिखाया था। शेख साहब अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाक द्वारा कब्जाये गये पाक अधिकृत कश्मीर भी गये। 27 मई को शेख अब्दुल्ला इसी इलाके के शहर मुजफ्फराबाद में एक जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे तो इसी वक्त संदेश मिला की नेहरू जी का इन्तकाल हो गया है। शेख साहब ने अपनी तकरीर तभी बन्द कर दी। इससे पहले वह लोगों को समझा रहे थे कि कश्मीर समस्या का हल जल्दी ही निकलने वाला है। जनरल अय़ूब जल्दी ही नई दिल्ली जाकर इस मसले पर पं. नेहरू से बातचीत करेंगे और यह भी हकीकत है कि जनरल अयूब ने भारत यात्रा का कार्यक्रम भी लगभग तैयार कर लिया था। अयूब जुलाई महीने तक भारत की यात्रा पर आते मगर मई में ही पं. नेहरू चल बसे।
शेख अब्दुल्ला का पाकिस्तान दौरा भारत के नजरिये से बहुत सफल दौरा रहा था क्योंकि जब शेख साहब ने लाहौर छोड़ा और कश्मीर का रुख किया तो जनरल अयूब ने कहा कि शेख पं. नेहरू का गुर्गा है। उनका यह बयान बहुत खीज भरा था क्योंकि जनरल अयूब और उनकी सरकार का कोई भी जादू शेख साहब पर नहीं चल सका था। कश्मीर समस्या के हल को लेकर पं. नेहरू की क्या योजना थी और क्या शर्त थी यह सब भूतकाल के गर्भ में ही रह गया। मगर 1965 में जनरल अय़ूब ने भारत के जम्मू-कश्मीर के इलाके में अचानक ही युद्ध छेड़ दिया।
पं. नेहरू के बाद देश के प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री बने। उनकी छवि एक सीधे-सादे राजनीतिज्ञ की थी। अयूब की पीठ पर अमेरिका का हाथ था। पाकिस्तान उसी से लिए फौजी साजो-सामान पर अकड़ रहा था। इससे पहले 1962 में भारत चीन से युद्ध हार चुका था और पाकिस्तान ने 1963 में चीन को पाक अधिकृत कश्मीर का काराकोरम घाटी का पांच हजार वर्ग किलोमीटर इलाका सौगात में देकर उसके साथ नया सीमा समझौता कर लिया था। इस युद्ध में भारत जीता मगर इसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट होने की तरफ थी। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो भारत के पास मुश्किल से दो सप्ताह की आयात जरूरतें पूरी करने लायक विदेशी मुद्रा भंडार था। जिसकी वजह से इन्दिरा जी को पहली बार डालर के मुकाबले रुपये का अवमूल्य़न करना पड़ा। तब डालर की कीमत चार रु. से बढ़ कर सात रु. हो गई थी। यही वह खतरनाक मोड़ था जब भारत-पाकिस्तान के रिश्ते बहुत कड़वे हो गये और दोनों देशों के बीच नागरिकों के आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हुए। इसके बाद से भारत औऱ पाकिस्तान के रिश्ते लगातार कड़वे होते चले गये। बंगलादेश बनने का इतिहास हम जानते ही हैं कि किस तरह भारत की फौजों ने बंगलादेश की राजधानी ढाका में पाकिस्तान के 90 हजार से अधिक सैनिकों का आत्मसमर्पण कराया था।
ताजा इतिहास में कारगिल युद्ध हुआ जिसमें विजय अन्ततः भारत की ही हुई। भारत के विदेश मन्त्री श्री एस. जयशंकर हाल ही में पाकिस्तान की दो दिवसीय यात्रा कर लौटे हैं। उनकी यह यात्रा शंघाई सहयोग संगठन का सम्मेलन होने की वजह से थी। जयशंकर ने पाकिस्तानी नेताओं से अलग से बातचीत नहीं की और अपने उद्बोधन में पाक की आतंकवादी गतिविधियों व चीन की विस्तारवादी नीतियों का खुले तौर पर विरोध किया। उनका इस्लामाबाद जाना पाकिस्तान को इसलिए पसन्द आय़ा क्योंकि पिछले लगभग छह साल से एक भी भारतीय नेता पाकिस्तान यात्रा पर नहीं गया है। उनकी इस यात्रा को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ एक बेहतर शुरुआत बता रहे हैं और फरमा रहे हैं कि दोनों देशों के रहनुमाओं के बीच भी बातचीत होनी चाहिए क्योंकि बात से ही बात आगे बढ़ती है लेकिन नवाज शरीफ साहब को याद रखना चाहिए कि जब 1999 में वह प्रधानमन्त्री थे तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने बस से लाहौर की यात्रा की थी और उन्होंने खुद ही स्व. वाजपेयी की प्रशंसा में कसीदे काढ़े थे। मगर वाजपेयी जी के लौटते ही पाकिस्तान ने कारगिल युद्ध शुरू कर दिया।
वर्तमान समय में भारत कह रहा है कि बातचीत तभी शुरू हो सकती है जब पाकिस्तान आतंकवाद को पनाह देने की नीति खत्म कर दे। बेशक समस्याओं का हल बातचीत से ही निकलता है मगर इसके लिए पाकिस्तान का दिल साफ होने की शर्त भी लगी हुई है। पाकिस्तान को समझना होगा कि वह कभी अमेरिका की गोदी में बैठ कर और कभी चीन के कन्धे पर सवार होकर भारत पर दबाव नहीं डाल सकता। इसके लिए उसे कश्मीर मुद्दे पर नीयत साफ रखनी होगी और स्वीकार करना होगा कि एक आक्रमणकारी देश है। अल्लाह के फजल से कश्मीर के मामले में वह मान चुका है कि 1947 से 1948 तक जो कश्मीर में युद्ध हुआ था उसमें उसकी ही फौजें कबायलियों के भेष में थी। इसके बाद तो पाकिस्तान ने औऱ तीन बार भारत पर आक्रमण किया।