संपादकीय

जेलों में कैदियों से भेदभाव

Aditya Chopra

भारतीय समाज में जातिगत प्रताड़ना इस कदर छायी हुई है कि जेलों में बन्द कैदियों को भी काम का बंटवारा उनकी जाति के अनुसार बड़ा या छोटा समझ कर किया जाता है। कई राज्यों की जेल नियमावली (मैनुअल) में इस तरह की व्यवस्था भी है कि दलित या अनुसूचित जाति व जनजाति के जेलों में सजा भुगत रहे लोगों को जेल के भीतर वही काम दिये जाते हैं जो समाज में उनकी जाति पहचान से जुड़े होते हैं। मसलन जेलों के भीतर दलित व आदिवासियों से साफ-सफाई का काम कराया जाता है और कथित ऊंची जाति के कैदियों को खाना बनाने से लेकर अन्य बेहतर समझे जाने वाले काम दिये जाते हैं। अतः सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि देश के भीतर जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं। इस स्थिति को देखते हुए भारत में जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराई जानी चाहिए? इससे यह साफ हो जायेगा कि समाज में दलित व आदिवासियों समेत पिछड़े वर्ग के लोगों के काम का बंटवारा कितनी बेहयाई व सीनाजोरी के साथ किया गया है।
अब वैज्ञानिक तरीकों से सरोबार 21वीं सदी चल रही है और भारत को आजाद हुए भी 76 वर्ष हो चुके हैं परन्तु समाज की मानसिकता में बदलाव नहीं आ रहा है और हम कुरीतियों को पकड़ कर बैठे हुए हैं अतः सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश कि देश की सभी राज्य सरकारें (केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों समेत) अपनी-अपनी जेल नियमावली में तीन महीने के अन्दर एेसे संशोधन करें जिनसे जेलों में बन्द सभी अपराधियों के साथ एक समान व्यवहार हो सके और जातिगत आधार पर उनका काम न बांटा जाये। क्या गजब है कि जब अपराध की कोई जाति नहीं होती तो अपराध करने वाले लोगों को उनकी जाति के आधार पर कैसे बांटा जा सकता है ? भारत के लोगों को कुछ वर्ष पूर्व दलितों के नेता स्व. राम विलास पासवान का लोकसभा में दिया गया यह बयान कभी नहीं भूलना चाहिए कि 'वैसे गाय हमारी माता है मगर जब वह मर जाती है तो उसे दलितों के कन्धों पर लाद दिया जाता है'। भारत की यह एेसी तस्वीर है जिसे देखकर हम कह सकते हैं कि समाज में जातियों के आधार पर किस कदर शोषण किये जाने की रवायतें जमी हुई हैं। यह बेवजह नहीं था कि संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने लगभग 90 साल पहले ही दलितों को आह्वान किया था कि वे अपना पुश्तैनी या कदीमी धंधा छोड़ कर अन्य काम करें जिससे भारत में जातिबोध की जड़ें सूखने लगें। परन्तु शर्मनाक स्थिति यह है कि जेलों के भीतर भी जातिगत प्रताड़ना जारी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में पत्रकार सुकन्या शान्ता द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करने के बाद जो फैसला दिया है वह वर्तमान समय में सकल समाज को वैज्ञानिक दृष्टि दिये जाना जैसा ही है। जातिगत ढंकोसले को हम अपनी अगली पीढि़यों को नहीं सौंप सकते क्योंकि भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को बराबर का हक देता है और दलितों व आदिवासियों को विशेष अवसर सुलभ कराने की वकालत करता है। अतः राज्यों के साथ न्यायालय ने केन्द्र सरकार को भी आदेश दिया है कि वह 2023 के आदर्श जेल अधिनियम में एेसे संशोधन करें जिससे जेलों में कैदियों के साथ होने वाले भेदभाव को ख्त्म किया जा सके। पत्रकार सुकन्या शान्ता ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि जेलों में न केवल काम का बंटवारा कैदियों की जाति देख कर नहीं किया जाता है बल्कि रहने के लिए आवंटित की जाने वाली बैरकों का चयन भी कैदियों की जाति देखकर किया जाता है और बार-बार अपराध करने वाले कैदियों व अपराध प्रवृत्ति के घोषित आदिवासी कैदियों को अलग बैरकों में रखा जाता है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में साफ कर दिया है कि हर कैदी को सुधरने का अवसर देने के लिए उनमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। इसमें अस्पृश्यता की बू आती है अतः कैदियों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव करना संविधान का उल्लंघन है क्योंकि संविधान ने भारतीय समाज में जातिगत आधार पर फैली अस्पृश्यता को नष्ट कर दिया था। परन्तु कई राज्यों की जेल नियमावली में स्पष्ट तौर पर जाति देखकर काम दिये जाने का प्रावधान है।
सर्वोच्च न्यायालय की नजर में एेसे प्रावधान असंवैधानिक हैं जिन्हें नियमावली से बाहर किया जाना चाहिए। क्योंकि जाति देखकर काम बांटने का काम अस्पृश्यता को अमल में लाने जैसा है। श्री चन्द्रचूड़ ने अपने फैसले में साफ लिखा है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को अपना विकास करने का अधिकार देता है इसलिए जाति के आधार पर भेदभाव या प्रताड़ित किये जाने का काम सीधे कैदियों के व्यक्तित्व के विकास में बाधा पैदा करता है। अतः अनुच्छेद 21 जातिगत घेरे को तोड़कर प्रत्येक प्रभावित नागरिक को जीवन जीने का अधिकार देता है। फैसले में कहा गया है कि जेल में किसी भी कैदी के साथ भेदभाव करने से उसके निजी सम्मान पर चोट पहुंचती है जो कि औपनिवेशिक व पूर्व औपनिवेशिक कुप्रथा के अवशेषों जैसा है जिसमें राज्य और शासन दमनकारी रास्तों से मनुष्य की गरिमा व गौरव को कुचला करते थे। अतः पुलिस व जेल के अधिकारी कैदियों के खिलाफ गैर मुनासिब रवैया नहीं अपना सकते। जेल अधिकारियों को कैदी की मानसिक स्थिति के साथ उसके स्वस्थ होने के हालात का भी ध्यान रखना चाहिए। जेल नियमावली में कैदियों को सुधरने के अवसर मिलने का भी ध्यान रखना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि 2023 की आदर्श जेल नियमावली में एेसा कोई प्रावधान ही नहीं है जिससे कैदियों में जातिगत भेदभाव न हो सके। अतः 2023 के कानून में संशोधन किये जाने की जरूरत है।