स्वतन्त्र भारत में व्यवस्थागत व संस्थागत लोकतन्त्र की जड़ें जमाने में प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने उसी लोकतन्त्र को देश में पुष्पित-पल्लवित किया जैसा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी चाहते थे। गांधी जी जनता को लोकतन्त्र का मालिक मानते थे और गरीब से गरीब भारतीय को सत्ता में भागीदारी देने के प्रबल समर्थक थे। पूर्ण अहिंसक तरीके से यह काम लोकतन्त्र में ही संभव है क्योंकि विश्व के अन्य सभी राजनैतिक दर्शन यह कार्य नहीं सकते।
मार्क्सवाद समेत अन्य जितने भी राजनैतिक दर्शन हैं सब में किसी न किसी संस्था की अधिनायकवादी या व्यक्ति की एकमेव सत्ता होना लाजिमी है लेकिन लोकतन्त्र ही एकमात्र एेसा रास्ता है जिसमें आम लोगों की सत्ता का रास्ता खुलता है। अतः स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मिला एक वोट का अधिकार लोकतन्त्र का सबसे बड़ा राजनैतिक अधिकार माना जाता है। इसी एक वोट का इस्तेमाल करके सामान्य नागरिक अपनी सत्ता स्थापित करता है तथा सत्ता पक्ष या विपक्ष को चुनता है। स्वतन्त्र भारत में जितने भी राजनैतिक विचारक हुए हैं उनमें समाजवादी धारा के दो युग पुरुषों आचार्य नरेन्द्र देव व डा. राम मनोहर लोहिया का विशिष्ट स्थान है। आचार्य जी का जल्दी ही देहावसान हो गया जिसकी वजह से उनकी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ज्यादा लम्बी नहीं खिंच सकी मगर डा. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 1974 तक अस्तित्व में रही। मगर इसी वर्ष में इसका विलय चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल में हो गया था।
डा. लोहिया भी अक्टूबर 1967 तक ही जीवित रह पाये जिस वजह से यह पार्टी बाद में कमजोर होती चली गई थी और इसने लोकदल में अपने विलय को समीचीन समझा था। लोकतन्त्र के सन्दर्भ में डा. लोहिया का नाम पं. नेहरू के बाद इसलिए लिया जाता है क्योंकि उन्होंने विपक्षी दलों की राजनीति को लोकतन्त्र के कलेवर में बखूबी प्रस्तुत किया। डा. लोहिया स्वतन्त्रता सेनानी भी थे औऱ गांधी जी के सिद्धान्तों में भी विश्वास रखते थे। लोकतन्त्र की मालिक जनता होती है, यह गुर डा. लोहिया ने महात्मा गांधी से ही सीखा था। अतः स्वतन्त्र भारत के पहले 1952 के चुनावों से लेकर अपने अन्तिम समय के 1967 तक के चुनावों में डा. लोहिया लोगों को यही समझाते रहे कि वे ही इस व्यवस्था के मालिक हैं और उनका आशीर्वाद पाये बिना कोई भी दल सत्ता में वापस नहीं आ सकता। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि यह जड़ता या स्थिर होना पसन्द कभी नहीं करता और हमेशा आगे की ओर चलायमान रहता है। स्थिरता लोकतन्त्र में किसी पोखर में जमा पानी की तरह होती है जिसमें कुछ समय बाद गाद जमने लगती है। डा. लोहिया इसलिए कहते थे कि लोकतन्त्र में इसकी मालिक जनता को नये विकल्प तैयार करने से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए और राजनैतिक नेताओं को हमेशा आगाह कराते रहना चाहिए वे उसके नौकर हैं जिन्हें पांच साल के लिए वह ठेके पर रखती है।
इस सन्दर्भ में डा. लोहिया बहुत ही ग्रामीण परिवेश की उपमा से लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते थे। वह कहा करते थे कि जिस प्रकार तवे पड़ी हुई रोटी को सेकने के लिए उसे पलटना पड़ता है उसी प्रकार लोकतन्त्र में लोगों को चुनावों में किसी एक विशेष राजनैतिक को ही बार-बार अवसर नहीं देना चाहिए और अपनी वरीयता पलटते रहना चाहिए। जिस प्रकार रोटी को पलटना पड़ता है वैसे ही लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों को भी सत्ता से बाहर और अन्दर करते रहना चाहिए।
डा. लोहिया राजनीति में सादगी के महान पक्षधर थे। उन्होंने जीवन भर विवाह नहीं किया था। उनके पास हमेशा दो धोती व कुर्ते होते थे। एक जोड़ा वह पहन लेते थे और दूसरे जोड़े को खुद ही अगले दिन के लिए धो देते थे। 1967 के चुनाव मार्च महीने में हुए थे और अक्टूबर में डा. लोहिया स्वर्ग सिधार गये। मगर इन चुनावों में पूरे देश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी को भारी निराशा का मुंह देखना पड़ा था क्योंकि नौ राज्यों की विधानसभाओं में उसका बहुमत नहीं आ पाया था। इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुने गये कुछ नेता पार्टी से विद्रोह भी कर रहे थे।
डा. लोहिया ने तब गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया। उत्तर प्रदेश, बिहार, प. बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस से टूट कर आने वाले नेताओं के नेतृत्व में ही सभी विपक्षी दलों ने संयुक्त विधायक दल की सरकारें गठित कीं। इस मुहीम को डा. लोहिया का पूरा आशीर्वाद प्राप्त था। इसकी मूल वजह यह थी कि डा. लोहिया आम जनता को सन्देश देना चाहते थे कि लोकन्त्र में जितने भी विपक्षी दल होते हैं सभी में प्रशासन देने की क्षमता होती है। वह लोगों के मन से इस भाव को निकालना चाहते थे कि केवल कांग्रेस ही शासन करने वाली पार्टी हो सकती है। वह लगातार लोगों को समझाते थे कि लोकतन्त्र में सत्ता करने का पट्टा कोई एक ही पार्टी कभी लिखवा कर नहीं लाती है। पट्टा लिखने की ताकत लोगों के पास ही होती है वे जिसे चाहेंगे सत्ता पर बैठा सकते हैं। मगर इसके लिए जरूरी है कि रोटी को पलटा जाए। यह कार्य केवल जनता ही कर सकती है क्योंकि वही लोकतन्त्र की मालिक होती है।
डा. लोहिया 1967 में अपने गैर कांग्रेसवाद सिद्धान्त को पूरे राजनैतिक जगत द्वारा स्वीकार्य कराने में इस हद तक सफल रहे कि जिन राज्यों में जनसंघ (भाजपा) व कम्युनिस्ट जीत कर आये थे वहां वे दोनों सत्ता पक्ष में शामिल हुए और इन दोनों धुर विरोधी दलों के बीच भी सामज्स्य स्थापित हुआ और दोनों के नेता मन्त्रिमंडलों में भी शामिल हुए। हालांकि संविद सरकारें टिकाऊ साबित नहीं हुई और कई राज्यों में 1969 में पुनः मध्यावधि चुनाव हुए मगर मतदाताओं को यह सबूत मिल गया कि लोकतन्त्र में स्थायी रूप से न कोई सत्ता पक्ष होता है और न विपक्ष होता है।
यह जनता की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किस पार्टी को कौन सी भूमिका में बैठा दे। आजकल देश में दो राज्यों जम्मू-कश्मीर व हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं। हरियाणा में पिछले दस सालों से भाजपा की सरकार है जबकि जम्मू-कश्मीर में उपराज्यपाल की मार्फत केन्द्र का शासन है। देखना यह होगा कि इन राज्यों की जनता सत्ता पक्ष व विपक्ष के लोगों को क्या सबक देती है। मगर लोकतन्त्र में रोटी पलटने की बात पिछले दिनों राजस्थान में खूब चली थी। इस राज्य में कांग्रेस के मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलोत की सरकार थी।
श्री गहलोत अपने शासनकाल में उत्तर भारत के सभी राज्यों में से सबसे अधिक लोकप्रिय मुख्यमन्त्री समझे जा रहे थे। उनकी लोकप्रियता के किस्से मतदाता भी सुना रहे थे मगर उनकी पार्टी कांग्रेस विधानसभा चुनावों में हार गई। जिसकी असल वजह यही थी कि गहलोत की तारीफ करने के साथ लोग यह भी कह रहे थे कि 'देखो जी रोटी तो पलटनी पड़ेगी। अगर ऐसा ना किया तो रोटी ही जल जायेगी' लेकिन यह इस बात का सबूत भी है कि अपनी मृत्यु के 55 साल बाद भी डा. लोहिया आम लोगों के किस तरह प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। उनका कथन अब कहावत बन चुका है।
– राकेश कपूर