संपादकीय

बिहार का आर्थिक सर्वेक्षण

Aditya Chopra

बिहार में हुए जातिगत सर्वेक्षण के बाद जो विभिन्न समुदायों की आर्थिक स्थिति के जो आंकड़े पेश हुए हैं वे वास्तव में औसत आदमी की आर्थिक हालत के बारे में आंखें खोल देने वाले हैं। इन आंकड़ों से साफ हो गया है कि बिहार के एक-तिहाई लोग केवल छह हजार रुपए महीना से कम पर अपना गुजारा करने के लिए मजबूर हैं। सबसे ज्यादा बुरी हालत अनुसूचित समाज के लोगों की है जबकि मुस्लिम समाज की हालत और भी ज्यादा खराब है। जातिगत आधार पर आय का वर्गीकरण करने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि हम सभी जानते हैं कि समाज के निचले तबकों की आय ही सबसे कम होती है मगर चौंकाने वाली बात यह भी है कि समाज के कथित उच्च जाति समाज में भी गरीबों की संख्या कम नहीं है और इसके भी 25 प्रतिशत लोग छह हजार रुपए से कम माहवार पर ही अपना गुजारा करते हैं। इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि भारत में आय या सम्पत्ति का बंटवारा समानुपाती रूप में नहीं हो रहा है और धन का संचय कुछ विशेष वर्गोंं तक सीमित हो गया है। इस असमानता का सम्बन्ध निश्चित रूप से देश की आर्थिक नीतियों से ही हो सकता है।
स्वतन्त्रता के बाद हमने जो आर्थिक नीतियां अपनाईं उनका मुख्य लक्ष्य भारत में कल्याणकारी राज की स्थापना करते हुए गरीबों को आर्थिक रूप से सम्पन्न इस प्रकार करना था कि इस वर्ग के लोगों की उत्पादनशीलता को बढ़ाते हुए उनकी हिस्सेदारी राष्ट्रीय सम्पत्ति में बढ़ाई जाये। यह बहुत दुष्कर कार्य था क्योंकि आजादी मिलने के वक्त भारत की 90 प्रतिशत से अधिक जनता केवल कृषि पर ही निर्भर करती थी। भारत ने जो नीतियां बनाईं उसमें औद्योगीकरण पर जोर दिया गया और धीरे-धीरे आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र से निकल कर औद्योगिक क्षेत्र में संलग्न हुआ। इससे भारत के औसत गरीब आदमी की स्थिति में सुधार आने का क्रम जारी हुआ और धीरे-धीरे भारत में बहुत बड़े मध्यम वर्ग का निर्माण हुआ। इससे देश का उत्पादन करने वाला औद्योगिक पहिया तेजी से घूमना शुरू हुआ। इसके समानान्तर ही भारत ने कृषि क्रान्ति करके खेती के उत्पादन में वृद्धि की जिससे कृषि आय में इजाफा होने के साथ इस पर रोजगार उपलब्ध कराने का बोझ भी घटता गया। इसके साथ ही भारत ने कृषि क्षेत्र में एक और दुग्ध उत्पादन में श्वेत क्रान्ति की। इस चक्र के पूरा होने के कुछ वर्षों के बाद 1991 में भारत ने बाजार मूलक अर्थ नीतियां चला कर भारत के बाजारों को विश्व के बाजारों से जोड़ा। इस अर्थव्यवस्था ने सारे सामाजिक व आर्थिक विकास के ढांचे को धीरे-धीरे बाजार की शक्तियों पर छोड़ना शुरू किया जिसकी वजह से सामाजिक-आर्थिक विषमता का मुद्दा राजनीति के केन्द्र से बाहर होता गया और भारत पूंजी की सत्ता के प्रभावों से बंधता चला गया।
भारत जैसे भौगोलिक व सांस्कृतिक-सामाजिक विविधता वाले देश में यह ढांचा केवल बड़े-बड़े शहरों के बेतरतीब विकास में इस तरह सिमटा कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन तेज हुआ जिसकी वजह से गांव शहरों पर आश्रित होते रहे। गांव के आदमी की आय बढ़ाने का लक्ष्य कहीं पीछे छूटता चला गया और हम बड़े-बड़े शहरों के विकास की चकाचौंध में उलझ कर रह गये। इससे बहुत बड़ा असन्तुलन भारतीय समाज में पैदा हुआ क्योंकि पूंजी की सत्ता के केन्द्र बने हुए बड़े-बड़े शहर और इन्हें चलाने वाले बड़े-बड़े पूंजीपति व उद्योगपति अपने हाथों में ही सुख-समृद्धि को समेटते रहे। अतः हम जिस आर्थिक असमानता को आज बिहार में देख रहे हैं वह केवल किसी खास वर्ग या समाज में फैली असमानता नहीं है बल्कि भारत के सामान्य समाज में फैली असमानता है।
बिहार जैसे राज्य में अगर केवल सात प्रतिशत लोग ही स्नातक पास हैं तो इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि शिक्षा का पाना आज कितना मुश्किल होता जा रहा है। लोकतन्त्र में शिक्षा भी यदि सम्पन्न वर्ग का ही विशेषाधिकार बन जाता है तो आम आदमी की हालत में आर्थिक बदलाव नहीं किया जा सकता। हम आजादी के बाद लक्ष्य लेकर चले थे कि भारत के दस्तकारी का काम करने वाले का बेटा भी इंजीनियर बने और किसी गांव में वैद्यगिरी करने वाले हकीम का बेटा भी डाक्टर बने परन्तु उच्च शिक्षा के लगातार महंगी होते जाने और इसके वाणिज्यिक स्वरूप ने आम आदमी के हाथ से इस सुविधा को भी खींच लिया। ऊंची-ऊंची लाखों और करोड़ों रुपये तक की फीस देना आम आदमी के बूते से बाहर होना बता रहा है कि आर्थिक असमानता अपनी जड़ें गहरी कर सकती है। अतः हमें इस तरफ क्रान्तिकारी बदलाव करने के बारे में सोचना होगा। बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण का सन्देश यही है कि आम आदमी की जब तक क्रय शक्ति या उसकी आय में वृद्धि नहीं की जायेगी तब तक भारत की गरीबी दूर नहीं होगी।