संपादकीय

बुजुर्ग सलाहकार बनें, निर्णायक नहीं

Shera Rajput

पिछले दिनों दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में श्री विजय कौशल जी महाराज से श्रीराम कथा सुनने का सौभाग्य मिला। एक शाम को अपने प्रवचन में वे हर घर में चल रहे जेनरेशन गेप, बड़ों-छोटों के बीच समन्वय की कमी पर बोल रहे थे। उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि घर के बड़े-बुजुर्ग सलाहकार बनें, निर्णायक नहीं। मुझे उनकी यह बात मन को छू गई। मेरे आज के लेख का यही शीर्षक है।
इन दिनों बहुत से व्हाट्सएप ग्रुप पर ऐसे पोस्ट भी प्रचलित हैं जिनमें मैसेज यही होता है कि घर का वातावरण ठीक रखने के लिए बड़ों को बच्चों के निर्णय पर टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। दुख तो उस समय होता है जब हम जानते हुए भी गलत निर्णय को सही दिशा नहीं दे पाते। ऐसी कहानियां आज घर-घर की हैं। कोई बिरले खुशकिस्मत परिवार होंगे जहां सब कुछ ठीक-ठाक हो, पिता और बेटे बैठकर अपने निर्णय सकारात्मक वातावरण में लेते हों। अब तो काफी परिवार ऐसे मिल जाएंगे जहां पर दो जेनरेशन एक साथ रहती ही नहीं हैं।
हम यहां बात करेंगे उन परिवारों की जहां पर तीन जेनरेशन बेटा, पिता और पोता साथ रहते हैं। आजकल के माता-पिता जिस तरीके से अपने बच्चों को पालते हैं और जिस तरीके से वह खुद पले थे, कोई 30-35 साल पहले, उसमें बहुत अंतर आ गया है। पहले के समय में ज्यादातर संयुक्त परिवार होते थे केवल एक भाई का परिवार ही नहीं पलता था। सभी भाइयों के अपने-अपने बच्चे भी होते थे और सब मिलजुल कर रहते थे। उन्हें घर का बड़ा बच्चों की किसी गलती पर डांट भी देता था तो कोई दूसरा टोकता नहीं था। आज की स्थिति बिल्कुल ही बदल गई है। छोटे-छोटे परिवार होने लगे, चाचा-ताऊ तो ज्यादातर परिवार में मिलेंगे ही नहीं।
कई बार यह भी देखा गया कि एक भाई के बच्चों को अगर दूसरे भाई की पत्नी ने कुछ बोल दिया तो इसी बात पर अनबन होने लगती है। पेसेन्स या धैर्य नाम की चीज तो आजकल के नौजवानों में मिलनी मुश्किल है। ऐसे में दादा-दादी क्या बोल दें यह तो किसी को बर्दाश्त ही नहीं होता है। बड़ों के अनुभव और उसके आधार पर उनकी डिसिप्लिन भरी बात को मानने को कोई भी तैयार नहीं होता है, जबकि सभी को पता है कि घर में बुजुर्ग हर समय परिवार के सुख का ही ख्याल रखेंगे, कभी भी किसी को दुखी नहीं होने देंगे। मन में यही विचार आता है कि शायद आजकल के नौजवानों को हम बुजुर्ग ही पेशेंस सिखाना भूल गए हैं। यह गलती भी तो हम बुजुर्गों की ही हैं। ऐसे वातावरण में सबसे सही निर्णय तो यही होगा कि हम ज्यादा रोक-टोक ना करें छोटों के काम पर। सही-सही परिदृश्य प्यार से छोटों के सामने रख दें और फिर निर्णय उन्हीं को लेने दें।
आजकल तो छोटी उम्र के बच्चों में भी यह भावना आ गयी है कि घर में बड़ों से ज्यादा अच्छी सलाह उनको मित्रों से मिलेगी और इस टेक्नोलॉजी के युग में सब कुछ तो गूगल महाराज ही बता देते हैं। फिर बड़ों का दिया हुआ ज्ञान किस काम का। जब बड़े कोई बात बोलते हैं तो तुरंत गूगल में जाकर पहले उस बात की सत्यता को जानने की कोशिश करते हैं बच्चे। उस समय उनके मन में यह विचार नहीं आता है कि बड़ों की जो भावना है वह उनके केवल ज्ञान से ही अर्जित नहीं की गई है बल्कि उनके इतने वर्षों के अनुभवों से भी वह अपना विचार रख रहे हैं। बहुत बार तो यह भी देखने को मिलता है कि बड़ों ने कोई बात कहीं और उसके जवाब में उन्हें तुरंत मोबाइल पर गूगल द्वारा उस विषय पर कुछ और मत बता दिया जाता है और यह दर्शाया जाता है कि बड़ों ने जो बताया वह गलत है।
हम ऐसी स्थिति आने ही क्यों दें? क्यों हम अपने अंदर ऐसी भावना जागृत होने दें जिससे कि हमें कोई अपराध बोध हो? अच्छा तो हो कि हम जो भी सुझाव देना चाहते हैं वह इस तरीके से दें कि सामने वाले को भी खराब ना लगे और वह उस पर विचार करने पर विवश हो जाए। एक उदाहरण दें तो हम बोल सकते हैं कि मेरे विचार में शायद इस प्रॉब्लम को इस तरह सॉल्व किया जा सकता है। वैसे यह तो केवल मेरा विचार है, तुम ही इस पर पूरी रिसर्च करके डिसीजन ले लों। सारा खेल तो होता है कि हमारी बातें किस तरीके से आगे बढ़ती हैं, किस टोन में बात हम करते हैं। यही सब बहुत जिम्मेदारी के साथ हमें भी निभाना होगा। हम बड़े जरूर हैं लेकिन यह मानकर चलें कि जेनरेशन गैप तो है और इस जेनरेशन गैप में जो दिक्कतें आ रही हैं उसके लिये बहुत हद तक हम स्वयं जिम्मेदार हैं, शायद। पहले ऐसा नहीं होता था। उसका एक मूल कारण हमारा संयुक्त परिवार था।