संपादकीय

चुनाव आयोग और ईवीएम मशीन

Shera Rajput

चुनाव प्रणाली में सुधार को लेकर भारत में लम्बी बहस पिछले लगभग 50 वर्षों से चल रही है परन्तु अभी तक सिवाय कुछ ऊपरी या 'सजावटी' संशोधनों के कोई मूलभूत सुधार नहीं हो सका है। बल्कि इन सब सजावटी सुधारों के साथ अब एक नई बहस 'ईवीएम' मशीनों व 'बैलेट पेपर' को लेकर शुरू हो गई है। भारत का लोकतन्त्र चुनाव प्रणाली की शुचिता व पारदर्शिता पर टिका हुआ है। इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने पृथक से चुनाव आयोग का गठन किया था और इसे पूर्ण संवैधानिक दर्जा देते हुए किसी भी सरकार के नियन्त्रण से बाहर रखा था और सीधे संविधान से शक्तियां लेकर ही अपना कार्य निष्पक्ष तरीके से करने में सक्षम बनाया था।
यदि हम 26 नवम्बर 1949 को संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर के संविधान सभा में दिये गये भाषण का जायजा लें तो पायेंगे कि उन्होंने चुनाव आयोग को कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका से भी महत्वपूर्ण बताया था और कहा था कि भारत में लोकतन्त्र स्थापित करने की प्राथमिक जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही होगी क्योंकि यह पूरे देश में निष्पक्ष व बेखौफ चुनाव करा कर सीधे मतदाता की इस व्यवस्था में हिस्सेदारी तय करेगा। चुनाव आयोग का यह कर्त्तव्य होगा कि वह मतदाता और प्रत्याशी के बीच के रिश्ते को इतना पवित्र और पारदर्शी बनाये कि पूरा तन्त्र लोकमूलक बन जाये और इसके बाद जो भी सरकार या अन्य संवैधानिक संस्थाएं हों वे भी लोगों के प्रति जिम्मेदार बनती जायें। इसका मतलब केवल यही निकलता है कि चुनाव आयोग पूरे भारत में चुनाव की एेसी प्रणाली विकसित करे जिसमें मतदाता व प्रत्याशी के बीच के सम्बन्धों में आशंका पैदा होने की लेशमात्र भी संभावना विकसित न हो सके।
यदि हम उन अन्य चुनाव सुधारों की बात दरकिनार भी कर दें जिन्हें लेकर 1974 में स्व. जय प्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में देश के लगभग सभी विपक्षी दलों ने आन्दोलन चलाया था और केवल मतदान की प्रणाली की ही बात करें तो बैलेट पेपर के स्थान पर ईवीएम मशीन में बटन दबा कर वोट देने की प्रथा पर देश के लोगों के मन में भारी आशंका या शक पैदा हो गया है। इस आशंका को मिटाने की जिम्मेदारी भारत की किसी भी सरकार की बिल्कुल नहीं है बल्कि पूरी जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है क्योंकि यह एक स्वतन्त्र व स्वायत्त संस्था है जिस पर कोई भी सरकार किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं बना सकती क्योंकि संविधान के अनुसार यह सीधे भारत के लोगों के प्रति जवाबदेह है। यह जवाबदेही किताबी नहीं है बल्कि व्यावहारिक या दुनियावी है क्योंकि हम देखते हैं कि चुनावों में चुनाव आयोग देश के सुदूर क्षेत्रों तक में किस प्रकार एक भी मतदाता के लिए मतदान की व्यवस्था करता है। यदि मतदाता को मशीन में अपना वोट डालने के बाद यह सन्तोष नहीं होता है कि वह जिस प्रत्याशी या पार्टी को वोट दे रहा है उसका वोट उसी को गया है तो यह जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही होगी कि वह मतदाता को हर दृष्टि से सन्तुष्ट करे और यह सुनिश्चित करे कि उसके वोट देने और उसे प्रत्याशी को लेने के बीच कोई भी भौतिक या अदृश्य शक्ति किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका अदा नहीं कर सकती है।
ईवीएम मतदान प्रणाली में मतदाता और प्रत्याशी के बीच एेसी तीसरी शक्ति है जो मतदान का सच अपनी इच्छानुसार उगलती है। इसमें अगर किसी प्रकार गड़गड़ी होती है तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं होती बल्कि कोई दूसरी मानव शक्ति जिम्मेदार ठहराई जा सकती है। अतः मतदाता और प्रत्याशी के बीच किसी तीसरी शक्ति का आना पूरी चुनाव प्रक्रिया को दूषित बना देता है। इस प्रदूषण को रोकने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है जिससे वह अक्सर भागता नजर आता है और ईवीएम मशीनों के हर हाल में सही होने की पुरजोर वकालत करता है। मगर एेसा करते हुए वह स्वयं भी पूर्ण आश्वस्त नहीं होता क्योंकि मशीन बनाने वाली कोई तीसरी शक्ति है। मैं यहां मशीनों के तकनीकी पक्ष की बिल्कुल भी बात नहीं कर रहा हूं बल्कि पूरी तरह उस मानवीय पक्ष की बात कर रहा हूं जो मशीनों को मनुष्य का ही आविष्कार मान कर उसमें गड़बड़ी की हर संभावना को जायज तर्क मानता है।
चुनाव को भारत में लोकतन्त्र का पर्व कह कर खूब प्रचारित किया जाता है। पर्व में कभी भी कोई व्यक्ति अपनी परोक्ष उपस्थिति दर्ज नहीं कराता बल्कि स्वयं हाजिर होकर पर्व मनाता है अथवा आशीर्वाद देता है। जब मशीन में वोट डाल कर मतदाता को भरोसा ही नहीं होता कि उसका वोट उसकी मनपसन्द प्रत्याशी को ही गया है तो यह पर्व में 'प्राक्सी' हाजिरी के बराबर ही माना जायेगा। अब कुछ विपक्षी दलों द्वारा यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यदि आयोग ईवीएम मशीन से ही मतदान करना चाहता है तो बेशक करे। यदि वह मानता है कि इससे मतदान की प्रक्रिया सुगम व सरल होती है तो वह बेशक करे मगर मशीन के साथ जो 'वोट रसीदी यन्त्र' वीवी पैट लगा होता है उस तक मतदाता की सीधी पहुंच बनाये और उसे केवल मूक दर्शक न बना रहने दे। हम जानते हैं कि जब हम मशीन से वोट देते हैं तो उस यन्त्र में उस प्रत्याशी के नाम व चुनाव चिन्ह की तस्वीरनुमा पर्ची नीचे गिरती है।
विपक्षी पार्टियों की मांग है कि यदि इस पर्ची को मतदाता के हाथ में दे दिया जाये और वह उसे किसी एक बक्से में जाकर गिरा दे और फिर मतगणना वाले दिन इन पर्चियों की ही गिनती की जाये तो शंका का निवारण हो सकता है। इस सुझाव को तो चुनाव आयोग को झपट लेना चाहिए था मगर क्या कयामत है कि वह विपक्षी दलों को मिलने के लिए समय ही नहीं दे रहा है। इस सुझाव से यह पता चलता है कि देश के राजनैतिक दल टैक्नोलॉजी विकास का समर्थन भी करते हैं और मतदाता के अविश्वास का निवारण करते हुए उसमें सन्तोष का भाव भी भर देना चाहते हैं। असल बात तो यह है कि एेसा सुझाव खुद चुनाव आयोग की तरफ से आना चाहिए था क्योंकि वह मतदाताओं के अधिकारों का मूल संरक्षक है परन्तु वह कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त नहीं कर रहा है । लोकतन्त्र में इसका मतलब ठीक नहीं निकलता है। क्योंकि लोकतन्त्र का अर्थ लोक विश्वास भी होता है और इसकी व्यवस्था का प्रशासन लोगों को लगातार अधिकार सम्पन्न व आत्मनिर्भर बनाता है जबकि राजतन्त्र इसके उलट स्वयं को अधिकार सम्पन्न व लोगों को अधिकार विहीन बनाता है। लोकतन्त्र में प्रशासन का यही मतलब होता है जिसमें लोगों की तकलीफे कम से कम होती चली जती हैं और प्रशासन में उनका विश्वास बढ़ता जाता है। राजनैतिक दल चुनाव आयोग से आसमान से तारे तोड़ कर लाने के लिए नहीं कह रहे हैं बल्कि उसकी ही जिद को पूरा करते हुए उसमें कुछ पारदर्शिता लाने के लिए कह रहे हैं। आयोग अपने काम से किसी भी तौर पर सरकार को सम्बद्ध नहीं कर सकता है और सत्ताधारी दल पर भी किसी प्रकार का छींटा नहीं डाल सकता है क्योंकि चुनाव कराना उसका विशिष्ट अधिकार है और निष्पक्ष व निष्कलंक चुनाव कराना उसका धर्म है। अब तो बात बैलेट पेपर वापस लाने की भी नहीं हो रही है तो फिर चुनाव आयोग चुप्पी क्यों साध रहा है। भारत के लोग ही यह देख कर आश्चर्य चकित हैं।

– राकेश कपूर