संपादकीय

चुनाव आयोग की अग्निपरीक्षा

Aditya Chopra

हमारे संविधान में चुनाव आयोग को जो दर्जा दिया गया है वह हमारी पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के खुद मुख्तार व्यवस्थापक का है जिसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी लोगों की उस ताकत को सत्ता पर बैठाने की है जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व संविधान निर्माता डा. बाबा साहेब अम्बेडकर प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट के अधिकार से लैस करके गये हैं। संविधान में चुनाव आयोग को ऐसी शक्तियों से सम्पन्न बनाया गया है जिनका उपयोग करके वह चुनावी समय में सत्ता पर काबिज सरकार का भी निगेहबान रह सके और हुकूमत कर रही किसी भी राजनैतिक दल की सरकार को राजनैतिक प्रणाली के अन्तर्गत ला सके। राष्ट्र के चुनावी समय में सरकार के हर मन्त्री से लेकर प्रधानमन्त्री तक की हैसियत अपनी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता में तब्दील हो जाती है बेशक वह सरकार का अंग रहता है। चुनावी दौर में मुख्य चुनाव आयुक्त पूरी राजनैतिक व्यवस्था के संरक्षक बन जाते हैं और पूरी सरकार चुनाव आयोग की निगेहबानी में आ जाती है क्योंकि सरकार का चरित्र भी राजनैतिक ही होता है। मतदान से पहले जिस आदर्श चुनाव आचार संहिता को चुनाव आयोग पूरे देश में लागू करता है उसका मन्तव्य भी यही होता है कि चुनावों में भाग लेने वाले हर राजनैतिक दल के लिए एक समान परिस्थितियां होंगी और आयोग की नजर में सत्ता पर बैठे राजनैतिक दल के लिए भी वे ही सुविधाएं उपलब्ध होंगी जो कि विपक्ष में बैठे राजनैतिक दलों के लिए होती हैं।
पूर्व में चुनाव आयोग के खिलाफ सत्ता व विपक्ष के बीच भेदभावपूर्ण व्यवहार करने के आरोप लगते रहे हैं। मगर हाल में ही लोकसभा चुनावों के लिए आचार संहिता लागू हो जाने के बाद चुनाव आयोग ने जो कुछ कड़े फैसले लिये हैं उन्हें देखते हुए इसकी निष्पक्ष विश्वनीयता के प्रति विश्वास प्रकट किया जा सकता है। कर्नाटक की भाजपा नेता व केन्द्र में राज्यमन्त्री शोभा करांजदले ने पिछले दिनों बैंगलुरु के एक कैफे में हुए बम विस्फोट के साथ तमिलनाडु का हाथ होने की हिमाकत की, उसके खिलाफ चुनाव आयोग से तमिलनाडु की द्रमुक की स्टालिन सरकार ने उससे शिकायत की। बम विस्फोट में तमिल लोगों का हाथ होने की आशंका एक सार्वजनिक सभा में करने के बाद शोभा जी ने अपने बयान पर सफाई भी दी मगर आयोग ने कर्नाटक के प्रभारी चुनाव आयुक्त से उनके खिलाफ आवश्यक कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश जारी कर दिया। क्योंकि उनके बयान से तमिलों के प्रति घृणा फैलाने की बू आ रही थी। इतना ही नहीं चुनाव आयोग ने केन्द्र सरकार से भी अपने 'विकसित भारत' विज्ञापन को वापस लेने का आदेश दिया। यदि हम राजनैतिक दलों के व्यवहार पर नजर डालें तो उसमें एक-दूसरे के खिलाफ दोषारोपण का एेसा दौर चल रहा है जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि चुनावों में वैचारिक पक्ष को दरकिनार करके आरोप-प्रत्यारोप लगाये जा रहे हैं। सत्ताधारी भाजपा ने भी कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी के खिलाफ उनके 'हिन्दू धर्म' में 'शक्ति' के खिलाफ लड़ने के बारे में दिये गये बयान पर आयोग से कार्रवाई करने की मांग की है।
उधर कांग्रेस ने भी गोवा के मुख्यमन्त्री के विरुद्ध नफरती बयान देने का मामला उठाया है। चुनाव आयोग का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह शिकायत की कड़ी जांच करे और जरूरी कार्रवाई भी करे। चुनावी दौर में चुनाव आयोग की भूमिका एक न्यायाधीश की भी हो जाती है। संविधान ने आयोग को राजनैतिक विवाद निपटाने के लिए कुछ न्यायिक अधिकार भी दिये हैं। इनका उपयोग आयोग राजनैतिक दलों को अनुशासित व संविधान के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए करता है। मगर सर्वोच्च न्यायालय में हाल में ही नियुक्त किये गये दो चुनाव आयुक्तों का मामला भी चल रहा है। इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के समक्ष मुकदमा चल रहा है। नियुक्ति के खिलाफ याचिका दायर करने वाले वादी की मांग है कि इनकी नियुक्ति पर रोक लगाई जाये क्योंकि इनका चयन उस चयन समिति द्वारा किया गया है जिसमें सरकार का बहुमत है। बेशक यह मामला बहुत गंभीर है क्योंकि याचिकाकर्ता की दलील के अनुसार इसका सम्बन्ध पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली और चुनाव आयोग की निष्पक्षता से जुड़ा हुआ है परन्तु इसके साथ यह भी हकीकत है कि इन दोनों चुनाव आयुक्तों का चुनाव देश के वर्तमान कानून के तहत ही किया गया है जिसे संसद ने ही बनाया है लेकिन इसके साथ यह भी हकीकत है कि चुनाव आयोग के साथ भारत के मतदाता या जनता का सीधा सम्बन्ध होता है। इन सम्बन्धों के बीच सरकार की कोई भूमिका नहीं होती क्योंकि प्रत्येक मतदाता को जिस वोट का अधिकार मिला होता है क्योंकि उसका उपयोग वह चुनाव आयोग की व्यवस्था के तहत ही करता है। यह भी सच है कि पूर्व में सत्ता पर काबिज सरकार ही अपने विवेक से चुनाव आयुक्तों का चयन करती रही है क्योंकि संविधान में यही व्यवस्था थी। जिस वजह से विपक्ष में बैठे दल उस पर पक्षपात का आरोप भी लगाते रहे हैं।
कांग्रेस के पिछले दस साल के शासनकाल के दौरान चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा होने पर तबके विपक्षी भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने सुझाव दिया था कि चुनाव आयुक्तों के चयन हेतु एक उच्च समिति बने जिसमें प्रधानमन्त्री, लोकसभा व राज्यसभा में विपक्ष के नेता व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों। मगर लगभग ऐसा ही आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने भी पिछले दिनों दिया था और सरकार से कहा था कि वह संसद में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सम्बन्धी एक समिति का गठन करे जिसमें लोकसभा में विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश व प्रधानमन्त्री शामिल हों मगर संसद को इस बारे में एक कानून जरूर बनाना चाहिए और जब तक कानून नहीं बनता है तब सुझाई गयी समिति का गठन करके चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाये। मगर सरकार ने इसके बाद संसद में कानून बना कर प्रधानमन्त्री, एक अन्य मन्त्री व लोकसभा में विपक्ष के नेता वाली चयन समिति का कानून बना दिया। अतः चुनाव आयोग के लिए अब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि वह पूरी निष्पक्षता के साथ साफ-सुथरे चुनाव कराये और प्रत्येक राजनैतिक दल को एक समान अवसर सुलभ कराये।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com