चुनावों का मौसम आते ही चुनावी राजनीति से जुड़ी अनेक भूली-बिसरी यादें ज़ेहन में तैरने लगती हैं। इन यादों में युवाओं की उदासीनता, लेखन जगत से जुड़ी शख्सियतों का लगभग पूरी तरह हाशिए पर सरक जाना, भाषा के स्तर में गिरावट, मीडिया का बहरूपियापन आदि पर ध्यान अटकना स्वाभाविक है। बुद्धिजीवी वर्ग या कला-संस्कृति एवं साहित्य से जुड़े लोगों ने अधिकांशत: चुनावी-राजनीति से दूरी बनाए रखी है। वैसे भी उन्हें कभी वोट-बैंक आकर्षित करने वाला चुम्बक नहीं माना गया।
दक्षिण भारत व मध्य भारत में शुरुआती दौर में बुद्धिजीवियों ने कुछ भूमिका निभाई लेकिन उनकी लीक पर चलने में उनके अपनों ने भी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। उड़ीसा में दो बार ऐसा हुआ। पहली बार नंदिनी सत्पथी ने वहां की सियासत में विशिष्ट पहचान बनाई, यद्यपि वह स्वयं और उनके पति तथागत की मूल पहचान लेखन के क्षेत्र से ही थी। दूसरी बार बीजू पटनायक के आकस्मिक निधन के पश्चात उनकी तीन संतानों में किसी एक को उत्तराधिकारी बनाने पर विचार हुआ। तब सबसे पहले बीजू के बड़े बेटे श्री प्रेम पटनायक का नाम उभरा। मगर वह किनारा कर गए। शेष दो में छोटे बेटे नवीन पटनायक और उनकी लेखिका बहन गीता मेहता का नाम चर्चा में चला। लेकिन गीता मेहता उन दिनों अमेरिका में थीं। उन्हें बुकर-पुरस्कार भी मिला था। वैसे भी उन्हें राजनीति या सत्ता के गलियारे से कोई जुड़ाव नहीं था। सबसे छोटे नवीन पटनायक 1970 के दशक में दक्षिणी दिल्ली में अपने यारों-दोस्तों की महफिलों में छाए हुए थे।
उन्होंने कुछ वर्षों तक दिल्ली के ओबेराय होटल में अपना बुटीक भी चलाया। वहां पर अक्सर तीन काफी टेबल उनके नाम पर 'बुक' रहती थीं। इसी नाम से उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी 'थ्री काफी टेबल्स'। उनके सहपाठियों में संजय गांधी भी शामिल थे। उन दिनों 'जींस-टी शर्ट' ही पहनते थे नवीन और जब सत्ता के गलियारे में धकेले गए तो पहचान ही बदल गई। अब कुर्ता-पायजामा ही उनकी पहचान बन चुकी है। नवीन की कुछ विशिष्ट बातें भी हैं, जिन्हें लेकर कई बार पार्टी में भी संकट खड़ा हो जाता है। लेकिन उनका एक ही उत्तर होता है, 'मैं कोरे दिखावे या नाटकीयता में कोई दिलचस्पी नहीं रखता।
पार्टी में अक्सर उन्हें आग्रह किया जाता है कि उड़िया भाषा में लिखने-पढ़ने का अभ्यास कर लें। वह अक्सर जनसभाओं में भी ठीक से उड़िया भी नहीं बोल पाते थे। यह बात अलग है कि वह उड़िया की संस्कृति और वहां के साहित्य के बारे में अंग्रेजी में समुचित संवाद कर लेते हैं। यदि इस बार भी वह विधानसभा चुनावों में जीत गए तो देश में सर्वाधिक लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का उनका कीर्तिमान स्थापित हो जाएगा। वैसे इस समय इस सूची में सिक्किम के पवन कुमार चेमलिंग शिखर पर हैं।
नवीन अब 78 वर्ष के होने वाले हंै। उनके उत्तराधिकारी के बारे में भी चर्चा है। स्वयं अब तक कुंवारे ही हैं। राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में अब वहां के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी पांडियन का नाम चर्चा में चलता है। नवीन पटनायक की एक विशेषता यह भी है कि वह 'मीडिया केंद्रित' राजनीति पसंद नहीं करते। बहुत कम बोलते हैं और भाषा की गरिमा पर उनका ज्यादा ध्यान रहता है। वह न तो बड़बोले हैं, न ही बयानबाज़ी का कोई शौक है। ओडिशा में वैसे बुद्धिजीवी, लेखक सदा सक्रिय रहे हैं। कर्नाटक आदि में तो परंपरा यह भी रही है कि मुख्यमंत्री समय-समय पर प्रतिष्ठित लेखकों के घर भी जाते रहे हैं।
तमिलनाडु, केरल में भी बुद्धिजीवियों के लिए राजनीति के गलियारे खुले रहे हैं। इसके विपरीति उत्तर भारत में, विशेष रूप से उत्तरप्रदेश में डॉ. सम्पूर्णानंद, पीडी टंडन व प्रयाग-बनारस की कुछेक विभूतियों के बाद माहौल में बाहुबलियों की चर्चा ज़्यादा होने लगी थी। मध्यप्रदेश में भी शुक्ला बंधुओं से पहले द्वारिका प्रसाद मिश्र व कुछ अन्य साहित्य और लेखन दोनों में चर्चा का केंद्र बने। मिश्रा जी ने तो एक महाकाव्य भी लिख डाला था।
अपने समय का बहुचर्चित उपन्यास रागदरबारी और एक पत्रकार चाणक्य सेन द्वारा लिखे गए उपन्यास 'मुख्यमंत्री' में भी बुद्धिजीवियों व राजनीति के गलियारे की सांझी चर्चा होती रही। वैसे भी वहां मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के समय में बाल कवि बैरागी व अशोक वाजपेई सरीखे साहित्यकारों की सक्रियता, साहित्य व राजनीति की सांझी इबारत लिखी जाती रही। मगर अब हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली आदि में यह सांझी इबारत कमोबेश पूरी तरह गायब है। लेखकों व कलाकारों आदि को यहां प्रथम पंक्ति में रखे जाने की परंपराएं स्थापित हो ही नहीं पाईं लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस जुगलबंदी के बिना एक सभ्य व विकसित समाज की परिकल्पना हो ही नहीं सकती।
– डॉ. चंद्र त्रिखा