एक लोकप्रिय कहावत है-'इस हमाम में सब नंगे हैं'। लिहाजा चुनावी बांड खरीदने वालों और प्राप्तकर्ताओं के बारे में चल रहे खुलासे एक बार फिर साबित करते हैं कि जब पैसों की बात आती है तो कोई भी पार्टी भर्त्सना से परे नहीं है। ये सभी पैसाें के लालची हैं और जो कोई भी पैसा देने को तैयार है -चाहे वह काला हो या कोई-उससे इसे प्राप्त करने में इन्हें कोई झिझक नहीं है।
निस्संदेह, आप धन मांगने के लिए किसी पार्टी को दोषी नहीं ठहरा सकते। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में चुनाव महंगे हो गए हैं। बहुत सारा पैसा चाहिए। यहां तक कि भाजपा और कम्युनिस्टाें को भी, जो हालिया समय तक प्रचार के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं पर भरोसा कर सकते थे, अब कार्यकर्ताओं को हायर करने की जरूरत पड़ती है। इस मामले में भाजपा भाग्यशाली है कि उसके पास आरएसएस के स्वयंसेवकों की एक टीम है, जिस पर उसे भरोसा है, लेकिन जैसे-जैसे पार्टी बड़ी हुई, उसे भी बाहरी लोगों को काम पर रखना पड़ा। लेकिन चुनावी बांड के साथ यह अल्पकालिक प्रयोग, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता की कमी के कारण असंवैधानिक ठहरा दिया, चुनावी फंडिंग को अंडरग्राउंड कर सकता है। बहरहाल, कम से कम पांच साल तक चले चुनावी बांड के इस प्रयोग ने यह स्थापित करने में जरूर मदद की कि हमेशा शीर्ष औद्योगिक घराने ही राजनीतिक दलों को धन देने की जरूरत महसूस नहीं करते हैं। अज्ञात व्यवसायों और कंपनियों ने भी बड़े पैमाने पर पार्टियों को वित्तपोषित किया है।
महज एक सप्ताह पहले तक फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज के बारे में किसने सुना था? इसके मालिक सैंटियागो मार्टिन, एक समय म्यांमार में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते थे। अब कोयंबटूर में स्थित, मार्टिन का फ्यूचर गेमिंग सबसे बड़ा दानकर्ता बनकर उभरा है। उसने 1368 करोड़ रुपए के इलेक्टरोल बांड खरीदे। कंपनी ने इसमें से सबसे ज्यादा रकम 540 करोड़ रुपए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 540 दिए, उसके बाद डीएमके को 509 करोड़ रुपये। इसमें से वाईएसआर कांग्रेस को 160 करोड़ रुपए, बीजेपी को 100 करोड़ और कांग्रेस 50 करोड़ रुपए मिले।
तमिलनाडु स्थित लॉटरी किंग को पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, भाजपा और कांग्रेस में पार्टियों को फंड देने की आवश्यकता क्यों होगी? प्रश्न का उत्तर आसानी से दिया जा सकता है। लॉटरी के प्रमोटर के रूप में, अपने और उन विभिन्न उत्तर-पूर्वी राज्यों में, मार्टिन उन राज्यों की सद्भावना पर निर्भर थे जो दूसरे तरीके से देखेंगे जब उनकी लॉटरी उनके अधिकार क्षेत्र में बेची जाएगी। लॉटरी व्यापार रडार के तहत संचालित होता है क्योंकि अधिकांश राज्यों में इस पर प्रतिबंध है।
कोई भी पार्टी किसी दूसरी पार्टी पर आरोप लगाकर उंगली नहीं उठा सकती। क्योंकि उन सभी पार्टियों ने कुछ वैध व्यवसायों और कुछ बेहद संदिग्ध व्यवसायों से पैसा लिया है। इसमें आम आदमी पार्टी को कोलकाता स्थित एक नामी शेल कंपनी के माध्यम से एक शराब कंपनी ने 10 करोड़ चंदा दिया है। हालांकि इस साइन-बोर्ड कंपनी ने खुद को 40 लाख रुपये का घाटा बताया है, लेकिन बावजूद इसके अलग-अलग पार्टियों को ईबी के माध्यम से 112 करोड़ रु. राशि का चंदा दिया है, जिसमें से सत्तारूढ़ दल भाजपा को एक करोड़ रुपये, आम आदमी पार्टी को 10 करोड़ रुपये, तृणमूल कांग्रेस पार्टी को 59 करोड़ और कांग्रेस पार्टी को 25 करोड़ रुपये चंदे के तौर पर मिले हैं। हालांकि अभी यह ज्ञात नहीं है कि आप को किया गया भुगतान उत्पाद शुल्क घोटाले से जुड़ा है या नहीं। एक लोकप्रिय कहावत ईबी विवाद में एकदम सही साबित होती है, 'जो शीशे के महल में रहते हैं, वह दूसरों पर पत्थर नहीं मारते हैं'। अब ऐसे में ईबी के बारे में खुलासे ने सभी पार्टियों को कलंकित किया है या नहीं। क्योंकि उन सभी पार्टियों ने संदिग्ध स्रोतों से धन स्वीकार किया है या फिर केंद्र या राज्य सरकार द्वारा किए गए उपकार के बदले में अन्यथा जैसा भी मामला हो।
मौजूदा लोकसभा चुनाव के बाद चुनावों के लिए सर्वोत्तम फंडिंग कैसे की जाए, इस पर एक ईमानदार राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। अन्यथा, ईबीएस पर प्रतिबंध के बाद पार्टियां अपने मामलों को व्यवस्थित करने के लिए काले धन पर अधिक निर्भर हो जाएंगी। निश्चित रूप से सर्वोच्च न्यायालय का यह इरादा नहीं था जब उसने पारदर्शिता की कमी के कारण ईबी को असंवैधानिक घोषित किया था। अब ऐसे में कुछ कंपनियां पारदर्शी तरीके से तो कुछ पर्दे के पीछे से राजनीतिक पार्टियों को चंदा देंगे, जब तक कि पार्टियों को फंडिंग की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं मिल जाती।
– वीरेंद्र कपूर