संपादकीय

चुनावी बांड असंवैधानिक हैं!

Aditya Chopra

सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बांड में निवेश करके राजनैतिक दलों को चन्दा देने की प्रणाली को पूरी तरह असंवैधानिक करार देकर एक बार फिर सिद्ध किया है कि भारत का लोकतन्त्र जिन चार पायों पर टिका हुआ है उनमें से न्यायपालिका की भूमिका देश में सर्वत्र संविधान का शासन देखने की है और अपने इस दायित्व का पालन वह शुद्ध अंतःकरण के साथ राजनीति से पूरी तरह निरपेक्ष रहते हुए करने के लिए प्रतिबद्ध है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र भारत इसीलिए कहलाया जाता है कि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले देकर कई सरकारी फैसलों को पलटा है। लोकतन्त्र का प्रमुख अंग पारदर्शिता और जवाबदेही होते हैं। इस व्यवस्था या प्रणाली में सरकार सीधे जनता के प्रति संसद के माध्यम से जवाबदेह होती है। इसका पालन तभी हो सकता है जब पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह पारदर्शी बनी रहे। संसद में इस पारदर्शिता की तस्दीक विपक्ष करता है। संसद को सरकार के हर फैसले की पृष्ठभूमि से लेकर उसके भविष्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानने का अधिकार होता है। यह प्रश्न राजनीति से ऊपर का होता है। चुनावी बांड के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि इसमें निवेश करने वालों के बारे में जानकारी न देना सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि कौन व्यक्ति या संस्था किस राजनैतिक दल को कितना चन्दा देता है। चुनाव बांड में निवेश करने वाले लोगों की जानकारी गुप्त रखने का जो विधान बनाया गया वह असंवैधानिक है। बेशक यह चुनावी बांड कानून संसद द्वारा ही बनाया गया था मगर हमारी न्यायपालिका को यह अधिकार है कि यदि कोई भी कानून संविधान की रूह के खिलाफ बनाया जाता है तो वह उसे असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दे। यह कोई पहला अवसर नहीं है जब संसद द्वारा बनाया गया कानून सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक ठहराया हो। इससे पहले भी कई कानूनों को न्यायालय गैर संवैधानिक करार दे चुका है।
चुनावी बांड कानून स्व. वित्तमन्त्री अरुण जेतली 2017 के बजट में लाये थे जिससे यह वित्त या मनी बिल के तौर पर पेश हुआ था। इसके तहत भारतीय स्टेट बैंक चुनावी बांड जारी करता था जिन्हें कोई भी व्यक्ति या पूंजीपति या उद्योगपति खरीद कर अपनी मनमाफिक राजनैतिक पार्टी को दे सकता था। राजनैतिक दल इनका भुगतान करा कर अपने चन्दे के रूप में इनका इस्तेमाल कर सकते थे। स्टेट बैंक बांड खरीदने वालों की जानकारी किसी को नहीं देता था। यहां तक कि चुनाव आयोग को भी इसकी जानकारी नहीं मिल पाती थी। स्टेट बैंक और रिजर्व बैंक के बीच में यह सूचना रहती थी जिसे सरकार चाहे तो प्राप्त कर सकती थी। ये बांड कोई घाटे में चलने वाली कम्पनी भी खरीद सकती थी और मनमाफिक राजनैतिक दल को चन्दा दे सकती थी। इसके साथ ही बांड की धनराशि पर भी कोई सीमा नहीं थी। इससे राजनैतिक दलों की आर्थिक व्यवस्था सीधे प्रभावित होती थी और वे चन्दा देने वाले से उपकृत होते थे। भारत की प्रशासनिक व्यवस्था अन्ततः राजनैतिक दल ही बनाते हैं क्योंकि उन्हीं में से किसी एक या ज्यादा दलों की सरकार बनती है। गुप्त बांड चन्दा प्रणाली परोक्ष रूप से राजनैतिक दलों को इस प्रकार प्रभावित करती थी कि वे फैसले लेते समय पूर्णतः निष्पक्ष न रह सकें। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रणाली को लोकतन्त्र विरोधी तथा नागरिकों के मूल अधिकारों के विपरीत माना है।
इसके साथ एक और समस्या इस मामले में उभरी है। वह है विदेशी कम्पनियों द्वारा राजनैतिक चन्दा देने की। 2017 के बजट में ही विदेशी कम्पनियों की परिभाषा को भी बदल दिया गया था। भारत के चुनाव कानून में नियम है कि कोई भी विदेशी कम्पनी किसी राजनैतिक दल को चन्दा नहीं दे सकती परन्तु विदेशी कम्पनी की परिभाषा बदल देने और चुनावी बांड के गुप्त बना देने के बाद से इसमें विसंगतियां पैदा होने लगी थीं परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के यह आदेश देने के बाद कि स्टेट बैंक 2018 से शुरू हुए चुनावी बांड प्रणाली में निवेश करने वाले नामों की जानकारी 6 मार्च तक चुनाव आयोग को दे और 13 मार्च तक चुनाव आयोग इनके नामों को सार्वजनिक कर आम जनता को बताये, पूरी स्थिति साफ हो जायेगी और दूध का दूध व पानी का पानी हो जायेगा। पिछले 15 दिनों के भीतर जिन चुनावी बांडों का भुगतान राजनैतिक दलों ने नहीं कराया है उन्हें स्टेट बैंक को वापस लेना होगा। चुनावों पर धन का प्रभाव स्वतन्त्र भारत में बहुत बड़ी समस्या है। चुनावी बांड इस समस्या को और बढ़ा रहे थे। इनके रद्द होने से चुनावों में शुद्धता का अंश बढ़ने में मदद मिलेगी।