संपादकीय

किसानों की समस्याएं और राष्ट्रीय नेतृत्व

Shera Rajput

किसानों की मांगों और समस्याओं को लेकर आजकल जो माहौल गरमाया हुआ है उसके कारणों की खोज करने पर हमें पता चलेगा कि स्वतन्त्रता के बाद से ही कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने के जो भी प्रयास सरकारों द्वारा किये गये उनका लक्ष्य खेती को लाभ प्रद बनाने का तो था मगर गरीब जनता के पेट भरने की गारंटी देना भी उनका कर्त्तव्य था। इस क्रम में पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की नीति बहुत स्पष्ट थी कि खेती के साथ-साथ भारत का औद्योगीकरण भी होना चाहिए जिससे अधिक से अधिक लोग खेती से उद्योगों में कार्यरत हों। किसानों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह का मतभेद नेहरू जी से इस मुद्दे पर था कि भारत को बड़े उद्योगों की जगह कुटीर व मध्यम क्षेत्र के उद्योगों पर जोर देना चाहिए।
चरण सिंह मूल रूप से गांधीवादी थे और गांधीवाद के ग्राम स्वराज व कुटीर उद्योग फार्मूले से पूर्णतः सहमत थे। मगर अब 2024 चल रहा है और भारत की अर्थव्यवस्था बाजार मूलक अर्थव्यवस्था हो चुकी है जो कि मूल रूप से भारतीय जनसंघ (भाजपा) का फलसफा है। आज किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी बनाने की मांग कर रहे हैं अर्थात वे चाहते हैं कि सरकार जो समर्थन मूल्य उनकी विभिन्न फसलों या उपजों के लिए तय करे उससे कम पर बाजार में उनकी बिकवाली न हो। यह मांग पूरी तरह जायज ठहराई जा सकती है क्योंकि जब किसी फैक्टरी में काम करने वाला उद्यमी अपने उत्पाद की कीमत तय कर सकता है तो किसानों को यह अधिकार क्यों न मिले। मगर भारत भर में किसान विभिन्न राज्यों में फैले हुए हैं और कृषि राज्यों का विषय है अतः किसान की उपज अपने सम्बन्धित राज्य की मंडियों में ही बिकने के लिए आती है।
इस मामले में एक राष्ट्रीय कृषि नीति की पुनः आवश्यकता होगी हालांकि पहली जो राष्ट्रीय कृषि नीति बनाई गई थी वह तब बनाई गई थी जब 2002 में वाजपेयी सरकार में कृषि मन्त्री श्री नीतीश कुमार थे। वह आजकल बिहार के मुख्यमन्त्री हैं। यह राष्ट्रीय कृषि नीति बदलते सन्दर्भों में इसलिए भी बनाई जानी जरूरी है क्योंकि खेती के क्षेत्र में कार्पोरेट जगत का प्रवेश हो चुका है। खुदरा व्यापार तक में बड़े-बड़े उद्योग घराने उतरे हुए हैं। इससे छोटे व मंझोले किसानों के अस्तित्व पर किसी भी समय संकट आ सकता है। एेसे वातावरण में यदि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी मांग रहे हैं तो उन्हें गलत कैसे कहा जा सता है?
पूरे देश ने देखा था कि दो साल पहले किसानों ने केन्द्र सरकार के तीन कृषि कानूनों का दिल्ली का घेरा डाल कर किस तरह विरोध किया था और परिणाम स्वरूप केन्द्र सरकार को इन तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा था। उस समय हमने देखा था कि किसानों के विभिन्न संगठन तो थे मगर कोई एक एेसा राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं था जो देश के सभी किसानों का प्रतिनिधित्व कर सके। एेसा राष्ट्रीय नेता स्वतन्त्र भारत में अभी तक केवल चौधरी चरण सिंह ही हुए हैं जिनकी बात को भारत भर के किसान आखिरी बात मानते थे। किसान संगठन आज भारत में बहुत सारे हैं और राज्यवार स्तर तक पर हैं मगर कोई एेसा अखिल भारतीय गठन नहीं है जिसे राष्ट्रीय आवाज माना जा सके।
चौधरी साहब की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने किसानों के बीच धर्म व जातियों की दीवार को तोड़ कर एकता स्थापित की थी और यही उनकी सबसे बड़ी राजनैतिक पूंजी भी थी। चौधरी साहब ने अपनी इस राजनैतिक पूंजी का कभी बेजा इस्तेमाल भी नहीं किया और जब भी उन्हें सत्ता मिली उन्होंने पक्षपात भी नहीं किया बल्कि उल्टे किसानों से सामाजिक बुराइयों को त्यागने का आह्वान किया। दरअसल आज देश के किसानों को दूसरे चरण सिंह की सख्त जरूरत है जो किसानों की जमीनी समस्याओं को मिटाने का सपना पालता हो। विचार करने वाली बात यह है कि यदि ग्रामीण व कृषि अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी लोग एक मंच पर जाति व धर्मनिरपेक्ष होकर आ जायें तो उनकी संख्या 80 प्रतिशत के करीब पहुंच जाती है। इस संख्या को यदि राजनैतिक शक्ति में बदल दिया जाये तो देश की नीतियां स्वयं ही ग्रामोन्मुखी व कृषि को सम्पन्नता देने वाली हो जायेगी औऱ पूरी अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुद ब खुद बदल जायेगा।
चौधरी साहब भारत में एेसी ही क्रान्ति चाहते थे। मगर यह राजनीति ही है जिसने किसानों व खेतीहर जातियों को अलग-अलग खांचों में बांट रखा है। किसानों की अलग-अलग जातियां अलग-अलग राजनैतिक दलों की समर्थक हैं जिससे उनकी समेकित राजनैतिक शक्ति बन ही नहीं पाती और उनके हित एक होने के बावजूद अलग-अलग दिशाओं में मुड़ जाते हैं। जिस जातिगत जनगणना की बात राहुल गांधी कर रहे हैं वास्तव में वह कुछ और नहीं है बल्कि ग्रामीण व खेतीहर जातियों की जनगणना ही है।
सर्वाधिक पिछड़ा व दलित समाज ही खेती के काम में लगा हुआ है। यही वजह है कि आज भी सर्वाधिक रोजगार कृषि क्षेत्र ही प्रदान करता है। जबकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी डी पी) में खेती का हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। यही वजह है कि भारत में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है शहरों में रहने वाले उच्च धनाड्य वर्ग के लोगों की आमदनी तेजी से बढ़ रही है और 90 प्रतिशत जनता की आमदनी स्थिरता की लगाम पकड़े हुए हैं। इन 90 प्र​ितशत लोगों में से भी 34 प्रतिशत से अधिक लोग छह हजार रुपये मासिक से कम की आमदनी पर गुजारा कर रहे हैं। गांवों और कृषि क्षेत्र को हम यदि अपनी अर्थव्यवस्था में वरीयता देते हैं तो यह गैर बराबरी कम होगी और भारत खुशहाली के रास्ते पर जायेगा।
इस मामले में कृषि ऊपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को यदि कानूनी गारंटी दी जाती है तो किसान को उसकी मेहनत की पूरी रकम मिलेगी जिसका बंटवारा कृषि क्षेत्र में लगे हुए अन्य लोगों को स्वाभाविक रूप से मिलेगा। जब हम खेती की बात करते हैं तो केवल जमीन मालिक किसान की बात ही नहीं करते बल्कि उसके साथ काम करने वाले भूमिहीन खेतीहरों की बात भी करते हैं। इनमें दिहाड़ी मजदूर भी शामिल होते हैं।
चौधरी चरण सिंह का फलसफा भी यही था कि यदि किसान आगे बढे़गा तो देश स्वः आगे बढ़ जायेगा। इस मामले में वह अमेरिका का उदाहरण दिया करते थे और समझाते थे कि किस प्रकार अमेरिका ने खेती में लगे लोगों की संख्या को घटा कर कृषि उत्पादन में नया कीर्तिमान बनाया और साथ ही अपना औद्योगीकरण किया और अपने लोगों को सम्पन्न बनाया। भारत अन्न उत्पादन में अब पूर्णतः आत्मनिर्भर है । यदि दलहन व तिलहन को छोड़ दें तो इसमें भी किसानों की लगन को देखते हुए आत्मनिर्भरता प्राप्त करना असंभव नहीं है। खेती में विविधीकरण को भी किसान आसानी से अपना रहे हैं।

– राकेश कपूर