संपादकीय

किसानों की उपज और कानून

Aditya Chopra

स्वतन्त्र भारत में अभी तक हुए सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह कहा करते थे कि जिस देश में अधिक लोग खेती में लगे होंगे वह देश गरीब होगा और जिसमें कम लोग खेती में कार्यरत होंगे वह देश अमीर होगा। उनका यह कथन पूर्णतः वैज्ञानिक तर्कों पर आधारित था क्योंकि खेती में आय बढ़ने का सीधा मतलब होता है कि किसान के बच्चे अन्य व्यवसायों में जायेंगे और वे भी अन्य नागरिकों की तरह इंजीनियर या डाक्टर अथवा अन्य पेशों को अपनायेंगे तथा देश की खुशहाली में हिस्सेदार बनेंगे। एेसा तभी संभव हो सकेगा जब खेती में आय बढे़गी। किसान की आमदनी तभी बढे़गी जब उसे उसकी उपज या फसल का लाभकारी मूल्य अन्य उत्पादों की भांति मिलेगा। मगर किसान की उपज के बाजार में आने का एक निश्चित समय होता है और उस दौरान बाजार में किसान की उपज का अम्बार लग जाता है। जिस वजह से उसकी उपज के भाव मांग व आपूर्ति के बाजार नियम के चलते बहुत निचले स्तर पर आ जाते हैं। किसान को अपना माल मजबूरी में बाजार भावों पर ही बेचना पड़ता है। इस विसंगति को दूर करने के लिए भारत में 1965 के बाद से विभिन्न फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की शुरूआत भारत सरकार ने की। मगर इस भाव पर किसान की पूरी उपज की खरीदारी आज भी नहीं हो पाती है जबकि कुछ चुनीन्दा फसलों का ही समर्थन मूल्य सरकार तय करती है।
सवाल यह है कि जब हर उत्पादक को अपने उत्पाद का न्यूनतम मूल्य तय करने का अधिकार है तो किसानों को यह अधिकार क्यों नहीं? इसकी काट में ही समर्थन मूल्य सरकार द्वारा तय करने की प्रणाली शुरू की गई थी लेकिन बाजार में किसान की उपज को कुछ सरकारी एजेंसियों के अलावा घोषित समर्थन मूल्य पर आढ़ती नहीं खरीदते हैं और अपना भाव तय करते हैं। बाजार में उपज की जबर्दस्त आवक होने की वजह से किसानों को अपना माल समर्थन मूल्य से नीचे बेचना पड़ता है। पिछले दो वर्षों से किसान मांग कर रहे हैं कि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाया जाये। अर्थात यह कानून बने कि उपज को समर्थन मूल्य से नीचे कोई भी न खरीद सके। भारत में अब अनाज उत्पादन की कोई कमी नहीं है। किसानों ने अपनी मेहनत व कृषि क्षेत्र में हुए उन्नतीकरण से अन्न उत्पादन में नया रिकार्ड बनाना शुरू कर दिया है। मगर इसके बावजूद किसानों की आय में वृद्धि नहीं हो रही है। इसकी वजह यह है कि उसके उत्पाद का मूल्य बाजार की शक्तियां अपने मांग व आपूर्ति के फार्मूले पर तय कर रही हैं। इस विसंगति को दूर करने के लिए किसान संगठन मांग कर रहे हैं कि समर्थन मूल्य को कानूनन आवश्यक बनाया जाये।
हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में विपक्षी दलों के गठबन्धन इंडिया ने घोेषणा की थी कि यदि वह सत्ता में आया तो न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाया जायेगा। चुनावों में किसानों की यह समस्या बहुत बड़ा मुद्दा थी। जिसे देखते हुए बीते दिन कई किसान संगठनों के नेताओं ने विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी से भेंट की और उनसे आग्रह किया कि वह सरकार पर उनकी मांग मानने के लिए दबाव बनायें। चुनावों के बाद केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए की ही सरकार बनी और इस सरकार का मानना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनाने में बहुत अड़चने हैं। पिछले वर्षों में केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दिये गये हलफनामे में भी स्वीकार किया था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानून के घेरे में नहीं लाया जा सकता है। मगर राहुल गांधी का दावा है कि इस प्रणाली को कानूनी घेरे में लाया जा सकता है। यह व्यावहारिक है जिसके बारे में सभी इंडिया गठबन्धन के घटक दल एक राय हैं। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि श्री राहुल गांधी के पास एेसा कोई फार्मूला है तो वह इसे सरकार के साथ साझा करें। किसान अनिश्चितकाल तक अपना आन्दोलन जारी नहीं रख सकते हैं क्योंकि अभी भी पंजाब व हरियाणा सीमा 'शम्भू बार्डर' पर पंजाब के किसान पिछले फरवरी महीने से धरने पर बैठे हुए हैं। हरियाणा सरकार इन्हें अपने राज्य में प्रवेश ही नहीं करने दे रही है जबकि ये दिल्ली आकर केन्द्र सरकार से गुहार लगाना चाहते हैं। इस सिलसिले में पिछले दिनों पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया था कि वह शम्भू बार्डर को खोले और किसानों को दिल्ली जाने दे परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने कल ही आदेश दिया है कि इस बार्डर पर एक सप्ताह तक यथा स्थिति बनी रहे और किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक निष्पक्ष व स्वतन्त्र समिति बने जिसमें अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता व किसान शामिल हों। यह समिति न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी दर्जा दिये जाने के बारे में भी विचार करे। इसके अलावा अन्य कृषि समस्याओं पर भी यह समिति गौर फरमाये।
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश स्वागत योग्य है क्योंकि जो भी समिति गठित होगी वह कृषि क्षेत्र की व्यावाहारिक समस्याओं के बारे में गंभीरता से विचार करेगी। भारत में खेती किसानी में आज भी देश की आधी से अधिक आबादी लगी हुई है और कृषि क्षेत्र ही रोजगार का सबसे बड़ा साधन भी है। यदि इस क्षेत्र में किसान की आय बढ़ती है तो उसका असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है। गांव के आदमी की क्रय शक्ति में यदि इजाफा होता है तो पूरे देश की अर्थव्यवस्था में मुस्कराहट आना अर्थशास्त्र का स्वाभाविक नियम है। संसद का बजट सत्र चालू है और इसमें कृषि क्षेत्र की समस्याओं पर भी चर्चा होगी अतः इस बारे में विचार किया जाना चाहिए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को वैधानिक बनाने के क्या तरीके हो सकते हैं।