संपादकीय

औकात की लड़ाई

Shera Rajput

हाल ही में दो बढ़िया फ़िल्में, 'सैम बहादुर' और '12th fail' प्रदर्शित हुईं हैं जिनसे यह आशा बंधी है कि जिसे हम बॉलीवुड कहते हैं में सब कुछ 'रॉकी और रानी' ही नहीं है, यहां अर्थपूर्ण फ़िल्में भी बन सकती हैं। जैसे नाम से पता चलता है,'सैम बहादुर' सैम मानकशॉ की कहानी है जो देश के पहले फील्ड मार्शल थे। बांग्लादेश की लड़ाई में विजय का श्रेय इंदिरा गांधी के साथ-साथ उन्हें भी दिया जाता है। यह दिलचस्प है कि युद्ध के बाद 22 दिसम्बर 1971 को उन्हें लिखे एक पत्र में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका श्रेय सशस्त्र सेनाओं के साथ मानकशॉ की 'ब्रिलियंट लीडरशिप' को भी दिया था,सारा श्रेय खुद लेने का प्रयास नहीं किया। विकी कौशल जो नई पीढ़ी के सबसे प्रभावशाली अभिनेता के रूप में उभर रहे हैं, ने बढ़िया अभिनय की मिसाल क़ायम की है। हां, जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई उनका अभिनय अत्यंत कमजोर रहा और फ़िल्म में दोनों की प्रभावशाली शख्सियत से अन्याय किया गया।
लेकिन आज मैं 12th Fail की चर्चा कर रहा हूं जिसने बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या, शिक्षा का कमजोर स्तर और बेरोज़गारी की समस्या पर फ़ोकस किया है। विधु विनोद चोपड़ा की यह फ़िल्म सच्ची कहानी पर आधारित है और यह हमारी वास्तविक स्थिति से पर्दा हटाने में कामयाब हुई है जहां शिक्षा भी एक ऐसा बाज़ार बन चुकी है जिस पर क़ाबिज़ माफिया होनहार बच्चों को आगे नहीं आने देता। विशेष तौर पर जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं वह पिछड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती। कुछ सौ सरकारी नौकरियों के लिए लाखों मारधाड़ करते है। 180 आईएएस पदों के लिए 10 लाख परीक्षा में बैठते हैं। दो लाख हिन्दी- मीडियम विद्यार्थियों में से केवल 20-30 ही आईएएस या आईपीएस बन पाते हैं। यह सवाल भी खड़ा होता है कि बाक़ी का क्या होगा? यह फ़िल्म उस समय आई है जब कोटा की 'कोचिंग फ़ैक्ट्री' से लगातार सुसाइड के समाचार आ रहे हैं। पिछले साल 28 विद्यार्थियों ने वहां आत्महत्या की थी। इस वर्ष अभी तक चार सुसाइड हो चुकें हैं। इस सप्ताह ही एक आईआईटी आकांक्षी ने अपनी जान ले ली। कितना अफ़सोस है कि लगातार हो रही आत्महत्या के बावजूद समस्या का इलाज नहीं ढूंढा जा रहा। पंखे ढीले करने या नीचे नेट लगाने से कुछ नहीं होगा। पिछले महीने वहां सुसाइड करने वाली एक लड़की मां-बाप से माफ़ी मांगते यह लिख कर छोड़ गई है, I can't do JEE so I suicide. एक और लिख कर छोड़ गया, 'Yahi last opportunity hai'.
अपने बच्चे के लिए हर मां-बाप बेहतरी चाहते हैं। सरकारी नौकरी या मेडिकल या इंजीनियरिंग को प्राथमिकता दी जाती है। पर हर बच्चा डाक्टर या इंजीनियर या अफ़सर नहीं बन सकता। हर बच्चे में वह मेहनत करने की क्षमता नहीं है। कई सफल होने का दबाव नहीं झेल पाते इसलिए मुक्ति के लिए अपनी जान लेना आसान रास्ता समझ लेते हैं। फ़िल्म 'सफ़र' का किशोर कुमार के द्वारा गाए मार्मिक गीत की पंक्तियां याद आती हैं,
'फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं, जिन्हें खिलने से पहले ख़िज़ाँ खा गई',
पर 12th fail, जैसे बहुत अवार्ड मिले हैं, उस लड़के की कहानी है जिसने ज़िद्द पकड़ ली कि वह खिल कर ही रहेगा। उसने हार मानने और बेईमानी से समझौता करने से इंकार कर दिया। उसे लगातार चुनौतियां मिलती रहीं यहां तक कि उसके पिता जिसे खुद अपनी ईमानदारी के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी थीं, ने भी समझाया कि "हम जैसे लोग कभी न जीत पाएंगे… ईमानदारी की लड़ाई बेकार है"।
यह फ़िल्म आईपीएस अफ़सर मनोज कुमार शर्मा के संघर्ष की सच्ची कहानी है। वह डाकुओं से ग्रस्त चम्बल के एक छोटे से गांव की कुटिया में रहते थे जहां व्यवस्था बिल्कुल सहायक नहीं है। उल्टा बैरी है। टीचर खुद परीक्षा में नक़ल को प्रोत्साहित करते हैं। क्योंकि सब कुछ राजनेताओें के आशीर्वाद से हो रहा था इसलिए कोई रूकावट भी नहीं। अचानक एक दिन एक ईमानदार पुलिस अफ़सर छापा मारता है और हैड मास्टर को पकड़ कर ले जाता है। नकल कर रहे सारे विद्यार्थी फेल हो जाते हैं। इससे मनोज कुमार शर्मा की ज़िन्दगी भी करवट लेती है। वह ईमानदारी से सफल होने का प्रयास करता है। वह यूपीएससी परीक्षा पास करने में लग जाता है। बार बार फेल होता है। एक बार जब वह निराश हो जाता है तो सहायक गौरी भैया उसे यह कह कर प्रोत्साहित करता है कि, "यह हम सब की लड़ाई है। एक का जीत जाना तो करोड़ों भेड़ बकरियों की जीत होगी"। मनोज संघर्ष करता है और अंतिम प्रयास में वह सफल हो जाता है और वर्दी पहन उस गांव पहुंचता है जहां वह कभी धक्के खाता था। यह प्रेरक कहानी सचमुच असंख्य 'भेड़ बकरी' की कहानी है जो ज़िन्दगी में कुछ बनना चाहते हैं। वर्दी पहनने या सरकारी नौकरी की चाह बहुत है पर यह हैं कितनी? सरकारी नौकरी का लोगों में आकर्षण इसलिए ही नहीं कि पक्का वेतन मिलता है, इसलिए भी क्योंकि वह पॉवर देती है। आपका हुक्म लाखों ज़िंदगियों को प्रभावित करता है। जिन्होंने सरकारी हकूमत का दंश सहन किया है वह समझतें हैं कि सरकारी बन कर ही छुटकारा होगा।
जब इंसान अफ़सर बन जाता है तो कई बार खुद को सुप्रीम समझने लगता है। कुछ महीने पहले क़ानून में परिवर्तन का विरोध कर रहे ट्रक ड्राइवरों के साथ बैठक में जब एक युवा ड्राइवर बात नहीं मान रहा था तो मध्यप्रदेश का एक घमंडी कलेक्टर चिल्लाया, "तुम्हारी औक़ात क्या है?" इस पर जो जवाब उस युवा ड्राइवर ने दिया वह याद रखने वाला है। जब उसे बाहर निकाला जा रहा था तो वह बोला, "यही तो लड़ाई कि हमारी कोई औक़ात नहीं है"। मनोज कुमार शर्मा का संघर्ष भी एक प्रकार से अपनी 'औक़ात' बनाने का था। इसीलिए वर्दी पहने का जनून था। यह फ़िल्म यह सवाल भी उछालती है कि मुख्य पात्र तो सफल हो गया पर जो लाखों नहीं हुए उनका क्या बनेगा? वह इसी तरह धक्के खाने के लिए मजबूर है। हमारा वह देश है जहां बहुत पीएचडी की डिग्री लेकर चपरासी की सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं। इज़राइल यहां से हज़ारों मज़दूर भर्ती कर रहा है जिन्हें एक लाख रुपए मासिक से अधिक का वेतन मिलेगा। इस वेतन के लिए हमारे लोग उस युद्ध ग्रस्त देश को जाने को तैयार है जहां हमास के कारण जान खतरें में हो सकती है। पर वह मजबूर हैं क्योंकि यहां नौकरी नहीं है। उल्लेखनीय है कि आवेदन देने वालों में एमए और एमफ़िल भी हैं। कितनी मजबूरी है? अफ़सोस की बात है कि शिक्षा हमारी प्राथमिकता में नहीं है। स्कूल तो खोले जा रहे हैं पर गुणवत्ता क्या है? हाल ही में जारी की गई शिक्षा के बारे एएसईआर रिपोर्ट के अनुसार कई 14-18 आयु के बच्चों के पास बेसिक स्किल नहीं है और क्लास दूसरी और तीसरी के बच्चों से जो योग्यता अपेक्षित है, वह भी प्राप्त नहीं। 25 प्रतिशत बच्चे तो अपनी प्रादेशिक भाषा में भी सही पढ़ लिख नहीं सकते। आधे गणित के विभाजन के साधारण सवाल नहीं कर सकते। 42 प्रतिशत अंग्रेज़ी का साधारण वाक्य नहीं पढ़ सके। ग्रामीण विद्यार्थी विशेष तौर पर पिछड़े हैं। दूरस्थ क्षेत्रों में अध्यापकों की कमी और ग़ैर हाज़िरी बड़ी समस्या है। बिहार में लगभग दो लाख अध्यापकों की कमी है। हरियाणा जैसे विकसित प्रदेश में भी सरकारी स्कूलों में 30000 अध्यापकों की कमी है। दिलचस्प है कि पढ़ाई में चाहे यह बच्चे फिसड्डी हों पर 90 प्रतिशत के पास स्मार्टफ़ोन हैं इसलिए कई विशेषज्ञ सुझाव दे रहें हैं कि इन्हें पढ़ाने के लिए स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल किया जाए।
अगर हमने तरक्की करनी है तो अध्यापकों की भर्ती, उनकी ट्रेनिंग और सरकारी शिक्षा में सुधार अत्यावश्यक है। पाठ्यक्रम में भी समय की ज़रूरत के अनुसार परिवर्तन चाहिए और मानसिकता बदलनी होगी। बहुत अध्यापक अभी भी गुरु की सही परिभाषा में आते हैं पर बहुत ऐसे हैं जो नक़ल करवा पास करवाने की कोशिश करते हैं। शिक्षा व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार घुसपैठ कर गया है। सरकार ने नक़ल रोकने के लिए सख्त क़ानून बनाया है पर शक है कि इससे नक़ल रूकेगी। शिक्षा की तरफ गम्भीर सोच नहीं है। क्या इसका कारण वही है जो 12th fail फ़िल्म का एक पात्र कहता है, "अब अगर जनता पढ़ लिख गई तो नेताओं के लिए बड़ी समस्या हो जाएगी, नाहीं?" इस कड़वे कटाक्ष को एक तरफ़ भी रख दें, असली समस्या है कि समस्या है। आगे एआई (आरटिफिशल इंटेलिजेंस)का जमाना है। नौकरियां कम भी हो सकती हैं। इसका मुक़ाबला पढ़े लिखे होशियार युवाओं से ही किया जा सकता है। वह मुक़ाबला कैसे करेंगे जिन्हें पढ़ना लिखना या हिसाब नहीं आता?सरकार पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की बात करती है और 2047 तक विकसित देश बनने की बात करती है पर यह प्रशिक्षित युवाओं के बल पर ही हो सकता है। आईआईटी से पढ़े टॉप 60 प्रतिशत तो विदेश जा रहे हैं।
दुनिया की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के शीर्ष पदों पर भारतीय मूल के लोगों की नियुक्ति बताती है कि हम किसी से कम नहीं, केवल मौक़ा मिलना चाहिए। उन्हें मौक़ा विदेश में मिला और वह कामयाब हो गए। व्यवस्था को युवाओं का विश्वास जीतना होगा पर कोशिश नहीं हो रही। क्या संसद या विधानसभाओं में शिक्षा को लेकर सार्थक बहस कभी देखी है? सारा जोर उन मुद्दों की तरफ़ है जो हमारी ज़िन्दगी को सीधा प्रभावित नहीं करते।
मनोज कुमार शर्मा जैसों की सफलता की कहानी ज़रूर आशा पैदा करती है पर कितने और हैं जिन्हें व्यवस्था ने उनकी औक़ात दिखा कर ज़िन्दगी के अंधेरे में धकेल दिया है?

– चंद्रमोहन