संपादकीय

जम्मू-कश्मीर का ‘पूर्ण’ दर्जा

Aditya Chopra

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि कश्मीर की समस्या मूल रूप से हिन्दू या मुसलमान की समस्या नहीं है बल्कि यह भारतीय संघ में विलीन विभिन्न क्षेत्रीय अस्मिताओं की पहचान का सवाल है। हमें इसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब 1947 में भारत का विभाजन हो रहा था और पूरे देश में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे तो महात्मा गांधी ने कहा था कि 'इस घनघोर अंधेरे में कश्मीर से एक उम्मीद की किरण फूटी है जहां एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ'। यह मैं पहले भी लिख चुका हूं कि कश्मीरी जनता पाकिस्तान निर्माण के सख्त खिलाफ थी और इसकी आबादी मुस्लिम बहुल होने के बावजूद यहां मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग पांव तक नहीं रख पाई थी। बंटवारे के बाद कश्मीरी जनता ने भारत के साथ रहना पसन्द किया था और यहां के धर्मनिरपेक्ष संविधान के साये में ही अपनी रियासत का अलग संविधान बनाया था जिसकी पहली लाइन यही थी कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। अतः कश्मीरी जनता हर मायने में उतनी ही हिन्दोस्तानी है जितने कि भारत के अन्य राज्यों के लोग।
यह भी एेतिहासिक तथ्य है कि इस रियासत के महाराजा हरिसिंह ने जब 26 अक्तूबर, 1947 को अपने राज का भारतीय संघ में विलय किया था तो कुछ विशेष रियायतें रियासत के लिए मांगी थीं जिन्हें बाद में संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़कर पूरा किया गया था। हालांकि यह प्रावधान अस्थायी था जिसे 5 अगस्त, 2019 को भारत की संसद ने मोदी सरकार के साये में निरस्त कर दिया और इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में विभक्त कर दिया। जम्मू-कश्मीर में यहां की विधानसभा के लिए अंतिम चुनाव 2014 में हुए थे जिसके बाद इस राज्य में भाजपा व स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद की क्षेत्रीय पार्टी पीडीपी की मिलीजुली सरकार बनी थी। यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही अन्तर्विरोधों के कारण 2018 में गिर गई और बाद में राज्यपाल व राष्ट्रपति शासन इस राज्य में लागू रहा। तद्नन्तर 5 अगस्त को इस राज्य का विभाजन कर दिया गया। चुनाव आयोग ने इस अर्ध राज्य में चुनाव कराने का फैसला अब किया है। इसलिए आगामी 1 अक्तूबर तक इस राज्य में तीन चरणों में चुनाव सम्पन्न हो जायेंगे जिनका नतीजा 8 अक्तूबर को हरियाणा के चुनावों के साथ आयेगा।
राज्य के चुनावों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस समाहित इंडिया गठबन्धन व भारतीय जनता पार्टी के बीच होना है। कांग्रेस यहां राज्य की प्रभावशाली क्षेत्रीय पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस के साथ गठबन्धन करके चुनाव लड़ रही है। नेशनल काॅन्फ्रेंस स्व. शेख अब्दुल्ला की पार्टी है जिन्होंने भारत की आजादी से पहले ही कश्मीर रियासत में राजशाही का अन्त करके लोकतन्त्र स्थापित करने की लड़ाई लड़ी थी। मगर बाद में इस रियासत में अनुच्छेद 370 लागू होने की वजह से राजनीति अदलती-बदलती रही और कांग्रेस व नेशनल काॅन्फ्रेंस के बीच ही असली लागडांट होती रही। इस स्तम्भ में मेरा जम्मू-कश्मीर रियासत का पिछला 77 साल का इतिहास लिखने का कोई इरादा नहीं है बल्कि केवल इतना कहना है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण व विशेष राज्य का दर्जा खत्म होने के बाद यहां के लोगों की अपेक्षाएं भारत के अन्य पूर्ण राज्यों के लोगों की तरह हो गई हैं क्योंकि अनुच्छेद 370 की विभिन्न धाराओं व उप-धाराओं का निवारण 1965 के भारत-पाक युद्ध के पहले से ही होना शुरू हो गया था जो 2019 के आते-आते नामचारे की व्यवस्था रह गई थी मगर इसके बावजूद राज्य का अलग संविधान व ध्वज होने की वजह से पाक परस्त अलगाववादी ताकतें इसका लाभ उठाने से नहीं चूकती थीं और पाकिस्तान खुद भी इस अनुच्छेद 370 के चलते अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर को एक समस्या के रूप में दिखाता रहता था। अतः अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अनुच्छेद 370 को कब्र में गाड़ दिया गया है जिसके पुनः लागू होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। इस हकीकत को आम कश्मीरी न समझते हों एेसा भी नहीं है इसीलिए वे अब पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं जो कि जायज इस वजह से ठहराया जा सकता है क्योंकि स्वतन्त्र भारत में यह पहला अवसर है कि जब किसी राज्य का दर्जा ऊपर करने की जगह नीचे गिराया गया हो। कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने कल जम्मू-कश्मीर का पहला चुनावी दौरा किया और उसमें साफ किया कि उनकी पार्टी राज्य को पूर्ण दर्जा देने के प्रति प्रतिबद्ध है। जम्मू-कश्मीर का जो मौजूदा दर्जा है वह दिल्ली राज्य जैसा ही है जिसमें पुलिस व प्रशासन उपराज्यपाल के हाथ में होता है। जम्मू-क्श्मीर की विशेष संजीदा स्थिति को देखते हुए यदि यह व्यवस्था की गई है तो फिर इसके मुख्यमन्त्री की हैसियत क्या होगी? जाहिर तौर पर इसका जवाब भाजपा को देना होगा।
भाजपा को जम्मू क्षेत्र में मजबूत माना जाता है मगर पिछले दस सालों में राज्य में नगर निकाय चुनाव व जिला विकास परिषदों के चुनाव भी हो चुके हैं। इन संस्थानों में भारी भ्रष्टाचार की खबरें राज्य के निवासियों को परेशान कर रही हैं। दूसरी ओर कश्मीर घाटी में अलगाववादी संगठनों के लोग भेष व नाम बदल कर निर्दलीय उम्मीदवारों के रूप में भी चुनाव लड़ रहे हैं परन्तु पिछले दिनों सम्पन्न लोकसभा के चुनावों में राज्य के पूर्व मुख्यमन्त्री व नेशनल काॅन्फ्रेंस उपाध्यक्ष श्री उमर अब्दुल्ला खुद बारामूला सीट से चुनाव हार गये थे। इसलिए नेशनल काॅन्फ्रेंस व कांग्रेस दोनों को सोचना होगा कि वादी के लोगों की अपेक्षाएं क्या हैं। मगर अब चुनाव राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए हो रहे हैं अतः कांग्रेस व नेशनल काॅन्फ्रेंस के प्रत्याशियों के लिए भी चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं होंगे। इन दोनों पार्टियों में अनुच्छेद 370 को लेकर भी मतभेद है। नेशनल काॅन्फ्रेंस इसे पुनः जीवित करने की बात कह रही है तो कांग्रेस इस बारे में चुप है मगर इसकी हकीकत खुद उमर अब्दुल्ला व नेशनल काॅन्फ्रेंस के अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला कई बार अपने पिछले बयानों में बयां कर चुके हैं और सबसे ऊपर यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस अनुच्छेद के समाप्त करने को उचित व सही बताया है। अतः कश्मीरी जनता को सभी दलों की असलियत जाननी होगी।