संपादकीय

इंडिया गठबन्धन का भविष्य?

Aditya Chopra

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद यह सवाल बहुत गंभीरता से उठने लगा है कि विपक्षी दलों के बने 'इंडिया गठबन्धन' का भविष्य क्या होगा? तीन हिन्दी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को जो तूफानी जीत हासिल हुई है और लोगों ने बिना किसी मुख्यमन्त्री का चेहरा आगे रखे अपना वोट प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर दिया है उसका असर लोकसभा चुनावों पर क्या होगा? जाहिर है यह सवाल 28 दलों के गठबन्धन 'इंडिया' को भीतर तक प्रभावित कर रहा होगा। अगर हम गौर से देखें तो इस गठबन्धन की सबसे बड़ी ताकत कांग्रेस पार्टी है जो कि भाजपा के बाद देश की एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है। विडम्बना यह है कि गठबन्धन में शेष सभी पार्टियां छोटे-बड़े क्षेत्रीय दल हैं और आगामी लोकसभा चुनावों में ये सभी दल कांग्रेस की कीमत पर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि हाल में सम्पन्न राज्यों के चुनावों में इंडिया गठबन्धन की सदस्य दो पार्टियों समाजवादी पार्टी व आम आदमी पार्टी ने इन राज्यों में अपने प्रत्याशी उतार कर केवल कांग्रेस के वोट ही हजम करना चाहे।
मध्य प्रदेश में उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव की पार्टी ने 70 से ज्यादा उम्मीदवार उतारे जबकि 'आप' ने 100 से भी ज्यादा प्रत्याशी इस राज्य में उतारे जबकि आप ने राजस्थान से लेकर मिजोरम तक में भी जोर-आजमाइश में हिस्सा लिया। इन चुनावों में कांग्रेस केवल तेलंगाना में ही जीती और चार अन्य राज्यों में हारी मगर उसके वोट प्रतिशत में कमी नहीं हुई बल्कि कुछ राज्यों में बढोत्तरी हुई। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि भारत के लोग भाजपा के असली विरोधी के रूप में कांग्रेस को ही मान्यता देते हैं। अतः गठबन्धन में कुछ क्षेत्रीय दलों का यह विमर्श कांग्रेस को ही कमजोर करने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता कि जिस राज्य में जो क्षेत्रीय दल मजबूत है उसकी अगुवाई में ही वहां लोकसभा चुनाव लड़ा जाये। यह विमर्श चुनाव से पहले ही चुनाव हारने की घोषणा है क्योंकि लोकसभा चुनावों में असली मुकाबला प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रिय छवि से होना है। इसका मुकाबला करने के लिए विपक्ष को अपनी तरफ से कोई एेसा राष्ट्रीय विकल्प देना होगा जो श्री मोदी की लोकप्रियता को टक्कर देता हुआ लगे। राज्यों के चुनाव में कांग्रेस ने मतदाताओं के सामने 'लोक कल्याणकारी राज' का सशक्त विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया जिसमे उसे आंशिक सफलता ही मिल पाई क्योंकि कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ने के बावजूद विजय श्री मोदी की लोकप्रियता की हुई।
लोकसभा चुनावों में यह चुनौती और भी अधिक मजबूत बन कर उभर सकती है। अतः इंडिया गठबन्धन को बजाये आपस में सीटों के लिए लड़ने के लोकप्रिय जन विमर्श की तलाश अभी से करनी होगी क्योंकि राज्यों में भी भाजपा जिस प्रकार राष्ट्रीय मुद्दे उठाकर और आंचलिक लोक विसंगतियों को सतह पर चुनाव जीती है उससे उसकी चुनावी कुशाग्रता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इंडिया गठबन्धन को यह भी विचार करना होगा कि भाजपा की केन्द्र सरकार जिस प्रकार से 'सरकारी विकास यात्राओं' का अखिल भारतीय स्तर पर आयोजन कर रही है वह 'लोक कल्याणकारी राज' का ही एक स्वरूप ले सकता है अतः इंडिया गठबन्धन में शा​िमल क्षेत्रीय दल इसका मुकाबला अपने जातिवादी एजैंडे से नहीं कर सकते क्योंकि इन यात्राओं का सर्वाधिक लाभ समाज के दबे व पिछड़े वर्ग को ही होने जा रहा है। ये यात्राएं चुनाव के समय 'मोदी के समाजवाद' के रूप में पेश करने से भाजपा क्यों हिचकेगी? इसके साथ ही कांग्रेस को भी यह ध्यान रखना होगा कि भारत में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर 1991 में वही लाई थी। वर्तमान समय इसी व्यवस्था का चरम स्वरूप है। अतः इंडिया गठबन्धन के क्षेत्रीय दलों को ही किसी एेसे वैकल्पिक विमर्श को खड़ा करने के लिए कांग्रेस को मनाना होगा जिसके तार गांधीवादी विचारों से जाकर जुड़ते हों और जो अर्थव्यवस्था में दबे व पिछड़े लोगों को मुख्य भूमिका देते हों। यह कोई छोटी चुनौती नहीं है क्योंकि जब भारत में कोई एक नेता जन प्रियता में शिखर को छूने लगता है तो उसे उसकी सरकार की नीतियों को निशाने पर रखकर ही जनता का मोह भंग किया जा सकता है।
सवाल यही है कि क्या इंडिया गठबन्धन में सिवाय कांग्रेस के किसी अन्य दल में एेसा सोचने की क्षमता है? इसमें तो हर क्षेत्रीय दल का नेता स्वयं को अपने राज्य में सर्वाधिक लोकप्रिय मानने के भ्रम में रहता है। इसके साथ विदेश नीति से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और शिक्षा नीति से लेकर स्वास्थ्य नीति तक पर सबके अलग-अलग विचार सामने आते रहते हैं। जबकि दूसरी तरफ भाजपा के विचार हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद के दायरे में इन सब विषयों पर अपनी नीतियों का बखान करते दिखते हैं। अब लोकसभा चुनावों में केवल चार महीने का समय बचा है मगर इंडिया गठबन्धन में अभी तक इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि ये राष्ट्रीय चुनाव किस वैकल्पिक विमर्श पर लड़े जायेंगे। हम 'भारत का विचार' या 'आईडिया आॅफ इंडिया' की विभिन्नता की बात तो करते हैं मगर राजनीति में धर्म के दखल पर चुप्पी लगा जाते हैं। इन विरोधाभासों को दूर करके ही कोई सशक्त विकल्प उभर सकता है। दोनों नावों में पैर रखने से कभी दरिया पार नहीं हो सकता।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com