7 अक्तूबर को हमास के आतंकवादियों द्वारा इज़राइल पर हमले के बाद दुनिया भर में इज़राइल के प्रति जो हमदर्दी थी वह ग़ाज़ा पर लगातार और अंधाधुंध बमबारी के बाद अब पूरी तरह से लुप्त हो गई है। इज़राइल को अब एक क्रूर और असंवेदनशील बेसुध देश की तरह देखा जा रहा है जो बदले की भावना में इतना बह गया है कि हज़ारों बेकसूरों को मार चुका है। पूछा जा रहा है कि ग़ाज़ा के कितने हज़ार और बच्चों का खून बहाने के बाद इज़राइल की प्यास बुझेगी? हमास ने 1200 इज़राइली मारे थे जबकि इज़राइल हमास को तबाह करने की असफल कोशिश में 20000 फ़िलस्तीनियों को मार चुका है। यह संख्या लगातार बढ़ रही है। 5000 तो बच्चे ही मारे जा चुके हैं। जो कई सौ मलबे में दबे हैं वह अलग हैं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एनटोनियो गुटरेस का कहना है कि "ग़ाज़ा बच्चों का क़ब्रिस्तान बन चुका है"। न्यूयार्क टाइम्स में पैट्रिक किंग्सले ने लिखा है "पिछले तीन वर्षों में मैंने क़रीब एक दर्जन बार इस इलाक़े की यात्रा की है। अब इसे पहचानना ही मुश्किल है। घरों की दीवारें या छतें, या दोनों ग़ायब हैं। बहुत से घर ताश के पतों की तरह एक-दूसरे पर गिरे हुए हैं"। क्रूरता ऐसी है कि शरणार्थियों के जबालया शरणार्थी शिविर पर बमबारी की गई जिसमें 45 लोग मारे गए। उतरी ग़ाज़ा तो मटियामेट हो ही चुका है अब दक्षिण ग़ाज़ा जहां शरणार्थी रह रहें हैं, पर भी बमबारी हो रही है।
जिस इलाक़े की यह पत्रकार बात कर रहा है वहां कोई पच्चीस लाख लोग रहते थे जिन्हें बमबारी के कारण घरबार छोड़ कर भागना पड़ा था। अनुमान है कि गाजा की 80 प्रतिशत जनसंख्या बेघर हो चुकी है। इतनी बड़ी संख्या के लिए बसने की कोई जगह नहीं है और न ही वह वापिस ही आ सके क्योंकि वापिस आने के लिए कुछ बचा ही नहीं। इज़राइल हमास से बदला लेना चाहता है पर बदला बेक़सूर फ़िलस्तीनियों से लिया जा रहा है। पिछले 75 वर्षों में इज़राइल ने अपने सैनिक बल और पश्चिम के देशों, विशेष तौर पर अमेरिका, के समर्थन से फ़िलिस्तीन को दुनिया के सबसे बड़े ओपन- एयर जेल में परिवर्तित कर दिया था जहां बाहर से राहत सामग्री भी इज़रायल की अनुमति के बिना प्रवेश नहीं कर सकती थी। 25 लाख लोग घनी आबादी वाली तंग बस्तियों में रहते हैं जहां इज़राइल की ख़ुफ़िया एजेंसियां उन के दैनिक जीवन पर सख्त नज़र रखती हैं। जहां पहले रोज़ाना राहत सामग्री से भरे 500 ट्रक प्रवेश करते थे वहां अब एक दर्जन को मुश्किल से अन्दर आने की इजाज़त है। कई लोग तो शिकायत कर रहे हैं कि इज़राइल ग़ाज़ा के लोगों को भूखा मारना चाहता है, जिसका प्रतिवाद इज़राइल कर रहा है।
इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने कहा है कि वह तब तक लड़ते जाएंगे जब तक हमास तबाह नहीं हो जाता। पर अगर वह हमास को तबाह नहीं कर सके तो क्या इसी तरह बेक़सूर फ़िलिस्तीनियों पर बम और मिसाइल बरसाते रहेंगे? यहूदियों ने अपने इतिहास में यूरोप में बहुत अत्याचार सहा है। हैरानी है कि वैसा ही अत्याचार वह फ़िलस्तीनियों के साथ कर रहे हैं। शिकार अब अत्यंत क्रूर शिकारी बन गया है। इस प्रकार की सरकारी हिंसा तो किसी नस्ली सफ़ाई से कम नहीं। यूनिसेफ ने ग़ाज़ा की स्थिति को 'मानवीय त्रासदी' कहा है और यह भी कहा है कि ग़ाज़ा के बच्चों के पास पीने के लिए मुश्किल से पानी की एक बूंद है। वहां अस्पताल काम नहीं कर रहे। अधिकतर तो वैसे ही बमबारी से ध्वस्त हैं। वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम ने बताया है कि वहां भुखमरी की हालत है। चारों तरफ़ गंदगी फैली हुई जिस कारण डाक्टर चेतावनी दे रहे हैं कि जितने बच्चे बमबारी से मारे गए उससे कहीं अधिक बीमारी से मर सकते हैं।
इस अंधी क्रूरता पर दुनिया भर में विरोध हो रहा है। फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड जो अब तक इज़राइल का समर्थन करते रहे हैं ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र में युद्ध विराम के प्रस्ताव को समर्थन दिया है। अमेरिका ने प्रस्ताव को वीटो किया है जबकि भारत समेत 153 देशों ने इसे समर्थन दिया है। हाल ही में अमेरिका ने इज़राइल से कहा है कि वह चाहता है कि वह हमास पर युद्ध की रफ्तार कम करें पर जब इज़राइल ने ऐसा नहीं किया तो बाइडेन ने पहली बार इज़राइल की सख्त आलोचना करते हुए कहा कि वह देश "अंधाधुंध बमबारी" के कारण अंतर्राष्ट्रीय समर्थन खोने की स्थिति में है। पर इसके बावजूद बाइडेन लगातार इज़राइल को बम और मिसाइल सप्लाई करते जा रहे हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में पहली बार युद्ध विराम के पक्ष में वोट डाला है। भारत अभी तक इस मुद्दे पर वोट करने से बचता रहा है। हम 'मानवीय सहायता' या 'युद्ध की तीव्रता कम करने' की वकालत करते रहे हैं। भारत और दूसरे देश जो पहले तटस्थ थे या इज़राइल का पक्ष ले रहे थे के द्वारा अब युद्ध विराम के पक्ष में वोट डालना बताता है कि इज़राइल किस तरह अलग- थलग पड़ रहा है। भारत का इज़राइल के साथ पुराना रिश्ता है और उस देश और वहां के लोगों के प्रति यहां बहुत सद्भावना रही है। अरब देशों ने पाकिस्तान के साथ हमारे युद्धों के दौरान उस देश का पक्ष लिया था और 1962 के चीन के साथ युद्ध में तटस्थ रहे थे। इसका यहां असर हुआ था जबकि इज़राइल इन युद्धों में सैनिक सामान से हमारी सहायता करता रहा है। भारत में क्योंकि यहूदियों से ग़लत व्यवहार नहीं किया जाता, जैसा यूरोप के कुछ देशों में अभी भी हो रहा है, इसलिए उस देश का हमारे साथ लगाव रहा है। कारगिल के युद्ध के समय इज़राइल ने हमें वह सैनिक सामान दिया जिसकी हमें बहुत ज़रूरत थी। एक रिपोर्ट के अनुसार इज़राइल की सेना ने अपने इमरजैंसी स्टाक में से निकाल कर भारत को सप्लाई भेजी थी।
प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हा राव ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक सम्बंध क़ायम किए थे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत घनिष्ठ बना दिए हैं। वह पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इज़राइल की यात्रा की है। हमारे उस देश के साथ अब गहरे सामरिक और आर्थिक सम्बंध है जिस कारण भारत इसकी मनमानी के प्रति आंखें मूंदता रहा है। जब हमास का हमला हुआ तो प्रधानमंत्री मोदी ने इज़राइल के साथ एकता दिखाने में एक मिनट नहीं गंवाया। पर अब हालात बदल गए हैं। हमारी बढ़ती ताक़त के कारण अरब और खाड़ी के देशों ने पाकिस्तान के प्रति झुकाव छोड़ दिया है और साऊदी अरब, यूएई, कतर, ईरान जैसे देशों के साथ हमारे गहरे सामरिक, सुरक्षा और व्यापारिक सम्बंध बने हैं। भारत की ऊर्जा की ज़रूरत का 50 प्रतिशत इन देशों से पूरा होता है। 90 लाख भारतीय इन देशों में रहते हैं जो 50 अरब डॉलर वार्षिक स्वदेश भेजते हैं। इन देशों के साथ सम्बंध बेहतर करने में प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत मेहनत की है। हमास के हमले और उसके बाद इज़राइल की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया ने भारत सरकार के लिए जटिल कूटनीतिक चुनौती खड़ी कर दी थी। ग़ाज़ा की तबाही के बाद लोक राय बदल रही है। एक तरफ़ बुरे समय में काम आने वाला इज़राइल है तो दूसरी तरफ़ सारे अरब देश जो ग़ाज़ा के लोगों पर अत्याचार से क्रोधित हैं। ग़ाज़ा में युद्ध विराम का पक्ष लेकर भारत ने रिश्तों में कुछ संतुलन क़ायम करने का प्रयास किया है। यह मानवीय दृष्टिकोण से भी सही है। लेकिन अगर यह युद्ध लम्बा चलता गया तो हमारे लिए भी कूटनीतिक चुनौती बढ़ती जाएगी क्योंकि हम बीच के रास्ते पर चलना चाहेंगे।
लेकिन असली चुनौती तो इज़राइल के लिए है क्योंकि इतनी तबाही करने के बावजूद न वह हमास को ही ख़त्म कर सके हैं और न ही अपने अपहृत लोगों को ही निकाल सके हैं। उल्टा वह अंतर्राष्ट्रीय खलनायक बनते जा रहे हैं जिसकी अलग क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। फ़िलस्तीनियों को भी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी पर इज़राइल खुद चैन से नहीं बैठ सकेगा। यह भी मालूम नहीं कि युद्ध का अंत क्या है? ग़ाज़ा का पुनर्निर्माण कौन करेगा? जो परिवार तबाह हो चुकें हैं उनका क्या होगा? ग़ाज़ा की सारी व्यवस्था तबाह हो चुकी है, प्रशासन कौन चलाएगा? इज़राइल ज़ोर-शोर से बमबारी कर रहा है पर वह इस युद्ध का विजेता नहीं होगा। उनका अत्याचार नए आतंकवादियों की पीढ़ी पैदा करेगा जो वर्तमान हमास की तरह उन्हें परेशान करती रहेगी। नए शहीद पैदा होंगे, नए आतंकवादी पैदा होंगे। अरब देशों में भी हमास और हिज़बुल्ला जैसे और संगठन खड़े हो सकते हैं। इस समय फ़िलस्तीनी पिट रहे हैं। तबाह हो रहें हैं। पर समय के साथ वह सम्भलेंगे और हैरानी नहीं होगी कि युवा पीढ़ी जो अपना सब कुछ खो बैठी है, बदला लेने की भावना से प्रेरित होगी। हिंसा और जवाबी हिंसा का ऐसा चक्र शुरू हो सकता है जिससे कोई भी चैन से न रहे, न इज़राइली न फ़िलिस्तीनी। समस्या का हल जियो और जीने दो के सिद्धांत में है। मानवीय दृष्टिकोण चाहिए। इज़राइल भी रहे, फ़िलिस्तीन भी रहे। पर इज़राइल के शासकों ने न पहले इसे दिल से माना, न अब ही मानने को तैयार लगते हैं।
फ़िलिस्तीन के कवि मोसाब अबू तोहा ने एक मार्मिक कविता में लिखा है, "मेरी चार साल की बेटी याफा, अपनी गुलाबी ड्रेस में बम का विस्फोट सुनती है, वह लम्बा सांस लेती है और अपनी ड्रेस की झालर से अपना मुंह ढक लेती है, उसका साढ़े पांच वर्ष का भाई यज़ान अपना कम्बल उठाता है, वह अपना कम्बल अपनी छोटी बहन पर डाल देता है, तुम अब छिप सकती हो, वह उसे भरोसा देता है"। पर वहां कोई छिप नहीं सकता, न अस्पताल में न स्कूल में और न ही भाई के कम्बल में। खूनी बदले ने उस अभागे देश को क़ब्रिस्तान में बदल दिया है।
– चंद्रमोहन