राष्ट्रपति भवन में सम्पन्न राज्यपालों के दो दिवसीय सम्मेलन से जो सन्देश निकला है वह यह है कि राज्यपालों को संविधान के घेरे में रह कर अपने राज्यों की समस्याओं पर भी पैनी निगाह रखनी चाहिए। संविधान में यह स्थिति स्पष्ट है कि राज्यपाल को अपने राज्य में संविधान के शासन की गारंटी देनी चाहिए। भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में अलग-अलग राज्य में अलग-अलग राजनैतिक पार्टी की सरकार हो सकती है परन्तु शासन संविधान का ही होगा और प्रत्येक राजनैतिक दल की सरकार को भी संविधान के घेरे में ही रह कर शासन चलाना होगा। राज्यपाल के पद के बारे में संविधान सभा में हमारे पुरखों ने बहुत गर्मागरम बहस की थी और तब वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि राज्यपाल केन्द्र सरकार के 'रीजेंट' के तौर पर नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रतिनििध के तौर पर काम करेगा जिसका मुख्य कार्य अपने राज्य की जनता की इच्छा के अनुरूप स्थायी बहुमत की सरकार गठित कराना होगा। जनता द्वारा चुनी गई किसी भी दल की सरकार राज्यपाल की सरकार उसी तरह कहलायेगी जिस प्रकार केन्द्र में किसी भी राजनैतिक पार्टी की सरकार राष्ट्रपति की अपनी सरकार होती है।
राज्यपालों का काम दैनन्दिन की शासन गतिविधियों में भाग लेना नहीं होगा क्योंकि वह राज्य का संवैधानिक मुखिया उसी प्रकार होगा जिस प्रकार राष्ट्रपति केन्द्र सरकार के होते हैं। मगर एक तथ्यातमक फर्क यह रहेगा कि राष्ट्रपति जनता द्वारा परोक्ष रूप से चुने हुए होते हैं जबकि राज्यपाल नियुक्त किये हुए। अतः उसके अति क्रियाशील होने का अर्थ राज्य सरकार के कामों में व्यवधान पैदा करना नहीं हो सकता जैसा कि कुछ चुनीन्दा राज्यों में हम आजकल देख रहे हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि राज्यपाल कोई चुना हुआ व्यक्ति नहीं होता बल्कि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होता है और वह तभी तक अपने पद पर रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति उससे प्रसन्न हैं। हमारे पुरखे व्यापक दूरदृष्टि से यह व्यवस्था बना कर गये हैं। यही वजह है कि किसी भी राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए अब केवल राज्यपाल की अनुशंसा ही काफी नहीं रही बल्कि एेसे आदेश की संसद के दोनों सदनों राज्यसभा व लोकसभा में भी मंजूरी लेनी होगी। इससे साफ है कि राज्यपाल के क्रियाशील होने की कुछ सीमाएं पहले से ही निश्चित हैं।
हमने पिछले दिनों देखा कि किस प्रकार कुछ चुनीन्दा राज्यों के राज्यपाल सम्न्धित विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कुंडली मार कर बैठे हुए थे। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें आड़े हाथों लिया और आदेश जारी किया कि कोई भी राज्यपाल अनिश्चित काल तक के लिए विधेयकों को नहीं रोक सकता है। वैसे संविधान में राज्यपालों के लिए काम करने को बहुत है क्योंकि अनुसूची छह में राज्यपालों को आदिवासी इलाकों व लोगों के विकास के लिए विशेष अधिकार दिये गये हैं। जब यह अनुसूची बन कर तैयार हो गई तो इसे 'संविधान के भीतर संविधान' का नाम तक कुछ विधि विशेषज्ञों ने दिया था। अभी हाल में ही हमने प. बंगाल के राज्यपाल को नारी उत्पीड़न के मामले में फंसते हुए भी देखा। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। कहने का मतलब यह है कि राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर भी विवाद हो सकता है। मगर एक बात साफ है कि राज्यपाल 'सादिके अमीन' ही होना चाहिए और उसे केवल संविधान की बात सुननी चाहिए। मगर इस पद पर आसीन विशिष्ट व्यक्तियों के अनुभव का लाभ भी राज्य सरकारों को उठाना चाहिए न कि उनसे लाग-डांट के सम्बन्ध बनाने चाहिए। उनके राज्यों में राजनीति में स्वच्छता या सदाकत रहे इसका ध्यान भी उन्हें रखना चाहिए। विशेषकर सरकारों के गठन के समय विधायकों के मोल-तोल करने की परंपराओं की उन्हें काट सोचनी चाहिए। किसी भी दल द्वारा विधायकों की खरीद-फरोख्त करने के मामलों पर उन्हें वक्र दृष्टि सर्वदा रखनी चाहिए। संविधान कहता है कि राज्य में बहुमत की स्थायी सरकार देने का भार राज्यपाल के कन्धों पर ही होता है। इस सन्दर्भ में हमें कर्नाटक का वह किस्सा याद रखना चाहिए जब वहां अपना बहुमत का दावा विधानसभा में सिद्ध करने के लिए श्री देविउरप्पा को तीन सप्ताह से अधिक का समय राज्यपाल ने दे दिया था और मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया था जिसने केवल दो दिन के भीतर बहुमत साबित करने का समय ही दिया था। राज्यपालों का कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने-अपने राज्यों में भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए मुख्यमन्त्रियों के साथ वार्तालाप करते रहे और स्वयं कोई भी कार्रवाई करने से बचें क्योंकि संविधान उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता है। नियुक्त किया गया व्यक्ति कभी भी चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार की अवहेलना नहीं कर सकता बेशक वह उसी की सरकार होती है।
राज्यपालों के सम्मेलन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अपील की है कि राज्यपाल अपने राज्यों के गरीबों की दशा पर ध्यान दें और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के बारे में लोगों को बताये। राज्यपाल यह काम केवल राज्य सरकारों की मार्फत ही कर सकते हैं। क्योंकि दैनन्दिन के प्रशासन में हस्तक्षेप करना उनका काम नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपने-अपने राज्यों में राज्यपाल बेशक स्वतन्त्र रूप से संवैधानिक दायरे में रह कर काम कर सकते हैं क्योंकि वे सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं। इस क्षेत्र में काम करने के लिए उन्हें स्व. राष्ट्रपति भारत रत्न श्री प्रणव मुखर्जी का अनुसरण करना चाहिए। श्री मुखर्जी जब 2012 से लेकर 2017 तक राष्ट्रपति थे तो उन्होंने विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का सम्मेलन भी राष्ट्रपति भवन में किया था और इस बात पर जोर दिया था कि भारत के विश्वविद्यालयों को शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने हेतु मेधावी व योग्य शिक्षकों (फैकल्टी) की तलाश करनी चाहिए और प्रयोगशालाओं में तकनीकी उन्नयन व नवाचार पर जोर दिया जाना चाहिए।