हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणामों से एक बारगी राज्य के लोग ही चौंक गये हैं क्योंकि इन चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत जहां पिछले 2019 के चुनावों के मुकाबले 11 प्रतिशत बढ़ा और भाजपा के वोट प्रतिशत से मात्र .85 कम रहा वहीं कांग्रेस की 11 सीटें भाजपा से कम रहीं। इन चुनावों में भाजपा को 48 व कांग्रेस को 37 सीटें मिली जबकि पिछले चुनावों में कांग्रेस को 31 सीटें मिली थी और भाजपा को 40 सीटें मिली थीं। 2024 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 39.09 प्रतिशत व भाजपा को 39.94 प्रतिशत वोट मिले। 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 36.44 प्रतिशत व कांग्रेस को 28.09 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। इसी के अनुपात में उनकी सीटें भी क्रमशः 40 व 31 आयीं थीं। अतः यह विचारणीय है कि केवल .85 प्रतिशत वोट कम रहने से कांग्रेस की 11 सीटें कम कैसे हो गई? इसका एक कारण यह हो सकता है कि कांग्रेस के प्रत्याशी अधिक मतों के अन्तर से जीते हों जबकि भाजपा के उम्मीदवार कम-कम अन्तर से विजयी रहे हों। जब चुनाव में एेसी स्थिति होती है तो राजनैतिक दलों की चुनाव प्रबन्धन क्षमता का भी पता चलता है।
बेशक यह कहा जा सकता है कि हरियाणा में कांग्रेस के पक्ष में वोटों का जो उभार था उसे देखते हुए इसकी हवा कही जा सकती थी मगर दूसरी तरफ भाजपा के वोटों में कमी का न होना बता रहा है कि उसके खिलाफ आंधी नहीं थी। क्योंकि भाजपा ने भी 2019 के मुकाबले अपने वोटों में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि की। मगर यह निश्चित रूप से इसके बावजूद कहा जा सकता है कि राज्य में कांग्रेस की लहर चल रही थी। इसका प्रमाण यह भी है कि भाजपा की काबिज सरकार के 13 मन्त्रियों में से नौ मन्त्री चुनाव में धराशायी रहे और इसका विधानसभा अध्यक्ष भी पराजित हो गया। चुनाव में मन्त्रियों का हारना इंगित करता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ लोगों में रोष है। अतः यह बेहिचक कहा जा सकता है कि वर्तमान चुनावों में भाजपा के खिलाफ लोगों में गुस्सा था मगर यह गुस्सा इस कदर नहीं था कि भाजपा के दुर्ग को ढहा देता। इसका प्रमाण यह है कि भाजपा के वे किले कांग्रेस ध्वस्त करने में असमर्थ रही जो इसके पारम्परिक प्रभाव क्षेत्र माने जाते हैं। हरियाणा में भाजपा का प्रभाव शहरी क्षेत्रों व अहीरवाल (यादव बहुल इलाकों) के इलाकों में समझा जाता है।
इन दोनों ही संकायों में पार्टी ने 2019 के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया। भाजपा ने दिल्ली से लगे शहरी इलाके की 20 में से 18 सीटें जीतीं इनमें से पांच सीटें पहले कांग्रेस के पास थीं। इसी प्रकार अहीरवाल की 10 में से इसने 9 सीटें जीत लीं। जबकि पिछली बार केवल छह सीटें ही जीत पाई थी। राज्य के जिन छह जिलों के शहरों को जी.टी. रोड के शहर कहा जाता है उनकी 25 सीटों में से इसने 16 सीटें जीत लीं। इनमें अम्बाला, पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र व सोनीपत जैसे जिले आते हैं।
हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में भाजपा का प्रभाव बहुत कम माना जाता है और यह बोलचाल में बनियों व पंजाबियों की पार्टी मानी जाती है जिनमें अब अहीर और ब्राह्मण भी शामिल कर लिये जाते हैं या यू कहें कि कथित ऊंची जातियों का इसे समर्थन प्राप्त रहता है। मगर यह अवधारणा किसी तरह सही नहीं ठहराई जा सकती कि इन चुनावों में दलितों ने भाजपा को वोट दिया है। दलितों का बहुसंख्य वोट कांग्रेस पार्टी को ही पड़ा है क्योंकि कांग्रेस के प्रत्याशी दलित बहुल इलाकों में जम कर जीते हैं। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों पर कांग्रेस का दबदबा ही रहा है और इसके प्रत्याशी भारी बहुमत से जीतने में सफल रहे हैं। इन चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में दलित-जाट व मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण हुआ लगता है। मेवात के इलाके में कांग्रेस प्रत्याशियों ने भारी बहुमत से विजय हासिल की है। अतः हरियाणा के चुनाव जिस दिशा की तरफ संकेत कर रहे हैं वह यह है कि भाजपा के पक्ष में जो हिन्दू वोट बैंक तैयार हुआ था उसमें जबर्दस्त बिखराव आ रहा है।
इसका प्रमाण यह है कि इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस व भाजपा को बराबर-बराबर पांच-पांच सीटें मिली थी। परन्तु विधानसभा चुनावों में भाजपा के मत प्रतिशत में 6.1 की कमी दर्ज हुई है और कांग्रेस के मत प्रतिशत में यह कमी केवल 3.7 की है। मगर इससे भी ऊपर सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 58.2 प्रतिशत मत मिले थे और इसने राज्य की सभी दस लोकसभा सीटें जीत ली थीं। मगर 2024 के विधानसभा चुनावों में यह मत प्रतिशत 18.3 गिर कर केवल 39.94 ही रह गया है। जबकि 2019 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 28.5 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2024 के विधानसभा चुनावों में बढ़ कर 39.09 प्रतिशत हो गये हैं। पैमाना चाहे लोकसभा चुनाव हों या विधानसभा चुनाव नतीजा एक ही निकलता है कि भाजपा की लोकप्रियता में गिरावट आ रही है और इसका वोट बैंक बिखर रहा है। जबकि दूसरी तरफ कांग्रेस के वोट बैंक में इजाफा हो रहा है। इसका सीधा सम्बन्ध हम राष्ट्रीय राजनीति से स्थापित कर सकते हैं। जैसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकप्रियता में वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे ही कांग्रेस के वोट बैंक में विस्तार भी हो रहा है। इसके साथ एक और कारण नजर आ रहा है कि भाजपा के हिन्दुत्व मूलक विमर्श में अब छितराहट आने लगी है।
इसका शबाब पर पहुंचने का कार्य पूरा हो चुका है और इसके विरोध में राहुल गांधी जो विमर्श धर्म निरपेक्षता व सामाजिक न्याय का गढ़ रहे हैं उसमें विस्तार हो रहा है। यह स्थिति हमें साठ-सत्तर के दशक की राजनीति की याद दिला रही है जब समाजवादी विचारधारा के प्रवाहक नेता लोगों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे और जनसंघ राष्ट्रवाद की तरफ उन्हें खींच रही थी। हरियाणा के ये चुनाव परिणाम महाराष्ट्र व झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनावों को भी प्रभावित किये बिना नहीं रहेंगे। इससे एक बार फिर हिन्दुत्व बनाम समाजवाद या सामाजिक न्याय की राजनीति के विमर्शों के बीच हम भयंकर युद्ध होते हुए देख सकते हैं। मगर परिणाम हर राज्य की अपनी सामाजिक संरचना के रसायन से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह सकते। दलित, आदिवासी व पिछड़े और अल्पसंख्यकों के पुनर्जागरण की राजनीति का हम नया दौर भी देख सकते हैं और हिन्दुत्व के सर्व समाहित कलेवर को भी नये रंग में देख सकते हैं। महाराष्ट्र व झारखंड के चुनावों में ये दो विमर्श ही आपस में भिड़ते हुए दिखाई पड़ सकते हैं मगर हरियाणा में न कांग्रेस जीती है और न ही हारी है। यह स्थिति भाजपा के बारे में नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र के गणित में उसका पलड़ा भारी रहा है।