संपादकीय

बजट पर हंगामेदार बहस

Aditya Chopra

संसद के दोनों सदनों राज्यसभा व लोकसभा में बजट पर जो गरमागरम बहस हो रही है लोकतन्त्र में उसका स्वागत किया जाना चाहिए। बजट के मुद्दे पर विपक्ष और सत्तापक्ष के सांसदों की राय अलग-अलग है। संसदीय परंपरा में संसद में की जाने वाली बहस का राष्ट्रीय महत्व होता है। जाहिर तौर पर विपक्ष के सांसद बजट में विभिन्न कमियां गिनाकर सत्तारूढ़ सरकार को सचेत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि बजट में शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के क्षेत्र में अपेक्षित धन आवंटित किया गया है। जबकि सत्ता पक्ष के सांसद तर्क दे रहे हैं कि बजट में सभी वर्गों व समुदायों का समुचित ख्याल रखा गया है। मगर लोकतंत्र में विपक्ष की आलोचना का बहुत महत्व होता है क्योंकि वह सरकारी नीतियों का पोस्टमार्टम करता है लेकिन इसका मतलब यह कभी नहीं होता कि जो विपक्ष कह रहा है वही अंतिम सत्य होता है। अंतिम सत्य लोकतन्त्र में वही होता जिसे आम जनता शिरोधार्य करती है।
बेशक वर्तमान लोकसभा में विपक्षी सांसदों की संख्या कम नहीं है और इसे मजबूत विपक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है। विपक्ष के नेता कांग्रेस पार्टी के श्री राहुल गांधी यह सिद्ध कर रहे हैं कि सरकार ने बजट में न तो किसानों को वाजिब स्थान दिया है और न ही बेरोजगारी जैसी विक्राल समस्या का समुचित समाधान किया है। अग्निवीर योजना के चालू रहने को भी उन्होंने भारतीय सेनाओं में दो तरह जवानों की विसंगति को जमकर उठाया है। इसके साथ महंगाई के मोर्चे पर भी बजट में समुचित उपाय नहीं किये गये हैं। बेशक सरकार ने बजट में दावा किया है कि बेरोजगार युवकों को विभिन्न कम्पनियों में प्रशिक्षु के तौर पर भर्ती किया जायेगा। एेसे युवकों की संभावित संख्या सरकार एक करोड़ के लगभग बता रही है। साल भर के प्रशिक्षण के दौरान सरकार एेसे युवकों को पांच हजार रुपए मासिक दिलायेगी। देखने वाली बात यह होगी कि प्रशिक्षण पूरा होने के बाद इन युवकों को कहां पक्की नौकरी मिलेगी। इस सम्बन्ध में सरकार चुप है परन्तु लोकसभा चुनाव के दौरान सरकारी नौकरियों के तीस लाख पद खाली होने की बात कही गई थी। सरकारी नौकरियों में इस रिक्तता को भरने की बात भी बजट में नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि वर्तमान में गांवों में रहने वाला औसत परिवार प्रति माह 3094 रुपये की खरीदारी करता है और शहर में रहने वाला परिवार प्रतिमाह 4963 रुपये खर्च करता है । इसका मतलब यह हुआ कि लगभग 71 करोड़ लोग 100 से 150 रुपये प्रतिदिन पर जीते हैं।
इस सन्दर्भ में हमें लोकसभा की 1963 में हुई बहस का हवाला लेना होगा जिसमें समाजवादी चिन्तक व जन नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि भारत का औसत आदमी तीन आने रोज पर गुजर-बसर करता है जबकि तत्कालीन सरकार का कहना था कि औसत आदमी 12 आने रोज पर जीता है। वह भी क्या दौर था राजनीति का कि स्वयं प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने डा. लोहिया के इस निजी संकल्प को सदन में आधिकारिक प्रस्ताव में परिवर्तित करा दिया था और पूरी बहस को खुद बैठ कर सुना था। बजट में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते जिस प्रकार किसानों को सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य पर छोड़ा गया है उसकी आलोचना विपक्ष ने स्वाभाविक रूप से करनी ही थी क्योंकि लोकसभा चुनाव के दौरान स्वयं राहुल गांधी ने किसानों व कृषि क्षेत्र को आश्वासन दिया था कि यदि चुनावों बाद उनकी सरकार बनती है तो इंडिया गठबन्धन किसानों की समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी जामा पहनायेगा। दरअसल भारत में किसानों व युवाओं के लिए फौज की अग्निवीर योजना बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है। विपक्ष इन दोनों मुद्दों को बजट का भाग बनाना चाहता है। जो सरकार को स्वीकार्य नहीं है। सरकार का कहना है कि बजट समाज के सभी वर्गों के साथ न्याय करता है जबकि विपक्ष इसके उलट इसे अन्याय बता रहा है। वैचारिक लड़ाई इसी मुद्दे पर हो रही है। इसमें कोई हर्ज की बात भी नहीं है क्योंकि भारत मूलतः लोक कल्याणकारी राज है।
जाहिर तौर पर विपक्ष इस विवाद को खड़ा करके सड़कों पर अपना समर्थन बढ़ाना चाहता है । इसकी इजाजत भी लोकतन्त्र देता है क्योंकि संसद में बना विमर्श ही सड़कों पर ही आता है। बजट पर हुई बहस में विपक्षी नेता यह भी याद दिला रहे हैं कि इसमें जातिगत जनगणना का कोई जिक्र नहीं किया गया है। वैसे लोकतन्त्र में बजट राजनीतिक दस्तावेज ही होता है। इसमें बेशक आय-व्यय का ब्यौरा ही होता है परन्तु आर्थिक नीतियां ही राजनैतिक दिशा तय करती हैं अतः बाजारमूलक अर्थव्यवस्था में पूंजी का केन्द्रीकरण भी बहुत बड़ा मुद्दा बन जाता है। पूंजी की जब बात होती है तो भारत की संसद में 1991 से पहले तक उद्योगपतियों टाटा व बिड़ला का नाम गूंजता रहता था। डा. लोहिया तो 1967 तक केन्द्र की सरकार पर खुला आरोप लगाते थे कि उसकी नीतियां टाटा व बिड़ला के समर्थन में बनती हैं। आज स्थिति बदल चुकी है अतः दूसरे उद्योगपतियों के नाम आ रहे हैं। सरकार का बजट कुल 48 लाख करोड़ रुपये के खर्चे का है जबकि उसकी आमदनी केवल 32 लाख करोड़ रुपये है। जाहिर है कि इस कमी को सरकार उधारी लेकर या सरकारी सम्पत्ति बेच कर पूरा करेगी। सरकार कह रही है कि यह बजट सबके लिए हैं परन्तु एक तथ्य यह है कि भारत में लगभग तीस करोड़ लोग दिहाड़ी मजदूर हैं। ये रोज का कमाते हैं और खाते हैं। इनकी मजदूरी पिछले छह साल से स्थिर है। इनके बुढ़ापे के लिए भी कोई सहारा नहीं है। वस्तुतः गरीबी के आंकड़े इतने उलझ गये हैं कि इनका समाधान निकालना ही मुश्किल काम होता जा रहा है क्योंकि नीति आयोग कह रहा है कि 25 करोड़ लोगों के गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर आने के बाद भारत में केवल पांच प्रतिशत गरीब ही बचे हैं। यदि एेसा है तो फिर वे 81 करोड़ लोग कौन हैं जिन्हें सरकार मुफ्त राशन हर महीने दे रही है? बजट पर रही चर्चा में इन मुद्दों का जवाब भी वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने दिया है। संसद में बजट पर जितनी गंभीर चर्चा होगी देश का उतना ही भला होगा क्योंकि आम जनता अपने सवालों का हल भी इस बहस में खोजेगी।