संपादकीय

लहर विहीन चुनाव की ऊंची-नीची लहरें

Shera Rajput

लोकतंत्र का महापर्व भारत में शुरू हो गया है। यह कितनी बड़ी क़वायद है यह इस बात से पता चलता है कि हमारी 97 करोड़ वोटर संख्या अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, ब्राज़ील और जापान की संयुक्त जनसंख्या से अधिक है। पर पहले चरण की 102 सीटों के लिए वोटिंग से पता चलता है कि इस बार जोश कुछ ठंडा है, मतदान 2019 के मुक़ाबले लगभग 5 प्रतिशत कम हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी और विपक्षी नेताओं के धुआंधार प्रचार के बावजूद सड़क पर प्रतिक्रिया उत्साहहीन है। कोई लहर नज़र नहीं आती। शायद सोच लिया कि कोई बदलाव नहीं होने वाला।यह चुनाव कुछ बातें स्पष्ट करतें हैं:-
1. हमारे लोकतंत्र को कोई ख़तरा नहीं है : विपक्ष बहुत शोर मचा रहा है कि हमारा लोकतंत्र ख़तरे में है और अगर नरेंद्र मोदी की भाजपा फिर सत्ता में आ गई तो संविधान बदल दिया जाएगा। भाजपा के अपने कुछ ग़ैर ज़िम्मेदार लोगों द्वारा यह प्रचार कि अगर 400 से अधिक सीटें आ गई तो हम संविधान बदल देंगे से इस शंका को बल मिला है। पर ऐसे नहीं होने वाला। पहली बात तो यह है कि जनता संविधान के मूल ढांचे से किसी भी तरह के खिलवाड़ को बर्दाश्त नहीं करेगी। इंदिरा गांधी को सबक़ सिखाया जा चुका है। लोगों को अपने लोकतंत्र, वह कैसा भी अपूर्ण हो, से मोह है। दूसरा, न ही भाजपा का नेतृत्व संविधान बदलने की बात कर रहा है। तीसरा, भाजपा के नेतृत्व को संविधान बदलने की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि इसी संविधान के अंतर्गत उनका काम बढ़िया चल रहा है और उनके मुद्दे, धारा 370 हटाना, राममंदिर निर्माण आदि पूरे हो रहे हैं। चौथा, संविधान बदलने के लिए जो बहुमत चाहिए वह भी किसी को मिलने वाला नहीं। 400 पार केवल प्रचार के लिए है। प्रदेशों के बहुमत का अनुमोदन भी चाहिए। केवल एक बार राजीव गांधी को ऐसा बहुमत मिला था पर उन्होंने सब गड़बड़ कर दिया था।
2. चुनाव नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द लड़ा जा रहा है: जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद यह चुनाव एक व्यक्ति, नरेन्द्र मोदी पर केन्द्रित है। भाजपा भी उन्हीं का नाम जप रही है और विपक्षी निशाने पर भी नरेन्द्र मोदी ही है। वरिष्ठ नेता जैसे राजनाथ सिंह या अमित शाह या नितिन गड़करी भी केवल एक ही नाम पर वोट मांग रहे हैं, नरेन्द्र मोदी। सब कुछ 'मोदी की गारंटी' है। प्रचार में भी एक ही चेहरा नज़र आता है। संघ जो व्यक्ति- विशेष के प्रचार को पसंद नहीं करता ने भी समझौता कर लिया है। मोदी भी इस चुनाव कोप्रेसिडेंशियल टाईप बनाने में सफल रहे हैं क्योंकि उनके सामने राहुल गांधी फीके लगते हंै। वह 2047 तक विकसित भारत का वादा कर रहें हैं और जल्द दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की गारंटी दे रहे हैं। संदेश स्पष्ट है कि यह सब केवल एक नेता की लीडरशिप में ही हो सकता है। विपक्ष का भी सारा हमला नरेन्द्र मोदी पर हो रहा है। समझ गए हैं कि उनके बिना भाजपा बिन पतवार के नौका की तरह होगी,इसलिए प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता पर चोट की जा रही है।
3. 370/400 नहीं होने वाला: प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के बावजूद उनका 370/400 वाला दावा ज़रूरत से अधिक आशावान नज़र आता है। इतनी बड़ी छलांग के लिए पक्ष में बड़ी लहर चाहिए जो अभी नज़र नहीं आ रही। उल्टा वोटर थका थका सा नज़र आ रहा है और कार्यकर्ता उदासीन है। भाजपा ने भ्रष्ट और दलबदलुओं को दाखिल कर अपना नुक़सान कर लिया है। भ्रष्टाचार का मुद्दा तो उसी दिन खोखला हो गया था जब अजीत पवार जैसों को साथ लिया था। परिवारवाद का मुद्दा भी इसी कारण खो दिया। भाजपा के अंदर इस बात को लेकर असंतोष है कि दूसरे दलों से आए लोगों को तरजीह दी जा रही है। पंजाब में तो सारा संगठन ही कांग्रेस से आए लोगों को सौंप दिया गया है। बिहार में नीतीश कुमार का साथ महंगा प्रतीत होता है। महाराष्ट्र (48) और बिहार (40) दोनों में पिछली वाली बात नहीं है। उत्तर में किसान नाराज़ है जिसका असर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देखने को मिल सकता है। 2019 के चुनाव में बालाकोट और पुलवामा के भावनात्मक मुद्दे थे। आज ऐसा कोई मुद्दा नहीं है। 2047 किस ने देखा है? 'इंडिया शायनिंग' वाला प्रयास दोहराया जा रहा लगता है। लोगों को महंगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक विषमता के मुद्दे परेशान कर रहे हैं। उत्तर भारत में अग्निवीर भर्ती योजना भी बड़ा मुद्दा है। चार साल के बाद जो सेवानिवृत्त हो जाएंगे वह नौजवान किधर जाएंगे? काश, इसे लागू करते समय इसके दूरगामी परिणामों का सही आंकलन किया होता।
अगर 370/400 प्राप्त करना है तो दक्षिण भारत में बेहतर प्रदर्शन करना होगा। इसीलिए प्रधानमंत्री बार बार दक्षिण का दौरा कर रहे हैं। 2019 में दक्षिण की 130 सीटों में से भाजपा को केवल 29 सीटें मिली थीं जिनमें से 25 कर्नाटक से और 4 तेलंगाना से थी। केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में वह खाता नहीं खोल सके थे। आज कर्नाटक और तेलंगाना दोनों में मज़बूत नेताओं के नीचे कांग्रेस की सरकारें हैइसलिए पिछले वाला समर्थन नहीं मिलेगा।
यह अफ़सोस की बात है कि प्रधानमंत्री ने फिर मुसलमानों का मुद्दा उठा लिया है। इस चुनाव में 'मंगलसूत्र','घुसपैठिए','जिनके ज़्यादा बच्चे हैं ' कहां से टपक गए? इसकी ज़रूरत भी क्या थी? इससे यह प्रभाव मिलता है कि अभी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है इसलिए फिर हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिश हो रही है। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश से लिखा है कि वहां यह आवाज़ें सुनने को मिल रही हैं कि, "बहुत हो गया हिन्दू -मुसलमान। रहना तो साथ में ही है"। न ही इस बार राम मंदिर ही मुद्दा है। बेहतर होता कि देश के प्रधानमंत्री खुद को निम्न राजनीति से ऊपर रखते। जब संदेश 'सबका साथ और सबका विकास' है और सब कल्याणकारी योजनाओं में सबका बराबर का हिस्सा है, तो ध्रुवीकरण करने की क्या ज़रूरत है?
4.राहुल गांधी फिर बहक गए: हाल में किए गए सीएसडीएस- लोकनीति सर्वेक्षण के अनुसार 27 प्रतिशत लोग बेरोज़गारी को और 23 प्रतिशत लोग महंगाई को मुख्य मुद्दा मानते हैं। केवल 2 प्रतिशत ही हिन्दुत्व को मुद्दा मानते हैं। उम्मीदवार घोषित करने में कांग्रेस सबसे पीछे है। अभी तक यह ही नहीं बताया जा रहा कि रायबरेली और अमेठी से कौन लड़ेगा? राहुल गांधी का जवाब था कि हाईकमान फ़ैसला करेगा। पर भैया, आप ही तो हाईकमान हो,खुद से पूछ लो ! कांग्रेस से जो होलसेल दलबदल हो रहा है वह नेतृत्व के प्रति अविश्वास बताता है। 2019 में भाजपा और कांग्रेस के वोट में लगभग 18 प्रतिशत का अंतर था। इस खाई को पाटने के लिए 9-10 प्रतिशत की बड़ी छलांग चाहिए जो सम्भव नहीं लगती।
राहुल गांधी की शिकायत है कि भारत सरकार के 90 सचिवों में केवल 3 ओबीसी हैं। उनके अनुसार "किस प्रकार बजट का वितरण होता है उसमें भारत की जनसंख्या के 90 प्रतिशत की कोई भूमिका नहीं"। यह न केवल पिछड़ी सोच है बल्कि बहुत ख़तरनाक भी है कि केवल एक ओबीसी, एक दलित या आदिवासी या अल्पसंख्यक अफ़सर ही अपने समुदाय का हित देख सकता है। ऐसे तो देश के बिल्कुल टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। उनके अनुसारजाति जनगणना देश की हर समस्या का इलाज है। नेहरूजी की विचारधारा का उनके ही वंशज शीर्षासन कर रहे हैं। वह देश का एक्स-रे करने की धमकी दे रहे हैं और 'देश के धन' के पुनर्वितरण की बात कर रहें हैं। देश में जो घोर विषमता देखने को मिल रही है वह अत्यंत चिन्ता की बात है इसके लिए नीतियां बदलनी होंगी पर राहुल गांधी तो ज़बरदस्ती करने की बात कर रहें है, क्रान्तिकारी कदम उठाने की बात कर रहे हैं। क्या वह देश में सिविल वार चाहतें हैं?
राहुल तो अपने घोषणा पत्र से भी आगे निकल गए हैं। उनका नारा है 'जितनी आबादी उतना हक़'। यह होगा कैसे? क्या जज भी आबादी के अनुसार नियुक्त होंगे? सेना के जनरल भी? कांग्रेस पार्टी के शिखर पर गांधी परिवार का हक़ भी कैसे बनेगा? राहुल अल्ट्रा- लैफ्ट की चरम विचारधारा से प्रभावित लगते हैं जिसे बीजिंग और मास्को तक रद्द कर चुके हैं। यह माओत्सी तुंग या लेनिन का युग नहीं है। न ही उनके गठबंधन की पार्टियां उनकी चरम विचारधारा को समर्थन देंगी। उन्हें खुद को महंगाई, बेरोज़गारी और हैल्थ केयर जैसे मुद्दों तक सीमित रखना चाहिए। होश के बिना जोश के कारण उन्होंने एक बार फिर सेल्फ़ गोल कर लिया है। भाजपा को असली मुद्दों से ध्यान हटाने का मौक़ा दे दिया।
5.असली चुनौती स्थानीय नेताओं से: भाजपा को कांग्रेस से भी अधिक चुनौती मज़बूत स्थानीय नेताओं से मिल रही है। नवीन पटनायक, एम.के. स्टालिन, जगन रेड्डी, ममता बनर्जी, रेवंथ रेड्डी, सिद्दारमैया-डी.शिव कुमार, पिनाराई विजयन सब अपना अपना घर सम्भाले हुए हैं और भाजपा को जगह नहीं देंगे। उद्धव ठाकरे, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव जैसे नेता भी दृढ़ता दिखा रहे हैं। केवल आप फंसी हुई लगती है क्योंकि वरिष्ठ नेता जेल में हैं। अरविंद केजरीवाल की सेहत राजनीति का विषय नहीं होनी चाहिए।
अंत में: एक कार्टून देखा था जिसमें एक ग्रामीण अपनी पत्नी से कह रहा है, "दे दिया वोट, उम्मीद करते हैं कि जिस पार्टी को दिया है पांच साल उसी में रहे यह वोट"। पर आज के माहौल में क्या कोई निश्चित कह सकता है कि जहां वोट दिया है वहां ही टिका रहेगा? हम अपनी राजनीति का सबसे घिनौना और भ्रष्ट चेहरा देख रहें हैं। अब ज़िम्मेवारी हमारी बनती है कि जिन्होंने भी जनादेश का मजाक उड़ाया है और वफ़ादारियां बदली हैं उन्हें वोट न दिया जाए। वोट देना हमारा लोकतांत्रिक फ़र्ज़ है पर जो हमारे जनादेश से खिलवाड़ करते हैं और दलबदल करते हैं, वह किसी भी पार्टी में हों, उन्हें सबक़ सिखाना भी हमारा फ़र्ज़ बनता है।

– चंद्रमोहन