संपादकीय

कैसे बने देश भ्रष्टाचार मुक्त ?

चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है।

Vineet Narain

चुनाव संपन्न होने के बाद हर दल जो सरकार बनाता है या विपक्ष में होता है जनता के हित में किये गये चुनावी वादों को साकार करने की बात पर ज़ोर देता है। हाल ही में संपन्न हुए कुछ विधानसभा चुनावों और इससे पहले हुए लोकसभा के नतीजों से इस बात का स्पष्ट संकेत मिला है कि जनता नारों में बहकने वाली नहीं, उसे जिम्मेदार सरकार चाहिए। पिछले 75 वर्षों में हज़ारों अधिकारी जनता के पैसे पर अनेक प्रशिक्षण, अध्ययन व आदान-प्रदान कार्यक्रमों में दुनियाभर के देशों में जाते रहे हैं। पर वहां से क्या सीख कर आये, इसका देशवासियों को कुछ पता नहीं लगता। मुझे याद है 2009 में एक हवाई यात्रा के दौरान गुजरात के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने बताया कि वह छह हफ्ते के प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद विदेश से लौटा है। प्रशिक्षण के बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के सामने यह बताना है कि इन छह हफ्तों में उसने जो कुछ सीखा उसका लाभ उसके राज्य को कैसे मिल सकता है। मेरे लिये ये यह एक रोचक किन्तु प्रभावशाली सूचना थी। जिसका उल्लेख मैंने तब भी इस कॉलम में किया था।

हम भारतीयों की एक आदत है कि हम विदेश की हर चीज की तारीफ करते हैं। वहां सड़कें अच्छी हैं। वहां बिजली कभी नहीं जाती। सफाई बहुत है। आम जीवन में भ्रष्टाचार नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काम बड़े कायदे से होता है। आम आदमी की भी सुनी जाती है, वगैरह-वगैरह। मैं भी अक्सर विदेश दौरों पर जाता रहता हूं। मुझे भी हमेशा यही लगता है कि हमारे देशवासी कितने सहनशील हैं जो इतनी अव्यवस्थाओं के बीच भी अपनी जिन्दगी की गाड़ी खींच लेते हैं। पर मुझे पश्चिमी जगत की चमक-दमक प्रभावित नहीं करती। बल्कि उनकी फिजूलखर्ची देखकर चिंता होती है।

पिछले हफ्ते जब मैं सिंगापुर गया तो जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित की, वह थी इस देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति। वहां की आबादी में चीनी, मलय व तमिल मूल के ज्यादा नागरिक हैं। जिनसे कोई बहुत अनुशासित और परिपक्व आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पर आश्चर्य की बात है कि सिंगापुर की सरकार ने कानून का पालन इतनी सख्ती से किया है कि वहां न तो कभी जेब कटती है, न किसी महिला से कभी छेड़खानी होती है, न कोई चोरी होती है और न ही मार-पिटाई। बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि सिंगापुर में अपराध का ग्राफ शून्य के निकट है। एक आम टैक्सी वाला भी बात-बात में अपने देश के सख्त कानूनों का उल्लेख करना नहीं भूलता। वह आपको लगातार यह एहसास दिलाता है कि अगर आपने कानून तोड़ा तो आपकी खैर नहीं।

हमें लग सकता है कि कानून का पालन आम आदमी के लिए होता होगा, हुक्मरानों के लिए नहीं। पर आश्चर्य की बात ये है कि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी कानून का उल्लंघन करके बच नहीं सकता। 1981-82 में सिंगापुर के एक मंत्री तेह चींग वेन पर आठ लाख डॉलर की रिश्वत लेने का आरोप लगा। नवम्बर 1986 में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने उसके विरुद्ध एक खुली जांच करने सम्बन्धी आदेश पारित कर दिया। हालांकि एटोर्नी जनरल को संबंधित कागजात 11 दिसम्बर को जारी किये गये परन्तु फिर भी वह अपने आप को निर्दोष बताता रहा तथा 14 दिसम्बर को ही अपने बचाव हेतु पक्ष रखने से पूर्व उसने आत्महत्या कर ली।

आश्चर्य की बात ये है कि तेह चींग वेन सिंगापुर को विकसित करने के लिए जिम्मेदार और उसके 40 वर्ष तक प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति रहे ली क्वान यू का सबसे ज्यादा चहेता था। दोनों में गहरी मित्रता थी। यदि ली चाहते तो उसे पहली गलती पर माफ कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। तेह चींग वेन अपने प्रधानमंत्री को मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं कर सका और आत्महत्या कर ली। उसने आत्महत्या के नोट में लिखा, “मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रहा हूं तथा पिछले दो सप्ताह से तनाव में हूं। मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के लिए अपने आप को जिम्मेदार मानता हूं तथा मुझे लगता है कि इसकी सारी जिम्मेदारी मुझे ले लेनी चाहिए। एक सम्माननीय एवं जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे लगता है कि अपनी गलती के लिए मुझे बड़ी से बड़ी सजा मिलनी चाहिए।’’

उसके इस कदम से सिंगापुर वासियों का दिल पिघल गया। उन्हें लगा कि अब तो ली उसे माफ कर देंगे और उसके जनाजे में शिरकत करेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। लोगों को आश्चर्य हुआ कि अपने इतने प्रिय मित्र और लम्बे समय से सहयोगी के द्वारा प्रायश्चित के रूप में इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी ली उसके जनाजे में शामिल क्यों नहीं हुए? इसका उत्तर कुछ दिन बाद ली ने यह कहकर दिया कि “मैं अगर तेह चींग वेन के जनाजे में जाता तो इसका अर्थ होता कि मैंने उसकी गलती माफ कर दी। न जाकर मैं यह सन्देश देना चाहता हूं कि जिस व्यवस्था को खड़ा करने में हमने 40 साल लगाये वो एक व्यक्ति की कमजोरी से धराशायी हो सकती है। हम गैरकानूनी आचरण और भ्रष्टाचार के एक भी अपराध को माफ करने को तैयार नहीं हैं।” ऐसा इसी सदी में, एशिया में ही हो रहा है तो भारत में हमारे हुक्मरान अपने अफ़सरों और मंत्रियों पर ऐसे मानदण्ड क्यों नहीं स्थापित कर सकते?

बातें सब बड़ी-बड़ी करते हैं। पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश के 58 फीसदी लोग मानते हैं कि आज तक हमारे हुक्मरान बेहद भ्रष्ट रहे हैं। हर दल भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वायदा करके सत्ता में आता है और सत्ता में आने के बाद अपने असहाय होने का रोना रोता है। इस देश का आम आदमी जानता है कि कानून सिर्फ उस पर लागू होता है। हुक्मरानों और उनके साहबजादों पर नहीं। सी.बी.आई. और सी.वी.सी. इस बात के गवाह हैं कि ताकतवर लोगों की रक्षा में इस लोकतंत्र का हर स्तम्भ मजबूती से खड़ा है और वे कितना भी बड़ा जुर्म क्यों न करें, उन्हें बचाने का रास्ता निकाल ही लेता है। इसीलिए हमारे यहां अपराध बढ़ते जा रहे हैं। सच्चाई तो ये है कि जितने अपराध होते हैं उसके नगण्य मामले पुलिस के रजिस्टरों में दर्ज होते हैं।

ज्यादातर अपराध प्रकाश में ही नहीं आने दिये जाते। फिर गुड गवर्नेंस कैसे सुनिश्चित होगी? क्या हमारे नेता सिंगापुर के निर्माता व चार दशक तक प्रधानमंत्री रहे, ली क्वान यू से कोई सबक लेंगे? आम जनता को लगातार क़ानून का डर दिखाने से पहले हुक्मरानों का आचरण, उनके निर्णय और उनकी नीतियां पारदर्शी व आम जनता के हित में होनी चाहिए। भगवत गीता के तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं,

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥”

अर्थात- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है वैसा ही व्यवहार अन्य लोग भी करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण छोड़ देता है लोग उसी के अनुसार आचरण करते हैं। माना कि हमारा देश बहुत बड़ा है और तमाम विविधताओं वाला है, पर ‘जहां चाह वहां राह।’