संपादकीय

एक वोट के हक की महत्ता

Shera Rajput

भारत में चुनावों को लोकतन्त्र का उत्सव कहा जाता है। वास्तव में भारत के आम आदमी की आजादी का महापर्व होता है। इस महापर्व की महत्ता यह है कि इसमें भारत का हर वयस्क मतदाता बादशाह होता है जिसके हाथ में यह ताकत होती है कि वह किस पार्टी के हाथ में पांच साल के लिए सत्ता चलाने की चाबी देगा। यह कार्य सामान्य नागरिक एक वोट के अधिकार के जरिये करता है। गांधी बाबा जब देश के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार देने की बात कर रहे थे तो अंग्रेज हम पर हंस रहे थे। इसकी वजह यह थी कि गांधी बाबा ने भारत के लोगों को आश्वासन दिया था कि वह स्वतन्त्र होने पर भारत में एेसी व्यवस्था कायम करेंगे जिसमें खुद राजा को चल कर उनके पास आना पड़ेगा और उनसे अनुनय-विनय करना पड़ेगा कि वे उसका पिछले पांच साल का काम देख कर उसकी आगे की जिम्मेदारी तय करें। तब कुछ अंग्रेज विद्वान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मजाक उड़ा रहे थे और कह रहे थे कि भला भूखे-नंगे और अनपढ़ लोगों के हाथ में मुल्क की बादशाहत देने से भारत इकट्ठा रह सकेगा और आगे बढ़ सकेगा? राष्ट्रपिता ने तब बहुत आत्म विश्वास और दृढ़ता के साथ जवाब दिया था कि भारत के लोग गरीब या अनपढ़ हो सकते हैं मगर वे मूर्ख नहीं हैं।
भारत को आजाद हुए 75 साल हो चुके हैं और भारत के लोग तब से लेकर अब तक हुए 17 लोकसभा चुनावों में पूरी बुद्धिमत्ता का परिचय दे चुके हैं। भारत का लोकतन्त्र दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र बना हुआ है और इसके वे ही भूखे- नंगे लोग आज सम्पन्नता की ओर भी बढ़ रहे हैं और समयानुसार तरक्की भी कर रहे हैं बेशक भारत में अभी भी व्यापक आर्थिक असमानता है। यह सारा कमाल एक वोट के अधिकार का ही है क्योंकि बाबा जब भारत के आम जन को इसकी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था का मालिक बना कर गये तो सरकार खुद ही जनता की नौकर हो गई। यह कोई छोटा- मोटा काम नहीं था बल्कि दुनिया में मूक क्रान्ति का प्रतीक था।
भारत में हर अमीर से लेकर गरीब व हिन्दू से लेकर मुसलमान तक को एक बराबरी पर रख कर एक वोट का अधिकार दिया गया था। इसी एक वोट की ताकत से अभी तक भारत की सत्ता में कई बार परिवर्तन हो चुका है और ​ि​फलहाल देश में कोई भी एेसा प्रमुख क्षेत्रीय दल नहीं है जिसने केन्द्र की सत्ता में भागीदारी न की हो। एेसा केन्द्र में साझा सरकारों के शासनकाल के दौरान हुआ। कल्पना कीजिये कि जिस भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर उसके हिंसा के सिद्धान्तों की वजह से आजादी मिलते ही प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। यह पार्टी तभी 1952 के प्रथम चुनावों में भाग ले सकी थी जब इसने भारतीय संविधान को स्वीकार करते हुए यह कसम उठाई थी कि वह केवल संवैधानिक अहिंसक रास्तों से ही संसदीय चुनावों में भाग लेगी वोट के जरिये सत्ता बदल के सिद्धान्त पर चलेगी।
क्या गजब हुआ कि 1996 में जब केन्द्र में श्री एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार बनीं तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता स्व. इन्द्रजीत गुप्ता भारत के गृहमन्त्री बने। यह एक उदाहरण है कि आम आदमी के एक वोट में कितनी ताकत होती है। इसकी ताकत की वजह से ही राजनैतिक दलों के बड़े-बड़े नेता चुनावों के समय भारत की गलियों की खाक छानते हैं और गरीब से गरीब आदमी की मनुहार करके उसका वोट मांगते हैं। अतः एक वोट के अधिकार को जो लोग हल्के में लेते हैं या मतदान के दिन छुट्टी मनाते हैं, वे अपने उस सम्मान की परवाह नहीं करते जिसके लिए अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के लिए स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी गई थी और हमारी पुरानी पीढि़यों ने फांसी तक पर लटक कर अपना बलिदान दिया था। एक वोट का सीधा सम्बन्ध रोजी-रोटी से होता है। अब चुनावों में ये नारे सुनाई नहीं पड़ते जो सत्तर के दशक तक अक्सर चुनावी मौसम में गूंजा करते थे। जैसे, 'रोजी-रोटी दे न सके जो वह सरकार निकम्मी है -जो सरकार निकम्मी है वह सरकार बदलनी है।' इसके साथ ही यह नारा भी बहुत गूंजा करता था कि 'हर जोर-जुल्म की टक्कर पे- संघर्ष हमारा नारा है'।
निश्चित रूप से बदलते समय के अनुसार रिवाज भी बदले हैं और रवायतें भी बदली हैं मगर जो नहीं बदला है वह भारत के आम नागरिक को मिला वोट का अधिकार। गांधी बाबा ने स्वतन्त्रता मिलते ही संविधान के माध्यम से इस अधिकार को लोगों को दे दिया था। लोकतन्त्र की यही खूबी होती है कि इसमें अवाम को जो कुछ भी मिलता है वह अधिकार के रूप में स्थायी तौर पर मिलता है। जबकि राजतन्त्र में जनता को जो भी सुविधाएं दी जाती हैं वे राजा की कृपा से दी जाती हैं। मगर लोकतन्त्र में प्रजा नहीं बल्कि संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों से लैस नागरिक होते हैं। ये नागरिक ही अपनी सरकार खुद बनाते हैं और सरकार के कामों पर निगाह रखते हैं। अतः राजतन्त्र व लोकतन्त्र में विलोमानुपात होता है। गांधी बाबा बहुत अच्छी तरह से यह बात लोगों को समझा कर गये थे।
अतः यह सनद रहना चाहिए कि भारत के लोग गांधी बाबा द्वारा दिए गए इस बेशकीमती अधिकार का प्रयोग अधिक से अधिक करें और अपनी मनपसंद की सरकार गठित करें। जब हम एक वोट की बात करते हैं तो भारत की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात करते हैं। आम आदमी को मिला यह एक वोट भारत की समूची प्रशासनिक व्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेता है। हमारे संविधान निर्माता ने लोकतंत्र के चार अंगों में से एक कार्यपालिका को भी अपना काम शुरू करने से पहले संविधान की शपथ उठाने की व्यवस्था की है कि जिससे हर हालत में आम आदमी की सुनवाई नीचे से लेकर ऊपर तक बैठे हुए अधिकारी के सामने हो सके। यह ऐसी अनूठी प्रशासनिक व्यवस्था है जो दुनिया की सारी व्यवस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यह एक वोट का ही कमाल होता है की कोई राजनीतिक दल सत्ता की कुर्सियों पर जाकर बैठता है और कोई विपक्ष में बैठता है। मगर विपक्ष में बैठा हुआ जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि भी संसद में पहुंचकर उसकी आवाज पुरजोर तरीके से उठा सकता है।
संसदीय प्रणाली को चलाने के नियम हमने इसी प्रकार के बनाए हैं और यह तय किया है की हर सरकारी नीति और निर्णय में विपक्ष में बैठे चुने हुए प्रतिनिधियों की भी बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए। संसद में सत्ता और विपक्ष के बीच जो बहस होती है वह इसी नजरिए से की जाती है। जब संसद में कोई सांसद कोई विषय या मुद्दा उठाता है तो वह आम जनता की ही बात करता है वरना संसद में ऐसे नियम भी हैं जिनमें सांसद अपने निजी हित के सवाल नहीं उठा सकते इस बारे में एक अलिखित नियम संसद में चलता है हालांकि उस पर अब असल काम होना शुरू हो चुका है। चुनाव के मौके पर हम देखते हैं की किस प्रकार बड़े-बड़े नेता एक वोट पाने के लिए पसीने बहाते हैं। इसी से एक वोट की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह एक वोट देश की किस्मत तक बदल देता है। 1952 से लेकर के 2019 तक हुए चुनाव में यही बात स्पष्ट हुई है। इसलिए इस एक वोट को कभी भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।